शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

केरवा डम

सबसे पहले यह बता देना उचित होगा कि यह यात्रा क्यों और किसलिए कि गयी १५ आगस्त को मेरे दोस्त श्रीश का जन्मदिन होता है और उसी पार्टी को मानाने के लिए हम लोग भोपाल के पास स्थित केरवा डम घुमाने गये उसकी कुछ तस्वीरे आपके लिए









सोमवार, 13 दिसंबर 2010

अर्विन्दम के नाम खुला पत्र

प्रिय अरविन्दम,

द सण्डे इण्डियन में नीरा राडिया और मीडीया पर प्रकाशित आपका लेख पढ़ा । नया विचार देने के लिए आपको धन्यवाद। नये तरीके से देखने में कोई बुराई नहीं है लेकिन बुरा को भी अच्छा कहना बुरा है। लाबिंग के बारे में आपने जो दलीले दी है वह सही है। लबिंग एक ऐसा पेशा है जिसमें आज दुनिया के लाखो लोग है। आप vichardhara की बात करते हैं ? ओबामा को जिताने में एक टीवी चैनल का पूरा सहयोग है, यह सही है। ओबामा के लिए वह पेड पत्रकारिता कर रहा था तो क्या आप भारत में भी पेड पत्रकारिता के बुराई के पेड़ को पैदा करना चाहते हैं ? मीडिया जगत पेड पत्रकारिता को पर प्रतिबन्ध लगना चाहता है और आप हैं जो उसे बढा़ रहे हैं।

इसमें आप की गलती नहीं है। आप सभी चीजो को पैसे के साथ तौलना चाहते हैं। आप तो इसे भी बैध ठहरा सकते हैं कि हमारे सांसद पैसा लेकर सवाल पूछे। लेकिन आपके देखने का नजरिया व्यसायिक है। जहां तक मुझे लगता है खास कर भारतीय मीडिया के बारे में बहुत कम जानते है। पत्रकारिता के सम्बन्ध में एक विद्वाव ने कहा है ‘‘ कि आगर डाक्टर गलती करता है तो एक आदमी मरता है ,आगर एक वकील गलती करता है तो मामले की जांच फिर से शुरू कर दी जाती है लेकिन अगर एक पत्रकार गलती करता है तो सारा देश उससे प्रभावित होता है।

केवल अपना फायदा देखना हर जगह उचित नहीं हैं। नीरा राडिया को एक लाविस्ट मान लिया जाए तो बरखा दत्त ,प्रभूचावला और वीर संघवी भी एक पत्रकार न हो कर लाविस्ट है। अगर ये सब लाविस्ट हैं और आपने ग्रहक के लिए काम करना चाहते हैं तो मीडिया नाम का चादर ओढ़ने की क्या जरूत है। लाविगं खुद में एक व्यवसाय है। आपके दिए आकडे़ के अनुसार, इसका व्यवसाय दिन दूना रात चौगनी बढ रहा है। इन लोगो को चाहिए की मीडिया की चादर को उतार फेंके और लाविगं को अपना व्यवसाय या मैं कहूं अपना

धन्धा बना ले। भविष्य उज्जवल रहेगा और देश उस गर्त में जाने से बच जाएगा जिसमें ये लोग ले जाना चाहते हैं।

मीडिया की अपनी कुछ आचार संहिता होती है। राजेन्द्र माथुर ने कहा है कि मीडिया के लोग ही मीडिया की आचार संहिता बना सकते है कोई और अगर उसे बनाएगा तो या तो रेखा गलत खीचे देगा या हरण कर ले जाएगा। आप मीडिया और लाविंग ,लाविंग और मीडिया को एक बना कर मीडिया का हरण करना चाहते हैं लाविंग का काम है आपने ग्रहको को फायदा पहुचाना तो मीडिया का ग्रहक कौन हैं ? वे पत्रकार जो इस मामले में फंसे हैं या नहीं फसे है या आम जनता है। यदि आम जनता मीडिया की ग्रहक है तो उस को जरूर फायदा होना चाहिए। लेकिन बरखा दत्त, वीर संघवी और प्रभूचावला के इस कारनामे से किसका फायदा होने वाला है क्या आप इसे बताते की कोशिश करेगें।

अब मैं बात करना चाहूंगा की मीडिया मैन जब लाविस्ट बनते हैं तो क्या होता है?

