शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

फेसबुक से कुछ चुराया हुआ


अंकित कुमार

एक पैग में बिक जातें हैं, जाने कितने खबरनबीस,

सच को कौन कफ़न पहनता, ये अखबार न होता तो.

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प्रशांत कुमार


जब विज्ञापन देने वाले ही बादशाह हों तो कामगार लोग सिर्फ़ शांत उपभोक्ता हो सकते हैं समाचार का एजेंडा तय करने वाले सक्रिय लोग नहीं.

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संजय कुमार श्रीवास्तव

हमेशा समाज का बौद्धिक सोच वाले बुद्धिजीवी वर्ग ही दुविधाओं का समाधान करता था..परन्तु आज का तथाकथित बुद्धिजीवी कोई दांयीं ओर चलता है तो कोई बाँयीं ओर, और बाकी बचे हुए किसी धर्म या जाति विशेष से खुद

को जोड़ लेते हैं और फ़िर हमेशा उसी वर्ग के ही हितों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जबकि पूर्ण समाज की उन्हें कोई फिक्र नहीं होती..लोग ऐसे ढोंगी और पाखंडी समाज सुधारकों को दरकिनार कर दें तो आज की आधी समस्या स्वतः मिट हो जायेगी..

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आशुतोष शुक्ल


स्वामी अग्निवेश टीम अन्ना से अलग हो गए हैं.... कह रहें हैं कि अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर अलग हो रहा हूं...... कहीं इस अंतरआत्मा का नाम कांग्रेस तो नहीं...???

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सनद गुप्ता

ये सरकार सटक गई है....



अब आप ही बताएं क्‍या होगा इस देश का...मुझे समझ में नहीं आता कि आम आदमी के हक में फैसला लेने में सरकार को दिक्‍कत क्‍या है...आज सरकार ने साफ कहा कि अन्‍ना अनशन करते हैं तो करते रहें...किरण बेदी ने कहा कि कल सरकार हमारी बातें सुन रही थी लेकिन आज की मीटिंग में सरकार हमें डांट रही थी...अन्‍ना चाहते हैं कि हर विभाग सिटिजन चार्टर बनाए...सरकारी दफ्तरों में किसी काम को करने के दिन तय हों...यानि अगर आप जाति प्रमाण पत्र बनवाने जाते हैं तो इसमें कितने दिन का वक्‍त लगेगा...अगर तय मियाद के अंदर काम नहीं होता है तो जिम्‍मेदार अफ़सर की तन्‍ख़्वाह कटे...अब ये समझ नहीं आता कि आखिर आम आदमी जो रोज़-रोज़ अफ़सरशाही की चक्‍की में पिसता है उसे मुक्‍त करने में सरकार को क्‍या दिक्‍कत है...बड़ी शर्मनाक बात है कि सरकार आम आदमी की दुश्‍मन की तरह बरताव कर रही है..........

सोमवार, 1 अगस्त 2011

बिन नैना जग सून


६४ साल से प्रताबित लोकपाल बिल के लिए अगर यह कहा जाये तो गलत बात है। देर से ही सही हमारी सरकार ने लोकपाल बिल तैयार किया है। यह अलग बात है कि इस बिल से कुछ होने जाने वाला नहीं है। यह तो केवल देखने वाला बिल है काम करने वाला नहीं। वैसे भी हमारे देश में दर्शक ज्यादा है कार्यकर्ता बहुत कम है। यह बिल भी दर्शक ही है। अर्थात इसे बहुमत मिल सकता है। लोकतंत्र में और क्या चाहिए केवल बहुमत उसके बाद आप ५ साल तक जो चाहे कर सकते हैं।
हमारे यहाँ ज्यादा तक बिलों को (जो सरकार या नौकरशाह पर प्रतिबन्ध लगाते हैं) मात्र आंखे दी जाती हैं। हाथ या पैर नहीं। अब मीडिया को ही लीजिये। प्रेस आयोग बनाया गया। उसे केवल भौकने की ताकत दी गयी काटने की नहीं। बेचारा आज भी मौके-बेमौके भौक लेता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। मीडिया गर्त में जा रही है तो जाये क्या किया जाये। सरकार ने प्रेस आयोग तो बना दिया है न। मीडिया पर अंकुश लगाये यह आयोग नहीं कहाँ हमारी मीडिया तो हाथी है हाथी। हाथी चली जाती है कुत्ते भौकते रहते हैं। वैसे ही प्रेस आयोग बेचार अयोग्य की तरह भौकता रहता है और मीडिया आपना सही गलत सब काम करता रहता है। मीडिया रूपी हाथी पर प्रेस आयोग रूपी कुत्ते के भौकने का कोई फर्क न तो पड़ा है और न उसे बिना कोई ताकत दिए पड़ने वाला है।
लोकपाल में भी यही होने जा रहा है। हमारे देश के नेता या अधिकारी या कोई भी जो भ्रष्टाचार करना चाहे करता रहेगा और लोकपाल से कहेगा भाई साहब हम तो आपको कुछ नहीं देंगे अरे हम तो आपको मेरा मतलब तुमको कुछ नहीं समझते हैं। तुम क्या कर लोगे मेरा। भौकोंगे भौको। हमें जो करना है हम कर लेंगे।
क्या हम ६४ साल से इसी तरह के लोकपाल का इंतजार कर रहे हैं। क्या सिविल सोसाइटी ने इसी तरह के बिल के लिए प्रयास कर रही है। क्या काम करने के लिए केवल आंखे चाहिए। ऐसे कई सवाल हमारे दिमाग में उठा सकते हैं। हमें कैसा लोकपाल चाहिए। निश्चय ही ऐसा नहीं जैसा प्रस्ताबित है।

