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गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

मनुष्य झूठ बोल सकता है परन्तु

मनुष्य झूठ बोल सकता है परन्तु साक्ष्य नही: डा.हर्ष शर्मा

पूर्व राष्ट्रपति कलाम के जन्मदिन पर होगी कई प्रतियेागिताएं

झांसी। बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय परिसर में संचालित डा.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम न्यायालयिक विज्ञान एवं अपराधशास्त्र संस्थान के तत्वाधान में द्वारा पूर्व राष्ट्रपति एवं देश के महान वैज्ञानिक डा.कलाम के 87वे जन्मदिन के उपलक्ष्य में 11 अक्टूबर से 15 अक्टूबर 2018 तक चार दिवसीय कार्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। यह जानकारी आज संस्थान के समन्वयक डा.विजय यादव ने दी।
डा.यादव ने बताया कि इसी श्रृंखला में आज प्रथम दिन भूगर्भ विज्ञान विभाग के सभागार में एक विशिष्ट व्याख्यान में राज्य न्यायालयिक विज्ञान प्रयोगशाला, सागर. के निदेशक डा.हर्ष शर्मा ने एक व्याख्यान दिया। डा.षर्मा अपराध अन्वेषण में भौतिक साक्ष्यो की महत्ता प्रकाश डालते हुए कहा कि एक जीवित मनुष्य झूठ बोल सकता है और बोलता है लेकिन साक्ष्य कभी भी झूठ नही बोलते।
इस अवसर पर बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता विज्ञान संकाय प्रो.एम.एम.ंिसंह, अपराध अन्वेषण षाखा टीकमगढ़ के वैज्ञानिक अधिकारी डा.प्रदीप कुमार, डा.अनु सिंगला, डा.अंकित श्रीवास्तव, डा.कृति निगम, डा.चन्दन नामदेव, डा.मुरली मनोहर यादव उपस्थित रहे।
समन्वयक डा.यादव ने बताया कि 12 अक्टूबर को प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता, 13 अक्टूबर को वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन होगा। जबकि 15 अक्टूबर रक्तदान शिविर का आयोजन  किया जायेगा।  डा.यादव ने विश्वविद्यालय परिसर के अधिक से अधिक छात्र-छसात्राओं को प्रतियेागिताओं में प्रतिभाग करने की अपील की।