आपने विदेशों में पसरे लाविंग के व्यवसाय का उदाहरण लेकर इस बात को समझाने का प्रयत्न किया है कि यह सही है तो उन देशों के बारे में कुछ बाते औऱ भी हैं। आप अमेरिका की बात करेंगे, इग्लैड की बात करेंगे। आप कहते हैं की वहां मीडिया संस्थान और पत्रकार लाविंग करते हैं। लेकिन शायद आरतो यह मालूम नहीं है की वहां के एक पत्रकार बिना टिकट यात्रा नहीं कर सकता है। गिफ्ट या अनुदान(घूस) नहीं ले सरता है।

किसी भी ऐसी कंपनी का शेयर नहीं खरीद सकता है जिसकी वह रिपोर्टिंग कर रहा है। अगर वह ऐसा करता है तो उसे अपनी बीट छोड़नी पड़ती है या फिर संस्थान के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। वहां तो व्यवस्था यहां तक है कि कोई पत्रकार किसी पार्टी को कवर करने जाए तो भी वह अपना बिल खुद चुकाए। जरा सोचिए।

एक पत्रकार ऐसे में लाबिंग कैसे कर सकता है। हां दलाली जरुर कर सकता है। क्योंकि दलालों को नौकरी की चिंता नहीं रहती है। पत्रकारों को अपने चरित्र के बारे में सोचना पड़ता है। लाबिंग करने वाले अलग लोग होते हैं और मीडिया में काम करने वाले अलग लोग होते हैं। अगर एक ही आदमी से ऑपरे भी करवाओगे और पूल का क्शा भी बनवाओगे तो वह दोनों ही काम गलत करेगा। जिसका ऑपरे कर रहा है वह तो मरेगा ही और वह पूल भी ज्यादा दिन तक नहीं चल पाएगा और उससे भी लोग मरेंगे ही। अच्छा हो एक आदमी एक ही काम करे। प्रभु चावल, बरखा दत्त और वीर संघवी ने एक साथ दो काम हाथ में लिए लेकिन आज वो कहीं के नहीं रहे। अच्छा है यह हिंदुस्तान है कि उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया गया केवल पदभर को कम किया गया है। भारत में भी लाबिंग का व्यवसाय फले-फूले इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। लेकिन लाबिंग करने वाले इस व्यवसाय के हों। अन्य देशों की तरह हमारे दे में भी लाबिंग को स्थान मिले। मीडिया के लोग अगर लाबिंग करेंगे तो मीडिया का जो काम है उसे कौन करेगा। क्या कोई मीडिया कर्मी इस बात को सोच सकता है कि जिससे उसे काम निकलवाना है उसके खिलाफ कुछ भी छाप सके।

पत्रकार या तो पत्रकारिता करे या लाबिंग करे। दोनों एक प्रकार से व्यवसाय ही हैं। और इनमे से एक को उन्हें चुनना चाहिए। क्यों कुछ लोगों के फायदे के लिए पूरे समाज को गर्त में धकेलना चाहते हैं आप।