शुक्रवार, 10 जून 2011

घर से बाहर का विद्यार्थी जीवन

मुझे ३ साल की पढाई के लिए भोपाल आना पड़ा तो यह पता चला कि घर से बाहर का विद्यार्थी जीवन क्या होता है. वैसे मैं यहाँ केवल २ साल के लिए आया था पी.जी. करने लेकिन एम.फिल. के लिए एक साल और रुकना पड़ा. इन तीन सालों पर अगर एक किताब भी लिखी जाये तो शायद कम होगी. उपन्यास लिखने की जरुरत पड़ेगी. फिर भी मै अपने कुछ अनुभावों को इस लेख के माध्यम से आप सब के साथ साँझा करने की कोशिश करता हूँ.
घर के बहुत सारे नियम कानून होते हैं. कब सोना है, कब उठना है, कब खाना है, कब क्या करना है, कब क्या करना है. लेकिन भोपाल आकर मुझे इन सब बंधनों से छुटकारा मिल गया. यहाँ सारे नियम हमारे अपने बनाये होते हैं. मुझे कब क्या करना है. कहाँ जाना है, क्या नहीं करना है, क्या करना है.
रात में दोस्तों के साथ आइस क्रीम खाने जाना और रात को देर से वापस आने के अपने मजे होते हैं. इस बात की कोई चिंता नहीं होती है देर हो गयी तो घर पर डाट पड़ेगी. घर से फोन भी आता है तो दिन में ही आ जाता है जिससे फोन की भी कोई चिंता नहीं होती. घर से बाहर की पढाई के अपने मजे हैं. सच में याद आएंगे ये दिन.

गुरुवार, 9 जून 2011

विद्यार्थी जीवन – सबसे बड़ा अमीर और सबसे बड़ा गरीब

विद्यार्थी जीवन के अंपने फायदे और नुकसान होते हैं. मेरा विद्यार्थी जीवन लगभग समाप्त होने वाला है. और जब मै इसका मूल्यांकन करने की कोशिश की तो यही पाया की इसके फायदे ज्यादा और नुकसान कम रहे हैं. इस जिंदगी में न तो मै कभी गरीब हुआ और न ही कभी अमीर. हमेशा बराबर का मामला रहा है. १-५ तारीख तक पिता जी का भेजा हुआ पैसा आ जाता था और २० दिन मजे से बीत जाते थे उसके बाद शुरू होता था दोस्तों मांगने का सिलसिला. लेकिन सब की तो वही जिंदगी है और सब पप्पा छात्रवृत्ति पर ही तो निर्भर हैं. तो वह लोग भी थोडा-थोडा देते थे और उसके पहले ही एक सवाल पूछ लेते थे “कब दोगे” जिसका जबाब भी एक ही होता था “बहुत जल्दी” और वह बहुत जल्दी फिर वही १-५ तारीख के बीच में ही आता था.
पैसा आया और शुरू हुआ पार्टियों का दौर. २-४ दिन किसी अच्छे से होटल में खाना खाना. दोस्तों के साथ थोड़ी मस्ती. इस तरह से पता ही नहीं चलता था कि कब २० तारीख आ गयी. २० के बाद तो दिन काटता ही नहीं है. एक एक दिन एक एक साल के बराबर लगने लगता है क्योकि पैसा खत्म हो गया. दोस्तों की मेहरबानी शुरू हो गयी.
खैर विद्यार्थी जीवन के अपने ये मजे हैं. इन्हें किसी और जिंदगी में जीने के बारे में सोचा भी नहीं आ सकता है. क्योंकि उसके बाद तो शुरू होता है जिम्मेदारियो का दौर. जिसमे सभी की कुछ न कुछ अपेक्षा होती है. मम्मी-पापा चाहते हैं की बेटा अब काम करना शुरू करे तो क्या गलत चाहते हैं. लेकिन अभी बेटे पर मस्ती ही चडी हुई है तो वह क्या करे. आखिर स्टूडेंट लाइफ को इतनी जल्दी तो नहीं भुलाया जा सकता है.

