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सोमवार, 31 मार्च 2014

आखिर कब तक चलेगा यह खेल

पंचायत का फैसला। सामूहिक दुष्कर्म। आरोप। जांच। दण्ड की मांग। पीड़िता से मिलना। पीड़िता के लिए कुछ मुवावजे की घोषण। परिवार के लोगों को सुरक्षा। प्यार जुर्म हो गया है। सामुहिक दुष्कर्म उस जुर्म को खत्म करने का तरीका। कुछ ऐसा ही कारनामें करती हैं हमारे देष की खाप पंचायतें। उच्चतम न्यायालय ऐसी पंचायतों पर रोक लगाती है लेकिन पुलिस कुछ कर नहीं पाती है। आखिर कब तक चलेगा यह गंदा खेल। कब तक हम इंतजार करते रहेंगे अगले षिकार की। जब किसी लड़की के साथ दुष्कर्म होता है तो हमें याद आती हैं धाराएं, कानून। उसके पहले हम इंतजार करते रहते हैं अगले षिकार होने वाली की।
देष में ऐसे ही कम दुष्कर्म के मामले आते हैं क्या। जो पंचायतें भी इस काम को आगे बढ़ाने में लगी हुई है। समझ में नहीं आता है कि ये पंचायते होती किस लिए है। लोगों के रक्षण के लिए या भक्षण के लिए। जहां तक मैंने आज तक पंचायतों की खबरों को पढ़ा या सुना है रक्षण या समाज के उत्थान की एक भी खबर मुझे आज तक पढ़ने को नही मिली है। केवल मिलती है तो सजा की। पंचायत नहीं अदालत हो गयी है। सारे फैसले कर लेती है। सजा भी वह जो मानवता के ही खिलाफ हो। कभी अपने नवजात बच्चे को फेंकने का आदेष तो कभी सामूहिक दुष्कर्म की सजा। मुझे हरिषंकर परसाई जी का वह व्यग्ंय याद आता है जिसमें कहा गया कि शादी करने से जाति है बच्चे पैदा करने से नहीं। ठीक वैसे ही प्यार करने से मुंछ नीची होती है समाज की, दुष्कर्म करने से तो पुरुषत्व का पता चलता है। पंचायतें वैसे भी पुरुषवादी होती हैं। खासकर के खाप पंचायतें। यहां महिलाओं को किसी भी तरह का अधिकार नहीं है चाहे वह संविधान प्रदत्त हो या समाज प्रदत्त। यहां केवल वे एक उत्पाद हैं जिसे समाज के तथाकथित ठेकेदार जैसा चाहें फैसला सुना सकते हैं।
दिल्ली दुष्कर्म के बाद से देष में वैसे भी दुष्कर्म के मामलों की बढ़त होती सी लगती है। आए दिन समाचार पत्रों में इससे संबंधित खबर जरुर होगी। ऐसा लगता है कि इसके बिना समाचार पत्र बन ही नहीं सकते हैं। जरुरी भी है। जहां तक हो पाता है पुलिस दबाने की कोषिष तो करती है लेकिन एक बार मीडिया में जब बात आ जाती है तो पुलिस भी थोड़ा सजग दिखने लगती है। एक सर्वे के अनुसार भार में हर 5 में से 1 महिला के साथ दुष्कर्म होती है। फब्तिया ंतो लगभग हर महिला पर होती है। कोई भी महिला इससे बच नहीं पाती है। यह मानसिक दिवालियपन नहीं है पंचायतों को और क्या है।
हाल की घटना किसी और प्रांत की नहीं ऐसे राज्य की है जहां की मुख्यमंत्री भी एक महिला ही है। पष्चिम बंगाल की है। सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं सरकार में आकर भी अपने लिए एक सुरक्षात्मक कानून नहीं बना सकती है। महिलाओं को आरक्षण लोकसभा और विधानसभा में दिया जाता है जिससे कि उनका प्रतिनिधित्व हो सके। पंचायतों में तो 50 प्रतिषत तक आरक्षण दिया गया है लेकिन क्या वे इसका उपयोग कर पाती है। सही तरीके से कहना तो बेइमानी होगी। मुझे नहीं लगता है कि विधायिकाओं मेें महिलाओं का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भी वे भारत की महिलाओं का
प्रतिनिधित्व कर पाती है। राजनीति में आने के बाद वे तो सुरक्षित हो जाती हैं और चिंता होती है तो केवल अपनी कुर्सी की। जिस काम के लिए उनका चुनाव किया जाता है वह कुर्सी पर आकर खत्म हो जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि महिलाओं को कैसे सुरिक्षत किया जा सकता है।
सामाजिक दिवालियापन के मामलों में लगातार वृद्धि होती जा रही है लेकिन हमारे देष के तथाकथित समाजषास्त्री इस पर मौन हैं। इस समस्या से कैसे निपटा जाए तथा लोगों में जागरुकता कैसे लाई जाए इस पर कोई भी शोध करने उनके लिए गवारा हो गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन तथा समस्याओं से निपटने के लिए समाजषास्त्रियों के पास कोई उपाय नहीं मिलता है। वे केवल इसे मानसिक विक्षप्तता मान लेते हैं। आष्चर्य की बात यह है कि हमारे देष में उच्च षिक्षा में शोध का प्रवधान किया गया है लेकिन वह केवल खानापूर्ति के लिए होते हैं। सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए गहन शोध की आवष्कता है। आज हालत ऐसी हो गयी है कि बिना मर्ज का पता लगाए है दवा दी जा रही है। कानून पर कानून। एक और कानून। लेकिन समस्या जस की तस। आखिर इतने कानून के बावजूद भी समस्या वैसे ही बनी हुई है इससे यही माना जा सकता है कि या तो लोगों को कानून का कोई डर नहीं है या समस्या को सही तरीके तरीके से समझने की कोषिष नहीं की गई। केवल वातानुकूलित कमरे में बैठकर कानून बना दिया गया और उसे समाज पर थोप दिया गया जो वास्तविक समस्या से कोई सरोकार नहीं रखता है।
जहां तक मेरेी समझ है समस्या का सही तरीके से जाना ही नहीं गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन पर कोई शोध ही सही तरीके से नहीं किया गया है। विष्वविद्यालय अनुदान आयोग सेमिनार, परिचर्चा जाने किस किस चीज के लिए पैसा देती है लेकिन कोई महत्व की बात नहीं निकल रही है। इसके पीछे कौन जिम्मेदार है। लोग वहां केवल प्रमाणपत्र और खाना खाने के लिए आते हैं। इसके इतर और किसी चीज से किसी का कोई सरोकार नहीं होता है। सबकुछ महज खानापूर्ति। ऐसे में तो कितने भी कानून बना लिए जाए समाज की समस्या का समाधान कर पाना संभव नहीं है। जब तक कि इस पर गहन विचार विमर्ष न किया जाए तथा इसका कोई रास्ता निकाला जाए। आज समय समाज के मनोविज्ञान को समझने का है। चाहे वह खाप पंचायत के संदर्भ में हो या किसी और समस्या के संबंध में।
उमेष कुमार