लाबिस्ट और पत्रकार में अंतर समझिए सहाब। दोनों को एक ही तराजू पर मत तौलिए।

आपका

उमे कुमार

एम.फिल मीडिया अध्ययन

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्नविद्यालय भोपाल मध्य प्रदे

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

स्वार्थी जनहित

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनहित याचिका एक ऐसा अधिकार है जिसके जरिए आम आदमी अपने चुने हुए नुमाइन्दों को चुनौती दे सकता है। लेकिन इसे उत्तर-प्रदेष के लोगों का दुर्भाग्य कहा जाना चाहिए कि इस बात को मानने के लिए न तो राजनेता तैयार है और न ही नौकरषाह। मायावती सरकार साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपना कर याचिकाकर्ता पर अपना प्रभाव जमा ही लेती है।
उत्तर-प्रदेष में मायावती के लोकतंत्र को एकतंत्र में बदल डालने के प्रयासों को अगर किसी ने रोका हुआ है तो वह सिर्फ जनहित याचिकाएं ही हैं। मायावती के सामने विपक्ष की तो एक भी नहीं चलती है। जितनी परेषानियों का सामना मुख्यमंत्री मायावती को विपक्ष से नहीं होती है, उससे कहीं ज्यादा परेषानी जनहित याचिकाओं से होती है। यदि हम पिछले कार्यकाल पर नजर डालें तो स्थिति साफ हो जाती है कि ताज कॉरीडोर मामले में अजय अग्रवाल की जनहित याचिका पर मायावती का अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
वह और दौर था जब जनहित याचिकाएं लोगों के हित के लिए हुआ करती थी। समय के साथ-साथ जनहित याचिकाएं स्वार्थी या नाटकीय होती जा रही हैं। उत्तर-प्रदेष में तो इस प्रकार का व्यापार धड़ल्ले से फल-फूल रहा है। जनहित याचिका को लोगों ने अपने विकास का एक मार्ग बन लिए हैं। मायावती के मौजूदा कार्यकाल में यह व्यवसाय खूब चल रहा है। 2007 में ही ताज कॉरीडोर मामले में राम मोहन गर्ग ने एक जनहित याचिका दायर कर दी थी। इस मामले का अंत बड़े ही नाटकीय तरीके से हुआ। लालच में आकर याचिकाकर्त गर्ग ने याचिका वापस ले ली और सरकार ने उन्हें राज्य मत्स्य विकास निगम का अध्यक्ष बना दिया गया।
उत्तर-प्रदेष में जनहित याचिका का यह केवल इकलौता उदाहरण नहीं है। जब लखनऊ में खुद के बनाए अंबेडकर स्टेडियम को ध्वस्त करने के मामले में ओम प्रकाष यादव ने एक जनहित याचिका दायर की तब उच्च न्यायालय ने स्टेडियम को गिराए जाने पर रोक लगा दी। यह रोक भी ज्यादा दिन तक नहीं लगी रह सकी। याचिकाकर्ता स्वयं उच्चतम न्यायालय जाकर याचिका वापस लेने का अनुरोध किया और उसे मान भी लिया गया। बस, फिर क्या था, एक ही रात में करोड़ों की बनी इस इमारत को धूल चाटने के लिए मजबूर कर दिया गया। आखिर क्या जरुरत थी याचिका वापस लेने की। इससे पहले की यह सवाल लोगों के मन में उठता, जबाब आ चुका था। याचिकाकर्ता ओम प्रकाष यादव को राज्य निर्यात निगम का अध्यक्ष बना दिया गया। इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायधीष एचके सेमा को सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर-प्रदेष मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया।
संवैधानिक रुप से यह व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति जनहित याचिका लगा तो सकता है परन्तु अकेले उसे अपने स्वार्थ के लिए वापस नहीं ले सकता है। आखिर आज जिस व्यक्ति को काई बात बुरी लगती है वही बात कुछ दिनों के बाद उसे अच्छी कैसे लगने लगती है। जनहित याचिकाकर्ता अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जनहित की उपेक्षा कर देता है। याचिका यदि एक बार न्यायालय में आ जाए तो उस पर उचित कार्रवाई जरुर होनी चाहिए। इससे कम से कम अपने स्वार्थ के लिए जो जनहित याचिकाएं दायर की जाती हैं उन पर रोक लग सकेगा। और न्यायालय के काम काज में तेजी आएगी तथा सही आदमी को सही समय पर सही निर्णय मिल सकेगा।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