सोमवार, 2 मई 2011

वह किसी और की होने जा रही है

जो कभी मेरी हुआ करती थी
या
जिसे मै कभी अपनी माना करता था
अब किसी और की होने जा रही है
कितने नाज़ो से प्यार जगाया था
आज
वह प्यार किसी और का होने जा रहा है
वह किसी और की होने जा रही है
न शिकवा कर सकता हूँ
न इसकी शिकायत कर सकता हूँ
प्यार की तौहीन होगी
और मै तौहीन नहीं कर सकता
अब तो
एक ही अरमान है इस दिल का की
वह कहीं भी रहे
बस खुश रहे
और बस
खुश रहे

रविवार, 1 मई 2011

शुरुआत भारत ही करता है

काम अच्चा हो चाहे बुरा उनका उदय भारत में ही होता है. भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया है. शून्य से लेकर चन्द्रमा तक जाने का रास्ता भारत ने ही बनाया है. सभ्यता की शुरुआत भी सबसे पहले यही हुई थी. और यही वह भारत है जो विश्व गुरु रहा है. आज मै भारत के बारे में कोई भी बुरी बात नहीं कहने जा रहा हूँ. अच्छी बातें दिमाग को शक्ति देती है. इसलिए आज से केवल अच्छी बातें ही होंगी. चलो फिर शुरू किया जाये भारत की कुछ वर्तमान समय की उपलब्धियों के बारे में
सबसे पहले हम जूता या चप्पल फेंकने की बात लेते है. बुश पर मुंतजर अल जैदी ने जूता क्या फेंका उन्हें इसका जन्दाता मन लिया गया. जो इतिहास को गलत साबित करता है. इतिहस लिखने में अंग्रेजों ने हमेशा ही भारतियों को नीच दिखने को कोशिश की है. तो अब क्यों नहीं करेंगे. अगर ऐसा न होता तो जूता फेंकने के जनक हमारे कल्मानी साहब होते. लिकिन यह तो उनके साथ धोखा है. आज यह नए ट्रेंड में है और उनका कोई नाम भी नहीं ले रहा है.
अब बिडम्बना देखिये. बेचारे कल्मानी साहब ने इस परम्परा को इजाद तो किया लेकिन खुद ही जूता खा गए. ये तो शंकर जी के द्वारा भष्मासुर को दिया गया वरदान लग रहा है. बेचारे कितने दिन सेना में काम किये. देश के लिए कितनी लड़ाई लड़ी, देश को गर्त में ले जाने के लिए कितना भ्रष्टाचार किये और आज जूता भी खा रहे हैं.
तो मेरे प्यारे भाइयों, अब कभी भी यह मत कहना की जूता फेंकने की परम्परा की शुरुआत सबसे पहले मुंतजर अल जैदी ने की थी. इसे हमारे महानता की हद पर चुके कभी नेता रहे आज भी हैं कल्मानी ने की है. न विश्वास हो तो २७ अप्रैल का नव दुनिया भोपाल का संस्करण देख सकते हैं.

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

भावी प्रिये के नाम पत्र

बहुत दिन हो गये आपका कोई ख़त नहीं आया। अब तो तुम केवल मुझे मिस कॉल कर देती हो। कॉल मै कर हे लेता हूँ। लेकिन आपके प्यार भरे पत्र को मै हमेशा ही पड़ना चाहता हूँ। पहले तो तुम मुझे पत्र लिखा करती थी और मै उसे लेकर रात में पढते-पढते सो जाया करता था। कितनी बार तो मेरी माता जी उस पत्र को हटा कर मेरे तकिये के नीचे रख दिया करती थी। माँ मुझसे कभी नहीं पूछती थी कि ये पत्र किसका है क्योंकि घर में मै ही एक ऐसा इन्सान था जो पड़ता था। फोन पर तुमसे बात करने अच्छा तो लगता है लेकिन उसमे वह मजा नहीं आता है जो पत्र को पड़ने में आया करता था।
प्रिये
अब तो तुम कम से कम महीने में एक पत्र तो लिख दिया करो। मै यह भी नहीं कह सकता हूँ क्योकि अब मै खुद भी तो तुम्हे ख़त नहीं लिखता हूँ। केवल फोन पर ही बात हो पाती है।

सरोकरों से कटती शिक्षा भारतीय

शिक्षा में जो परिवर्तन वर्तमान समय में दिखाई दे रहें हैं वे किसी को भी सुखमय प्रतीत नहीं हो सकते हैं। शिक्षा व्यवस्था इस कदर बर्बाद होती जा रही है कि लोग अब केवल शिक्षित हो रहें हैं, संस्कारी नहीं। संस्कारों का अभाव भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए बहुत ही बड़ा संकट बन सकता है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए देश में केवल बाबू लोग तैयार हो रहे हैं। कच्चे माल की तरह वे कालेजों या विश्वविद्यालयों में आते हैं और तीन साल में उन्हें एक बाबू बनाकर भेज दिया जाता है। कहने के नाम पर तो वे शिक्षित हो जाते हैं लेकिन वास्तव में उनकी वह शिक्षा न तो देश के किसी काम की होती है और न ही समाज का उससे कुछ भला हो सकता है।

आज से कुछ समय पहले जब मैं उत्तर प्रदेश शिक्षा मंडल इलाहाबाद से संबंधित एक स्कूल में तीसरी कक्षा का छात्र था तब से पांचवी तक हमें नैतिक शिक्षा के रुप में एक विषय पढ़ने को दिया जाता था। हमारी उस शिक्षा का एकमात्र उद्देष्य हमें नैतिकता की शिक्षा देना था। आश्चर्य तो तब हुआ जब मैं इस बार अपने गांव गया और यह पता चला कि अब बच्चों को नैतिकता की कोई आवश्याकता नहीं रह गई है। नैतिक शिक्षा को विषय से हटा दिया गया है। आज बच्चों को यह भी नहीं पता है कि दूध गाय देती है या बैल। इसे हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए बिडंबना ही कहा जाएगा कि वह हमारे देश के बच्चों को यह भी नहीं सिखा पा रही है।