सोमवार, 31 मार्च 2014

आखिर कब तक चलेगा यह खेल

पंचायत का फैसला। सामूहिक दुष्कर्म। आरोप। जांच। दण्ड की मांग। पीड़िता से मिलना। पीड़िता के लिए कुछ मुवावजे की घोषण। परिवार के लोगों को सुरक्षा। प्यार जुर्म हो गया है। सामुहिक दुष्कर्म उस जुर्म को खत्म करने का तरीका। कुछ ऐसा ही कारनामें करती हैं हमारे देष की खाप पंचायतें। उच्चतम न्यायालय ऐसी पंचायतों पर रोक लगाती है लेकिन पुलिस कुछ कर नहीं पाती है। आखिर कब तक चलेगा यह गंदा खेल। कब तक हम इंतजार करते रहेंगे अगले षिकार की। जब किसी लड़की के साथ दुष्कर्म होता है तो हमें याद आती हैं धाराएं, कानून। उसके पहले हम इंतजार करते रहते हैं अगले षिकार होने वाली की।
देष में ऐसे ही कम दुष्कर्म के मामले आते हैं क्या। जो पंचायतें भी इस काम को आगे बढ़ाने में लगी हुई है। समझ में नहीं आता है कि ये पंचायते होती किस लिए है। लोगों के रक्षण के लिए या भक्षण के लिए। जहां तक मैंने आज तक पंचायतों की खबरों को पढ़ा या सुना है रक्षण या समाज के उत्थान की एक भी खबर मुझे आज तक पढ़ने को नही मिली है। केवल मिलती है तो सजा की। पंचायत नहीं अदालत हो गयी है। सारे फैसले कर लेती है। सजा भी वह जो मानवता के ही खिलाफ हो। कभी अपने नवजात बच्चे को फेंकने का आदेष तो कभी सामूहिक दुष्कर्म की सजा। मुझे हरिषंकर परसाई जी का वह व्यग्ंय याद आता है जिसमें कहा गया कि शादी करने से जाति है बच्चे पैदा करने से नहीं। ठीक वैसे ही प्यार करने से मुंछ नीची होती है समाज की, दुष्कर्म करने से तो पुरुषत्व का पता चलता है। पंचायतें वैसे भी पुरुषवादी होती हैं। खासकर के खाप पंचायतें। यहां महिलाओं को किसी भी तरह का अधिकार नहीं है चाहे वह संविधान प्रदत्त हो या समाज प्रदत्त। यहां केवल वे एक उत्पाद हैं जिसे समाज के तथाकथित ठेकेदार जैसा चाहें फैसला सुना सकते हैं।
दिल्ली दुष्कर्म के बाद से देष में वैसे भी दुष्कर्म के मामलों की बढ़त होती सी लगती है। आए दिन समाचार पत्रों में इससे संबंधित खबर जरुर होगी। ऐसा लगता है कि इसके बिना समाचार पत्र बन ही नहीं सकते हैं। जरुरी भी है। जहां तक हो पाता है पुलिस दबाने की कोषिष तो करती है लेकिन एक बार मीडिया में जब बात आ जाती है तो पुलिस भी थोड़ा सजग दिखने लगती है। एक सर्वे के अनुसार भार में हर 5 में से 1 महिला के साथ दुष्कर्म होती है। फब्तिया ंतो लगभग हर महिला पर होती है। कोई भी महिला इससे बच नहीं पाती है। यह मानसिक दिवालियपन नहीं है पंचायतों को और क्या है।
हाल की घटना किसी और प्रांत की नहीं ऐसे राज्य की है जहां की मुख्यमंत्री भी एक महिला ही है। पष्चिम बंगाल की है। सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं सरकार में आकर भी अपने लिए एक सुरक्षात्मक कानून नहीं बना सकती है। महिलाओं को आरक्षण लोकसभा और विधानसभा में दिया जाता है जिससे कि उनका प्रतिनिधित्व हो सके। पंचायतों में तो 50 प्रतिषत तक आरक्षण दिया गया है लेकिन क्या वे इसका उपयोग कर पाती है। सही तरीके से कहना तो बेइमानी होगी। मुझे नहीं लगता है कि विधायिकाओं मेें महिलाओं का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भी वे भारत की महिलाओं का
प्रतिनिधित्व कर पाती है। राजनीति में आने के बाद वे तो सुरक्षित हो जाती हैं और चिंता होती है तो केवल अपनी कुर्सी की। जिस काम के लिए उनका चुनाव किया जाता है वह कुर्सी पर आकर खत्म हो जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि महिलाओं को कैसे सुरिक्षत किया जा सकता है।
सामाजिक दिवालियापन के मामलों में लगातार वृद्धि होती जा रही है लेकिन हमारे देष के तथाकथित समाजषास्त्री इस पर मौन हैं। इस समस्या से कैसे निपटा जाए तथा लोगों में जागरुकता कैसे लाई जाए इस पर कोई भी शोध करने उनके लिए गवारा हो गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन तथा समस्याओं से निपटने के लिए समाजषास्त्रियों के पास कोई उपाय नहीं मिलता है। वे केवल इसे मानसिक विक्षप्तता मान लेते हैं। आष्चर्य की बात यह है कि हमारे देष में उच्च षिक्षा में शोध का प्रवधान किया गया है लेकिन वह केवल खानापूर्ति के लिए होते हैं। सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए गहन शोध की आवष्कता है। आज हालत ऐसी हो गयी है कि बिना मर्ज का पता लगाए है दवा दी जा रही है। कानून पर कानून। एक और कानून। लेकिन समस्या जस की तस। आखिर इतने कानून के बावजूद भी समस्या वैसे ही बनी हुई है इससे यही माना जा सकता है कि या तो लोगों को कानून का कोई डर नहीं है या समस्या को सही तरीके तरीके से समझने की कोषिष नहीं की गई। केवल वातानुकूलित कमरे में बैठकर कानून बना दिया गया और उसे समाज पर थोप दिया गया जो वास्तविक समस्या से कोई सरोकार नहीं रखता है।
जहां तक मेरेी समझ है समस्या का सही तरीके से जाना ही नहीं गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन पर कोई शोध ही सही तरीके से नहीं किया गया है। विष्वविद्यालय अनुदान आयोग सेमिनार, परिचर्चा जाने किस किस चीज के लिए पैसा देती है लेकिन कोई महत्व की बात नहीं निकल रही है। इसके पीछे कौन जिम्मेदार है। लोग वहां केवल प्रमाणपत्र और खाना खाने के लिए आते हैं। इसके इतर और किसी चीज से किसी का कोई सरोकार नहीं होता है। सबकुछ महज खानापूर्ति। ऐसे में तो कितने भी कानून बना लिए जाए समाज की समस्या का समाधान कर पाना संभव नहीं है। जब तक कि इस पर गहन विचार विमर्ष न किया जाए तथा इसका कोई रास्ता निकाला जाए। आज समय समाज के मनोविज्ञान को समझने का है। चाहे वह खाप पंचायत के संदर्भ में हो या किसी और समस्या के संबंध में।
उमेष कुमार

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

जरूरत कानून की नहीं,जरूरत अमल करने की है

भारत का संविधान दुनिया के सभी संविधानों से बड़ा है जिसमें बहुत से नियम कानून भरे पड़े है। किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए ये कानून मेरी नज़र में प्रयाप्त हैं। लेकिन सही से इन्हें प्रयोग में ना लाने के कारण समस्याएँ पैदा हो रही है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल विधेयक की माँग करते हुए प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हज़ारे ने लगभग 94 घंटे का उपवास रखा। सरकार ने उनकी सभी माँगो को मान भी लिया है। इससे क्या होने वाला है ? क्या ये भी संविधान पुस्तिका में जा कर दफन हो जायेगा या इसके कुछ ठोस परिणाम भी मिलेंगे। ये तो आने वाला समय ही बताएगा। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सरकार ने कई एजेंसियाँ जैसे सीवीसी,सीबीआई,आईबी,सीआईडी का गठन किया है। लेकिन इनके प्रमुख के पद पर जिन्हें नियुक्त किया जाता है वे स्वंय भ्रष्टाचारी होते है। अगर हम एक नज़र सीवीसी प्रमुख पीजे थॉमस पर डाले तो इससे साफ नज़र आता है कि ये संस्थाएँ साफ नहीं है। अपने बचाव के पक्ष में थॉमस ने कहा था कि योग्यता में कहीं भी नहीं लिखा था कि अभ्यार्थी भ्रष्ट ना हो। तो क्या इससे यह समझना चाहिए कि अब वह समय आ गया है जब यह भी लिखना पड़ेगा। लोकपाल बिल बनाने से ही सब कुछ नहीं हो जाएगा। जरूरत है बनाए गए कानून का सही तरीके से अमल हो।