भारत में बदल रहे हैं विकास के मायने

वर्तमान में भारत में विकास के मायने काफी तेजी से बदल रहे हैं। विकास के सूचकांक यहां रोटी, कपड़ा और मकान न होकर खेलों का आयोजन, कॉल दरों में कामी, जीडीपी का बढ़ना, सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव हो गया है। यदि हम वास्तविक विकास की ओर ध्यान देते हैं तो भारत की स्थिति काफी नाजुक नजर आती है। हमारे देश में विकास के नाम पर एक राष्ट्रीय पाखंड चल रहा है। जहां देश की छवि को महान दिखाने के लिए औपनिवेशिक गुलामी के प्रतीक राष्ट्रमंडल खेलों पर तो अरबों रुपए खर्च किए जा सकते हैं, लेकिन गरीब जनता की भूख नहीं मिटाई जा सकती है।
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के ताजा आंकड़ों से यह बात एक बार और साफ हो गई है कि विकास के रास्ते में छलांग लगाता दिख रहा हिंदुस्तान अपनी बहुसंख्य जनता का पेट भरने में पूरी तरह नाकाम है। रिपोर्ट के मुताबिक विश्व भूख सूचकांक में भारत 68 स्थान पर है। एनडीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में जब गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को प्रति माह बांटे जाने की बात कहीं तो योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा कि यह अगली योजना तक संभव नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि 2012 तक ऐसी कोई भी योजना शुरु नहीं की जा सकती है।
सरकार गरीब जनता को रिझाने के लिए उनके हित में अनेक प्रकार की योजनाएं बनाती है लेकिन उनका सही से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। सरकार की गरीबी रेखा से नीचे के लिए बनाई गई योजना तथा अन्त्योदय योजना का क्या हाल है यह सभी जानते हैं। सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही हैं। सरकारी योजनाओं का यह हाल आज से नहीं है। राजीव गांधी ने भी स्वीकार किया था कि केंद्र से दिए गए धन का केवल 10 फीसद ही उस काम में लगता है जिसके लिए वह धन दिया जाता है।
देश में अगर गरीबी और भुखमरी की बात की जाए तो अर्जुन सेन गुप्ता चार साल पहले आई रिपोर्ट को देक्षा जा सकता है। इस रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि देश की 77 फीसदी आबादी हर रोज 20 रुपए से भी कम कमाती है। देश के अलग-अलग हिस्सों से लगातार गरीब किसानों की आत्महत्या और भुखमरी की खबरें आती रहती हैं। ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जो विकास की गुलाबी तस्वीर को झूठा साबित करती हैं। चिंता की बात यह है कि ऐसे में देश के विकास का वैकल्पिक मॉडल कैसे खड़ा हो, इस विमर्श की लगातार अनदेखी की जा रही है।
देश के महान नेतागण के लिए विकास का परिभाषा ही बदल गई है। विकास उनके लिए न तो देश का विकास रह गया है और न ही समाज का। विकास से उनका आशय महज अपने विकास से रह गया है। ऐसे में सोचनीय बात यह है कि सरकार विकास की जो तस्वीर जनता के सामने पेश करती है उसका आम जनता से क्या नाता है। यदि देश की सरकार को जनता की सही मायने में चिंता है तो उच्च्तम न्यायालय को बारबार यह क्यों कहना पड़ रहा है कि सड़ रहे आनाज को में गरीबों मुफ्त बांट रहे हैं। पूंजीवादियों के ब्याज को आसानी से माफ कर दिया जाता है लेकिन आम जनता के ब्याज को माफ करने के लिए अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। देश के इस प्रकार के विकास का आम जनता के लिए कोई औचित्य नहीं लगता है।