शिक्षा का सरोकारों से अगर कोई संबंध नहीं होता है यह बात तो भारतीय जनगणना 2011 से भी निकल कर सामने आ गई है। अपने को शिक्षित मानने वाले और निरंतर संचार माध्यमों से संबंध रखने वाले लोगों में कन्या भ्रूण हत्या के ज्यादा मामले सामने आए हैं। जबकि देश के आदिवासी और पिछड़े इलाकों में लड़कियों की संख्या में वृद्धि हुई है। तो क्या इससे इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि शिक्षा हमें सरोकार नहीं दे रही है। अगर यह बात सिद्ध मानी जाए तो फिर सवाल यह उठता है कि हमें ऐसी शिक्षा की क्या आवश्याकता है। अब समय आ गया है जब शिक्षा को स्वचेतना से जोड़ा जाए।


लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति से देश का कोई भला नहीं हो सकता है। मैकाले के उद्देश्य को अगर हम ध्यान से देखे तो एक बात साफ नजर आता है कि शिक्षा को इस तरह बनाओ की वह ब्रिटिश कंपनियों के लिए क्लर्क पैदा हो सकें। आज भी उसी व्यवस्था को अपनाया गया है। तो क्या देश आज भी देश के लिए क्लर्क ही तैयार कर रहा है। शिक्षा का मतलब केवल डिग्री ही नहीं होती है। डिग्री तो आज देश में बिक रही है। अगर आप के पैसा है तो कोई भी डिग्री खरीद सकते हैं।


भ्रष्टाचार की जड़ें केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं हैं वह शिक्षा की जड़ों में मठ्ठा डालने का भी काम रही है। शिक्षा के क्षेत्र में जो क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं वे इसे सही दिशा देने में सफल नहीं हो रहे हैं। शिक्षा का निजीकरण शिक्षा को और भी आघात पहुंचा रहा है। निजीकरण के फलस्वरुप शिक्षा एक व्यवसाय का रुप धारण कर चुकी है। पैसा ऐंठने के चक्कर में जुलाई/अगस्त के महीने में कुकुरमुत्ते की तरह स्कूल उग आते हैं और कुछ समय बाद गायब हो जाते हैं। अभी हाल ही ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ में उजागर हुआ है। वहां पर एक स्कूल ने अपने 14 साखाएं खोली और एक साल के भीतर ही सभी को बंद करके लोगों का सारा धन लेकर चंपत हो गई। सवाल यह उठता है कि क्या देश की सरकार को इस बात से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है कि देश या प्रदेश में कैसे विद्यालय खुल रहे हैं। ऐसे में देश को किस के भरोसे छोड़ा जा सकता है। खैर अभी तक इस दिशा में कोई पहल की गई हो ऐसा भी नहीं लगता है।

कुछ बातें अभी है बाकी

बहुत बार मै यह सोचता हूँ कि भोपाल में ही क्यों न कुछ समय के लिए रुक जाया जाये। फिर सोचता हूँ कि लोग कहते है कि यहाँ कैसे रहा जाये। न खाने को समय से भोजन मिलता है न पीने को पानी। फिर भी यह अच्छा क्यों लगता है पता नहीं।
इसी उधेड़बुन में काफी समय बीत जाता है मेरा प्रतिदिन। कभी कभी यह भी सोचता हूँ कि भोपाल ने कुछ भी चाहे न दिया हो लेकिन कुछ अच्छे दोस्त तो दिया हे है। जिनके साथ कुछ समय तो बिताया हे जा सकता है। यहाँ आने के बाद सम्बन्ध इतने तो बन हे गये हैं कि भारत के किसी भी शहर में २-४ दिन रुकने लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

आया मौसम गरमी का

आया मौसम गरमी का
आइसक्रीम और तरबूजे का
सब कहते है गर्मी बहुत है
लेकिन मजा तो इसी में है
कहीं भी रात बिता लो भाई
न बिस्तर कि चिंता न चादर की जरुरत
कहीं भी सो जाओ
खाने की भी चिंता न करो
शादी का मौसम है ये
एक कपडा अच्छा सा रख लो भाई
कहीं भी पहुँच कर पार्टी मना लो
कितना प्यारा मौसम है
इसे बुरा न कहो भाई

यहां सब नंबर एक हैं

किसी भी प्रतियोगिता में पहला स्थान तो सभी प्राप्त करना चाहते हैं लेकिन क्या अपने कभी इस बात पर सोचा है कि सभी पहले स्थान पर हो भी सकते हैं। वह भी एक ही समय में। नहीं न। आइए हम आपको बताते हैं एक ऐसी दुनिया की कहानी जहां अधिकतर लोग पहले स्थान पर हैं। इस दुनिया का नाम है मीडिया की दुनिया। मेरा मतलब खबरों की दुनिया। यहां कोई भी दूसरे स्थान पर रहना पसंद नहीं करता है। हमें चाहिए तो पहला स्थान ही चाहिए। ये कितने भी दो नंबर के धंधे करें लेकिन रहेंगे पहले ही स्थान पर।


