शुक्रवार, 4 जून 2010

पर्दा, रोजगार और मुस्लिम महिलाएं

दारुल उलूम समय-समय पर अपने अनुसार फतवे जारी करता रहता है. देखा जाये तो पूरी दुनिया में इस्लाम के इस केंद्र की पहचान उसके फतवे को लेकर ही ज्यादा बनी है. जिसका वर्त्तमान परिपेक्ष से कोई लेना-देना नहीं है. दारुल उलूम कभी पर्दा पर, कभी शिक्षा पर तो कभी काम न करने पर फ़तवा जारी करता रहा है. महिलाओं को राजनीति में ३३ प्रतिशत आरछन देने की बात बहुत समय से चल रही है. लेकिन वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की ४०३ सीटों वाली विधानसभा में केवल २ मुस्लिम महिलाएं विधायक हैं. जम्मू कश्मीर जैसे मुस्लिम बहुल राज्य की ८७ सदस्यीय विधानसभा में भी महज दो ही मुस्लिम महिलाएं हैं.

मुस्लिम महिलायों को परदे के लिए न केवल भारत में बल्कि विश्व के कई हिस्सों में आवाज उठती रही है. क्या इज्जत के लिए पर्दा ही सबसे जरुरी है. परदे के द्वारा मुस्लिम समाज क्या छुपाना चाहता है? आज तक तो लोग अपनी गलतियों पर पर्दा डालते रहे है, अच्छाइयों को तो सब के सामने पेश किया जाता है. तो क्या इस आधार पर यह कहा जाय की मुस्लिम महिलाएं अच्छाई की नहीं बुराई का प्रतिक है. सुर-ए-नुरमा में मुस्लिम महिलाओं के लिए परदे की बात कही गयी है. लेकिन यह पर्दा केवल शरीर को ढकने के लिए नहीं है.

वास्तविक पर्दा तो कपड़ों में नहीं, नजरों में होता है. कपड़ों के पर्दों को तो कभी भी हटाया जा सकता है लेकिन नजरों के परदे को हटा पाना संभव नहीं लगता है. इस्लाम में केवल बेपर्दा होने की मनाही की गई है, लेकिन अपना पेट भरने के लिया मेहनत-मजदूरी करने की मनाही नहीं की गई है. जोधपुर शहर कांग्रेस अध्यक्ष सईद अंसारी का मानना है की फतवेबाजी से कौम का भला नहीं हो सकता है. यह गुजरे ज़माने की चीज है. इससे कौम नर्क के गर्त की ओर ही जायेगा. उन्होंने कहा कि यदि महिलाओं को यह फ़तवा है कि वे दूसरे मजहब के पुरुषों के साथ काम नहीं कर सकती हैं तो मुस्लिम पुरुषों के लिए भी फ़तवा जारी होना चाहिए कि वो भी अन्य मजहब की महिलाओं के साथ काम न करें. मुस्लिम समाज की पुरुष वादी मानसिकता ही है जो महिलाओं को तो अन्य मजहब वालों के साथ काम करने से रोक लगाती है जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं करता है.

फतवे के रूप में पहचान बन चुकी दारुल उलूम इसलिए ज्यादा नाटक करती है कि मुस्लिम समाज आधुनिकता से दूर तथा शिक्षा के स्तर में बहुत नीचे है. मुस्लिमों में चार प्रतिशत लोगों ने भी स्नातक तक पढाई नहीं कि है. नेशनल सैम्पल सर्वे संगठन २००६ के अनुसार ३.६ प्रतिशत लोग ही मुस्लिम समुदाय के कुल कालेज ग्रेजुअट हैं. ३.१ प्रतिशत शहरों में तथा १.२ प्रतिशत गावों में ग्रेजुएट हैं. गांव कि जनसंख्या का ६०.०२ आज भी अशिक्षित हैं. शिक्षा का स्तर इतना कम होने के कारण धर्म के टेकेदार लोगों को आसानी से बरगलालेते हैं. अच्चा होता की

अन्धकार से क्यों घबराएं

अच्छा हो एक दीप जलाएं.

पहचान नहीं पाया

आवाज सुनी सुनाई लगती थी

दिल के करीब से आती थी

पर आज अपने यार की

आवाज को मै पहचान न पाया

भूल गया उसे या याद नहीं आया

आंसू बह के आज गालों पर सुख गए

उसकी आवाज में वही अपनापन था

पर आज उसकी आवाज को पहचान न पाया