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

कांग्रेस आरएसएस की तुलना सिमी से क्यों कर रही है


अयोध्या-बाबरी मस्जिद मामले का फैसला आए अभी 20 दिन भी नहीं हुए कि कांग्रेस ने आरएसएस की तुलना सिमी से करना शुरु दिया है। इसे देष का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इतने नाजुक मामले पर भी हमारे राजनेता अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने से बाज नहीं आ रहें हैं। आज का भारत 1992 से 2010 तक अर्थात् 18 वर्षों में एक शताब्दी की दूरी तय लिया है मगर हमारे नेता आज भी धर्म, जाति, पंथ आदि का ही सहारा लेकर चुनाव लड़ना और जीतना चाहते हैं।
30 सितंबर का आए फैसले से पहले यह कयास लगाया जा रहा था कि देष एक बार फिर 1992 की स्थिति में चला जाएगा। अर्थात् धार्मिक हिंसा हो सकती है। इसके मद्देनजर सभी स्थलों पर सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता कर दी गई थी साथ ही लोगों ने भी समझदारी का परिचय दिया और पूरे देष में कहीं भी एक भी अप्रिय घटना नहीं घटी। हमारे देष के कुछ नेताओं को यह बात रास नहीं आ रही है तो अब वे इस पर बयान बाजी करना शुरु कर दिए हैं। आरएसएस जो आजादी के पहले से ही अस्तित्व में है उसकी तुलना किसी ऐसे गुट से की जाए जिसकी छवि आतंकवाद रही हो तथा जिस पर प्रतिबंध लगा हो, देष के लोगों की भावनाओं को भड़काने जैसा है। एक-एक कर कांग्रेस के नेता विभाजन की राजनीति शुरु कर दिए हैं। कभी केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम आतंक का रंग निर्धारित करने लगते हैं तो उन्हें उसका रंग भगवा ही दिखाई देता है। भगवा हिंदुआंे का एक पोषाक होता है। आतंक का रंग भगवा बता कर देष के हिंदुओं को भड़काने का जो काम गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने किया उसे कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने आगे बढ़ाया और आरएसएस की तुलना सिमी जैसे प्रतिबंधित संगठन से कर डाली। राहुल गांधी को बहुत पहले एक बार किसी ने सलाह दी थी कि अगर भारतीय राजनीति में रहना है तो पहले अपने पिता के सभी विडियो को देख लें लेकिन शायद राहुल को इतना समय नहीं है। वह कांग्रेस के एक उभरते हुए चेहरे हैं और उनकी छवि बहुत ही साफ है तो उनको इस प्रकार का कोई भी बयान नहीं देना चाहिए जिससे वरुण गांधी और राहुल गांधी में कोई फर्क न रह जाए। वरुण गांधी को आज सभी जानते हैं लेकिन उनकी छवि सकारात्मक कम नकारात्मक ज्यादा है। लेकिन राहुल गांधी की छवि नकारात्मक तो नहीं ही हैं। इधर केंद्र से यह ज्वर निकलकर अब राज्यों तक भी पहुंच रहा है। दिग्विजय सिंह ने भी लगे हाथ तुलना कर डाली।
जिस प्रकार से घटना क्रम परिवर्तित हो रहा है उससे यही लगता है कि इस बार किसी भी दल को अयोध्या-बाबरी विवाद ने कुछ नहीं दिया तो सभी दल अपने अपने अनुसार बयानबाजी कर के ही कुछ प्राप्त करना चाहते हैं। लेकिन अब देष की जनता इतनी बुद्धु नहीं है।


शुक्रवार, 4 जून 2010

पर्दा, रोजगार और मुस्लिम महिलाएं

दारुल उलूम समय-समय पर अपने अनुसार फतवे जारी करता रहता है. देखा जाये तो पूरी दुनिया में इस्लाम के इस केंद्र की पहचान उसके फतवे को लेकर ही ज्यादा बनी है. जिसका वर्त्तमान परिपेक्ष से कोई लेना-देना नहीं है. दारुल उलूम कभी पर्दा पर, कभी शिक्षा पर तो कभी काम न करने पर फ़तवा जारी करता रहा है. महिलाओं को राजनीति में ३३ प्रतिशत आरछन देने की बात बहुत समय से चल रही है. लेकिन वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की ४०३ सीटों वाली विधानसभा में केवल २ मुस्लिम महिलाएं विधायक हैं. जम्मू कश्मीर जैसे मुस्लिम बहुल राज्य की ८७ सदस्यीय विधानसभा में भी महज दो ही मुस्लिम महिलाएं हैं.