मध्यप्रदेश साहित्य, संगीत और षिक्षा का केन्द्र माना जाता है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की तो बात ही निराली है। कम से कम 15 हिंदी दैनिक यहां से निकलते हैं जिनकी शाखाएं पूरे हिन्दुस्तान में नहीं हैं तो भी दिल्ली में तो हैं ही। इन 15 में सभी पहले स्थान पर ही बरकरार हैं। इसको समझने के लिए खेल का उदाहरण लिया जा सकता है। खेल एक ऐसा शब्द है जो हॉकी के लिए भी प्रयुक्त होता है तो क्रिकेट के लिए भी। लेकिन सभी खेलों में कोई न कोई पहले स्थान पर रहता है। वही हाल भोपाल की मीडिया का है। यहां कोई पाठक संख्या में पहले स्थान पर है तो कोई बढ़त में पहले स्थान पर है। कोई नंबर एक उभरता हुआ अखबार है तो किसी में नंबर एक है। हद तो यह हो जाती है कि कोई समाचार पत्र अपने को विज्ञापनों में पहले स्थान पर रखना षुरु कर देता है।


अरे भाई हम समाचार पत्र क्यों खरीदते हैं। विज्ञापन देखने के लिए या खबरों को पढ़ने के लिए। भास्कर एक ऐसा समाचार पत्र है जो अपने को विज्ञापन में प्रथम स्थान पर बताता है। भविष्य में अगर पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा तो एक बात यह जरुर लिखी जाएगी कि भारत का पहला विज्ञापन समाचार पत्र भास्कर है। क्योंकि यह खबरों की अपेक्षा विज्ञापन को ज्यादा महत्व देता है। यह समाचार पत्र यह मान कर चलता है कि इसके पाठक समाचार नहीं पढ़ना चाहते हैं वे तो केवल खरीददारी करने के लिए विज्ञापन देखेंगे और सामान खरीदने चले जाएंगे। देष दुनिया में क्या हो रहा है इसको इससे कोई वास्ता नहीं है।


कभी भोपाल में पहले स्थान पर रहने वाला समाचार पत्र नई दुनिया ने फिर से बढ़त करना शुरु कर दिया है। यह उसका दावा है मेरा नहीं। कौन से श्रोत से आकड़े लिए गए हैं यह बात केवल नई दुनिया को पता है और किसी को नहीं। किसी ने इसके संपादक, अरे नहीं संपादक तो कुछ होता ही नहीं है मालिक जो संपादक से भी बड़ा है से कह दिया कि इसकी पंच लाइन सबसे ज्यादा बढ़ता हुआ अखबार लिख दो और इसने लिख दिया। पाठक तो कुछ समझता ही नहीं है। हां इतना जरुर है कि ये मीडिया वाले आम नागरिक को भेड़-बकरी समझते हैं। अब जब यह समाचार सबसे ज्यादा बढ़ रहा है तो सब इसे खरीदेंगे। क्योंकि एक भेड़ जिधर जाती है उसी ओर सभी भेड़ें चल देती हैं। पर क्या करें। ये आदमी निकले। ये एक ही रास्ते पर नहीं चालते हैं। यहां तो सही पर भी बहस होती है। तो झूठ को लोग कैसे स्वीकार कर लेंगे। लोग तो षायद न ही चलें इस रास्ते पर लेकिन जब समाचार पत्र अपना वितरण बताएगा तो यह जरुर बताएगा कि उसकी पाठक संख्या पिछले एक साल में इतनी बढ़ गई है। यही हाल कुछ अन्य समाचार पत्रों का भी है।


पहले स्थान पर बनने के लिए ये समाचार पत्र कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। स्थान पहला होना चाहिए चाहे वह किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो। यही हाल रहा तो आने वाले समय में कुछ समाचार पत्रों की पंचलाइन कुछ इस प्रकार होंगी- झूठी खबरें परोसने में पहला स्थान, खबरों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने में पहला स्थान, सही खबरें छिपाने में पहला स्थान। आखिर रहना है पहले स्थान पर तो कुछ भी किया जा सकता है। जब कोई विज्ञापन में पहला स्थान लिखकर गौरव स्थापित करना चाहता है तो इसमें क्या बुराई है। यह पत्रकारिता की आत्महत्या नहीं गलत हो जाएगा ‘‘हत्या’’ है जिसके लिए कौन जिम्मेदार है। जब से पत्रकारिता कॉरपोरेटों के हाथों में गई है वह अपना वजूद खोती जा रही है। यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो इसके परिणाम भविष्य में बहुत ही खतरनाक हो सकते हैं।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

तुम याद आओगे

अन्ना तुम याद आओगे। वह और वक्त था जब देश आजाद था आज भी आजाद है और कल भी रहेगा पर इस आजादी का रूप क्या होगा सवाल इस पर है आजादी पर नहीं जरा सोचो हम भी आजाद हैं। लेकिन कहाँ है वह आजादी जिसके लिए लड़े थे देश के वीर जवान भ्रष्टाचार, दुराचार, के भेंट चढ़ गयी है सारी आजादी ऐसे में अन्ना तू ही तो काम आया है.