मुस्लिम महिलायों को परदे के लिए न केवल भारत में बल्कि विश्व के कई हिस्सों में आवाज उठती रही है. क्या इज्जत के लिए पर्दा ही सबसे जरुरी है. परदे के द्वारा मुस्लिम समाज क्या छुपाना चाहता है? आज तक तो लोग अपनी गलतियों पर पर्दा डालते रहे है, अच्छाइयों को तो सब के सामने पेश किया जाता है. तो क्या इस आधार पर यह कहा जाय की मुस्लिम महिलाएं अच्छाई की नहीं बुराई का प्रतिक है. सुर-ए-नुरमा में मुस्लिम महिलाओं के लिए परदे की बात कही गयी है. लेकिन यह पर्दा केवल शरीर को ढकने के लिए नहीं है.

वास्तविक पर्दा तो कपड़ों में नहीं, नजरों में होता है. कपड़ों के पर्दों को तो कभी भी हटाया जा सकता है लेकिन नजरों के परदे को हटा पाना संभव नहीं लगता है. इस्लाम में केवल बेपर्दा होने की मनाही की गई है, लेकिन अपना पेट भरने के लिया मेहनत-मजदूरी करने की मनाही नहीं की गई है. जोधपुर शहर कांग्रेस अध्यक्ष सईद अंसारी का मानना है की फतवेबाजी से कौम का भला नहीं हो सकता है. यह गुजरे ज़माने की चीज है. इससे कौम नर्क के गर्त की ओर ही जायेगा. उन्होंने कहा कि यदि महिलाओं को यह फ़तवा है कि वे दूसरे मजहब के पुरुषों के साथ काम नहीं कर सकती हैं तो मुस्लिम पुरुषों के लिए भी फ़तवा जारी होना चाहिए कि वो भी अन्य मजहब की महिलाओं के साथ काम न करें. मुस्लिम समाज की पुरुष वादी मानसिकता ही है जो महिलाओं को तो अन्य मजहब वालों के साथ काम करने से रोक लगाती है जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं करता है.

फतवे के रूप में पहचान बन चुकी दारुल उलूम इसलिए ज्यादा नाटक करती है कि मुस्लिम समाज आधुनिकता से दूर तथा शिक्षा के स्तर में बहुत नीचे है. मुस्लिमों में चार प्रतिशत लोगों ने भी स्नातक तक पढाई नहीं कि है. नेशनल सैम्पल सर्वे संगठन २००६ के अनुसार ३.६ प्रतिशत लोग ही मुस्लिम समुदाय के कुल कालेज ग्रेजुअट हैं. ३.१ प्रतिशत शहरों में तथा १.२ प्रतिशत गावों में ग्रेजुएट हैं. गांव कि जनसंख्या का ६०.०२ आज भी अशिक्षित हैं. शिक्षा का स्तर इतना कम होने के कारण धर्म के टेकेदार लोगों को आसानी से बरगलालेते हैं. अच्चा होता की

अन्धकार से क्यों घबराएं

अच्छा हो एक दीप जलाएं.

पहचान नहीं पाया

आवाज सुनी सुनाई लगती थी

दिल के करीब से आती थी

पर आज अपने यार की

आवाज को मै पहचान न पाया

भूल गया उसे या याद नहीं आया

आंसू बह के आज गालों पर सुख गए

उसकी आवाज में वही अपनापन था

पर आज उसकी आवाज को पहचान न पाया

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

केवल कागजों पर महिलाएं हुई ताकतवर

महिलाओं को सशक्त करने के लिए तथा उन्हें आरक्षण देने के लिए हमारी संसद कितनी तत्पर है इसका अंदाजा महज इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनसे जुडी कई परियोजनाएं वर्षों से केवल गठन प्रक्रिया से ही गुजर रही हैं। इस हकिकल का खुलासा तब हुआ जब मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जुडी स्थायी संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वर्ष २००६-०७ में बलात्कार पीडिता के राहत एवं पुनर्वास के लिए महज एक करोड़ रुपये की राशि आवंटित की गई जो वर्ष २००८-०९ में बढकर ४० करोड़ हो गयी। इन मामलों से जुडी योजना कि प्रक्रिया बहुत लम्बी है और ऐसे मामलों से सम्बंधित स्वयं सिद्धा योजना का दूसरा चरण अभी तक शुरू नहीं क्या जा सका है। बलात्कार पीडिता के राहत एवं पुनर्वास के लिए २००८-०९ के बाद आवंटित राशि का उपयोग नहीं हुआ है क्योंकि परियोजनाओं को मंजूरी नहीं दी गयी है।

यह हाल केवल बलात्कार पीडिता राहत एवं पुनर्वास परियोजना का ही नहीं है। समिति ने कहा है कि महिलाओं से जुडी अन्य परियोजनों को भी नियमित रूप से धन आवंटित हो रहे है लेकिन उन्हें अभी तक मंजूरी नहीं मिली है। इनमें राजीव गाँधी किशोरवय बालिका सशक्तिकरण परियोजना, बलात्कार पीडिता राहत एवं पुनर्वास परियोजना, स्वयं सिद्धा परियोजना चरण-२, इंदिरा गाँधी मातृत्व सहयोग परियोजना और राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण मिशन प्रमुख रूप से शामिल हैं।

राजीव गाँधी किशोरवय बालिका सशक्तिकरण परियोजन का बजटीय अनुमान १११ करोड़ रुपये निर्धारित किया ग्यालेकिन अभी तक मंजूरी के इंतजार में मंत्रिमंडल कि अलमारी में पड़ी है। बलात्कार पीडिता राहत एवं पुनर्वास परियोजना के लिए ५९ करोड़ और स्वयं सिद्धा परियोजना चरण-२ के लिए २० करोड़ रुपये का बजटीय अनुमान है लेकिन दोनों परियोजनाएं अभी तक गठन कि प्रक्रिया से ही गुजर रही हैं।

ऊचें-ऊचें दावे करने वाली हमारी संसद कि पोल तभी खुलती है संसद में कोई रपट प्रस्तुत कि जाती है। महिला आरक्षण को लेकर या उनकी शक्ति में इजाफा करने के लिए सभी दलों के नेता एक साथ एक दुसरें का हाथ पकड़कर फोटो खिचवा लेते अहिं लेकिन लम्बे अरसे तक उन परियोजनाओं को अमली जामा नहीं पहनते हैं। मीडिया में बने रहने एवं वोट बैंक के लिए हर साल बहस होती अहि है सब हो जाते हैं लेकिन अंतिम मंजूरी नहीं-दी जाती है इनके कामों। लिए सरकारी टूर
मुद्दों पर har sal bahas hoti hai। sb सहमत भी हो जाते हैं। लेकिन अंतिम मंजूरी नहीं दी जाती है। इन कामों के लिए sarkari tour पर एक समिति का गठन क्र दिया जाता है। यह समिति समय-समय पर अपनी चिंता व्यक्त करती रहती है। चिंता व्यक्त करने के आलावा यह समिति और क्र ही क्या सकती है। महिलाओं कि स्थिति को लेकर गठित समिति ने पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए आवंटित धन का पूरी तरह उपयोग नहीं होने पर सख्त नाराजगी जताई है। समिति ने अपनी रपट में कहा है कि भौगोलिक और जलवायु सम्बंधित कठिनाइयों का सामना करने वाले इस क्षेत्र के लोगों की भलाई के लिए धन का उचित उपयोग किया जाना जरुरी है। सरकार लोगों को कब तक धोखा देती रहेगी और लोग कब तक धोखा खाते रहेंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लालफीताशाही के चंगुल में फंसी परियोजनेयं कब मंजूर होंगी और वास्तविक रूप से महिलाएं कब सशक्त होंगी ईसका अभी इंतजार करना होगा।