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

जरूरत कानून की नहीं,जरूरत अमल करने की है

भारत का संविधान दुनिया के सभी संविधानों से बड़ा है जिसमें बहुत से नियम कानून भरे पड़े है। किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए ये कानून मेरी नज़र में प्रयाप्त हैं। लेकिन सही से इन्हें प्रयोग में ना लाने के कारण समस्याएँ पैदा हो रही है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल विधेयक की माँग करते हुए प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हज़ारे ने लगभग 94 घंटे का उपवास रखा। सरकार ने उनकी सभी माँगो को मान भी लिया है। इससे क्या होने वाला है ? क्या ये भी संविधान पुस्तिका में जा कर दफन हो जायेगा या इसके कुछ ठोस परिणाम भी मिलेंगे। ये तो आने वाला समय ही बताएगा। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सरकार ने कई एजेंसियाँ जैसे सीवीसी,सीबीआई,आईबी,सीआईडी का गठन किया है। लेकिन इनके प्रमुख के पद पर जिन्हें नियुक्त किया जाता है वे स्वंय भ्रष्टाचारी होते है। अगर हम एक नज़र सीवीसी प्रमुख पीजे थॉमस पर डाले तो इससे साफ नज़र आता है कि ये संस्थाएँ साफ नहीं है। अपने बचाव के पक्ष में थॉमस ने कहा था कि योग्यता में कहीं भी नहीं लिखा था कि अभ्यार्थी भ्रष्ट ना हो। तो क्या इससे यह समझना चाहिए कि अब वह समय आ गया है जब यह भी लिखना पड़ेगा। लोकपाल बिल बनाने से ही सब कुछ नहीं हो जाएगा। जरूरत है बनाए गए कानून का सही तरीके से अमल हो।

गुरुवार, 31 मार्च 2011

आओ खेलें होली




आओ होली खेलें दिल खोल के ..................

शनिवार, 26 मार्च 2011

इस रंग बदलती दुनिया में

इस रंग बदलती दुनिया में
इन्सान कि नियत ठीक नहीं
निकला न करो तुम सज धज कर
इमान की नियत ठीक नहीं।
कुछ ऐसी ही नियत हमारे देश के नेताओ की हो गयी है। कोई भी इस हमाम में बचा नहीं है। सब के सब नंगे हो गये है। हमारे देश के प्रधान मंत्री को कुछ पता ही नहीं होता है कि क्या हो रहा है और सब अपनी अपनी गुल खिलते रहते हैं।
देश वासिओ! अब आपलोग भी अपनी नियत बदल लो या तो सजधज के निकलना बंद कर दो नही तो कब तुम्हारी इज्ज़त लुट जाएगी पता भी नहीं चलेगा।

शनिवार, 12 मार्च 2011

आखिर जनता ने ही उठा ही दी आवाज



मिस्र में जनता की आवाज को दबाने की जितनी भी कोशिश तत्कालीन सरकार ने कीआवाज उतनी ही बुलंद होती चली गई। नतीजा अब सब के सामने है। हुस्नी मुबारक को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा तथा साथ ही साथ देश निकाला भी मिला। वह जनता की ही आवाज थी जो इस करिश्में को कर दिखाई है। वही जनता अब अरब देशों में भी अपनी आवाज को उठा रही है। तो भारत की जनता कैसे पीछे रह सकती है। भारत के नागरिकों ने भी अपनी आवाज उठानी शुरु कर दी है। वह चाहे बहुत ही निचले स्तर से क्यों न हो। एक न एक दिन देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, लापरवाही, लालफीताशाही के खिलाफ जानता को अपनी आवाज उठानी ही थी। श्री श्री रविषंकर ने कह ही दिया है कि देश आज के नेतओं के बल पर नहीं चल सकता है। देश को जरुरत है ऐसे नेताओं की देश सेवा का केवल सपथ ने ले उसे कर दिखाने का जब्जा भी अपने अंदर विकसित करें।
मायावती शासित राज्य उत्तर प्रदेश में आखिर कर जनता ने अपनी आवाज को बुलंद कर ही दिया। बसपा के 54 विधायकों के उनके निर्वाचन क्षेत्र के नागरिकों ने ही रपट दर्ज कराने की मांग एक ऐतिहासिक पहलू बन सकता है। ऐसा भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार हो रहा है कि किसी राज्य के नागरिकों ने अपने ही चुने प्रत्याशी पर उंगली उठाई हो। इससे एक चीज जो सिद्ध होती है वह यह है कि देश की जनता और खास कर बिमारु राज्यों के रुप में जाना जाने वाला उत्तर प्रदेश की जनता अब अपने अधिकारों के लिए जाग उठी है। उसे यह हवा कहां से मिली इसका तो पता लगाना संभव नहीं है। लेकिन यह एक साकारत्मक पहल है।
उत्तर प्रदेश की जनता ने अपने जिन विधायकों पर उंगली उठाई है उनमें सभी के सभी सत्ता के विधायक हैं। सत्ताधारी विधायक सत्ता के नशे में यह भूल जाते हैं कि जनता ने उन्हें किस लिए विधानसभा या लोकसभा में भेजा है। शिकायतों में सबसे अधिक मुरादाबाद मंडल के विधायकों पर है दूसरे स्थान पर मेरठ मंडल के छह विधायकों पर जनता ने विरोध दर्ज कराया है।
जनता के इस विरोध को देखते हुए सरकार को चाहिए की वह अब ऐसा विधायक पारित करे जिससे जनता अपने निर्वाचित प्रत्याशी को वापस बुला सके। अगर सरकार जनता के इस रुख को नजर अंदाज करती है तो उसे इसके बहुत बुरे परिणाम भोगने पड़ सकते हैं। मायावती जहां प्रदेश के जिले-जिले में घूमकर अपनी छवि को सुधारने की कोशिश कर रही है वहीं इससे उनकी छवि और धुमिल होती जा रही है। अपने प्रवास के दौरान मायावती क्या दिखाना चाहती हैं यह तो उनके भ्रमण के बाद वहां पर घटित घटना से साफ नजर आता है। उनके जाने से पहले ही उस क्षेत्र में मीडिया और नागरिकों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है जहां उनका भ्रमण होना है। यह केवल जनता में दहशत पैदा करने का काम हो सकता है। इसका ताजा उदाहरण बुलान्दशाहर में देखने को मिला। मायावती अपने दौरे में बुलंदशहर गयी और वहां के प्रशासन ने उनकी सुरक्षा के इतने कड़े इंतजाम कर दिए कि "गीता बाल्मीकी" को अपनी जान गवानी पड़ गई। शहर में एक ओर मायावती के जिंदाबाद के नारे लग रहे थे और सीएम साहिबा तहसील के अभिलेख और अस्पतालों में मरीजों के हाल जानने के लिए जाने वाली थी। इसी ने अस्पताल की व्यवस्था में ऐसा परिवर्तन कर दिया कि आम नागरिक अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दे। अब ये मायावती हैं उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल तो हैं नहीं जो यह कह दें कि मेरे काफिले के लिए इतने प्रोटोकाल की आवश्याकता नहीं हैं। इन्हें तो केवल भूख है तो अपनी ताकत को दिखाने की उसकी कीमत चाहे जो हो।
2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में मायावती का प्रदेश दौरा उनकी छवि को कितना निखरता है यह देखने लायक होगा। कुछ भी हो , पिछले पांच सालों में जनता ने सत्ता पक्ष से जितनी परेशनी झेली है उतनी उसे किसी और से नहीं झेलनी पड़ी है। विधायकों के बुरे आचरण की खबरें उनके शासन काल में पूरे पांच से आती रही हैं। कहीं किसी विधायक ने कुछ किया तो कहीं किसी ने कुछ। पैसा ने देने पर इंजीनियर की हत्या तो जन्मदिन पर नोटों का हार। दौरे पर एसपी साहब जूती साफ करते हैं तो जन्मदिन पर डीआईजी साहब केक खिलाते हैं। पूरा का पूरा सरकारी कुनबा ही लगा है जी हजूरी में। इस दहशत में किसी राज्य की जनता कब तक रह सकती है। सरकार के गुलाम सरकारी कुनबा हो सकता है लेकिन जनता नहीं। शंखनाद जनता को करनी है जो वह कर चुकी है।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

सवाल धर्म परिवर्तन का है जी!

धर्मपरिवर्तन का सवाल किसी के मन में क्यों उठता है इस बात को समझना तथा उन्हें दूर करना जरुरी है। एक साधारण सा आदमी अपना धर्म बदल लेता है। कुछ मामलों में इसे जबरदस्ती परिवर्तन माना जा सकता है कुछ में लालच को लेकिन सभी मामलों में ऐसा ही होता है यह सही नहीं है।
हमारे देष के नेताओं को किसी के दुःख दर्द की कोई परवाह नहीं है परवाह है तो केवल इस बात की कि हमारी राजनीति कैसे चलती रहे, हम समाचार में कैसे बने रहें। यह सही है कि देष में अब केवल धर्म परिवर्तन ही नहीं राष्ट्र परिवर्तन की बात भी चल रही है। केवल झण्डा फहरा देने से कोई भारत का अंग बन जाएगा तो इसे माना नहीं जा सकता है। कष्मीर के लोगों की क्या समस्या है उसे समझना तथा उस अनुसार उनकी परेषानियों को दूर करने की कोषिष होनी चाहिए। ‘‘राष्ट्रीय एकता यात्रा’’ में जितने लोगों ने भाग लिया में उस पर कोई सवाल न उठाते हुए केवल इतना कहना चाहता हूं कि वही लोग इस बात को वहां जाकर बिना किसी हो हल्ला किए वहां के लोगों के परेषानियों को समझें और इस पर विचार करें इसे कैसे दूर किया जा सकता है।
भाजपा या आरएसएस को धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए अगर कुछ करना है तो उसके लिए महाकुंभ का आयोजन करने की कोई आवष्यकता नहीं है। धर्म परिवर्तन करने वालों के मनोभावों को समझे तथा उनकी समस्याओं को दूर करने की कोषिष करें। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई भी साधारण मनुष्य सामान्य परिस्थितियों में अपना धर्म बदलना पसंद नहीं करता है। जहां तक मुझे लगता है धर्म परिवर्तन से पहले लोग को अपने भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में बहुत सोचना-विचारना पड़ता है।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

युवाओं के देश में युवाओं का स्थान

भारत युवाओं का देश है। हमारे देश में युवाओं की संख्या लगभग 56 प्रतिशत है जो दुनिया के सभी देशो से अधिक से अधिक है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन युवाओं की वर्तमान स्थिति क्या है और इनका भविष्य क्या होगा। देश केवल युवाओं से विकास की डगर पर आगे नहीं बढ़ सकता है इसके लिए आवष्यक है कि उन्हें सही दिशा-निर्देश मिले और अवसर मिले। अर्थशास्त्रीयों का मानना है कि जनसंख्या दुधारी तलवार की तरह होती है अगर उसका सही से इस्तेमाल नहीं किया जाता है तो वह इस्तेमाल करने वाले का भी गला काटने से हिचकती नहीं है। भारत के हाथ में यह जो तलवार है यह भारत को विकास के मार्ग पर आगे ले जाएगी या विनाश के गर्त में जाएगी इस पर विचार करने का समय आ गया है।
बेरोजगारी का अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि एक एमबीए करना वाला उत्तर प्रदेश में होमगार्ड के लिए आवेदन कर रहा तो एक बरेली से आईटीबीपी की भर्ती के लिए 410 सीटों के लिए लाखों लोग जा रहे हैं। एक चपरासी की भर्ती निकलती है तो उसके लिए भी सुशिक्षित लोग अपना आवेदन करने में नहीं हिचकते हैं। ऐसी कोई एक दो खबरें नहीं हैं कि उन्हें गिना जा सके देश में आए दिन ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं।
युवाओं के नाम पर तो भारत में चुनाव तक लड़ा जा रहा है। हर दल का अपना एक युवा संघ है जो युवाओं की बात करता है। आज ही नहीं इतिहास के हर कालखण्ड में ‘युवापन’ और ‘युवाजन’ की महत्ता को स्वीकार किया जाता रहा है। समाज ने इन्हें अपनी ताकत समझा है तो राज्य ने अपना हथियार और बाजार ने अपने व्यापार का मूल आधार। लेकिन कमोवेश सब ने इन्हें अपने एजेंडे के केन्द्र में रखा है। यह अलग बात है कि इनकी आवश्यकता, आकांक्षा और भावनाओं को कितना समझा गया, इनकी कितनी कदर की गई या फिर उनके लिए कितने प्रयास किये गये, ये सदैव सवालों के घेरे में रहे हैं। सभी तरह के संघर्षं, आंदोलनों और रचनात्मक प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले ये युवाजन हमेशा अपने वर्तमान के संकट और संत्रास के सबसे अधिक भोक्ता रहे हैं।
देश की इस युवा शक्ति को राजनीतिक दल एक हथियार के रुप में उपयोग करते हैं और अपना काम निकाल लेने के बाद उनकी समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। इस समस्या के लिए अगर किसी को जिम्मेदार माना जाता है तो वह हमारी शिक्षा व्यवस्था है। शिक्षा व्यवस्था को ही हमारे देश अधिकतर विद्वान, नेता, अधिकारी यहां तक की सभी जिम्मेदार मानते हैं। आखिर यदि शिक्षा व्यवस्था में इतनी कमी है तो उसमें सुधार क्यों नहीं किए जाते हैं। हकीकत तो यह है कि देश में रोजगार के अवसर भी कम हो रहे हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश राज्य विद्युत निगम का ही उदाहरण लें। इसने आपने आधे से अधिक पदों को खत्म कर दिया है। पंजाब में बिजली को ठेके पर दिए जाने की बात हो रही है। स्कूलों में शिक्षकों की जगह पैराशिक्षकों से काम चलाया जा रहा है तो विष्वविद्यालयों में अतिथि शिक्षकों से। रिटायरमेंट की अवधि 60 से बढ़ाकर 62-65 की जा रही है और दूसरी तरफ रोजगार के अवसरों को कम किया जा रहा है ऐसे में यह कहा जाए कि केवल हमारी शिक्षा व्यवस्था में कमी है तो सही साबित नहीं हो सकती है।
कहा जाता है ‘‘जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चलता है’’ तो हमारे देश की जवानी किस ओर जा रही है? इसका पता होना देश के नीति निर्माताओं के लिए आवष्यक है। अगर हम मध्य प्रदेश की बात लें तो अभी तक यहां केवल वृद्ध किसान ही आत्महत्या करते थे लेकिन अब युवा भी आत्म हत्या करने लगे हैं। अभी हाल ही में एक युवा मजदूर महू निवासी लगभग 24 वर्षीय रमेश कुमार ने अपने अंग को बेचने की पेश कश की। इन्दौर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी से कहा ‘‘सर मुझे आंख बेचनी और मैं कमजोर आंखे लगवा लूंगा।’’ जिस देश की जवानी अपने शरीर के अंगों को बेचने को तैयार उस देश का भविष्य क्या होगा यह तो आने वाला कल ही बताएगा। लेकिन यह तो तय है कि यदि यही हाल बरकरार रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आत्महत्या की महामारी वृद्धों से युवाओं को बहुत ही जल्द अपनी चपेट में ले लेगा।