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सरोकरों से कटती शिक्षा भारतीय

शिक्षा में जो परिवर्तन वर्तमान समय में दिखाई दे रहें हैं वे किसी को भी सुखमय प्रतीत नहीं हो सकते हैं। शिक्षा व्यवस्था इस कदर बर्बाद होती जा रही है कि लोग अब केवल शिक्षित हो रहें हैं, संस्कारी नहीं। संस्कारों का अभाव भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए बहुत ही बड़ा संकट बन सकता है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए देश में केवल बाबू लोग तैयार हो रहे हैं। कच्चे माल की तरह वे कालेजों या विश्वविद्यालयों में आते हैं और तीन साल में उन्हें एक बाबू बनाकर भेज दिया जाता है। कहने के नाम पर तो वे शिक्षित हो जाते हैं लेकिन वास्तव में उनकी वह शिक्षा न तो देश के किसी काम की होती है और न ही समाज का उससे कुछ भला हो सकता है।

आज से कुछ समय पहले जब मैं उत्तर प्रदेश शिक्षा मंडल इलाहाबाद से संबंधित एक स्कूल में तीसरी कक्षा का छात्र था तब से पांचवी तक हमें नैतिक शिक्षा के रुप में एक विषय पढ़ने को दिया जाता था। हमारी उस शिक्षा का एकमात्र उद्देष्य हमें नैतिकता की शिक्षा देना था। आश्चर्य तो तब हुआ जब मैं इस बार अपने गांव गया और यह पता चला कि अब बच्चों को नैतिकता की कोई आवश्याकता नहीं रह गई है। नैतिक शिक्षा को विषय से हटा दिया गया है। आज बच्चों को यह भी नहीं पता है कि दूध गाय देती है या बैल। इसे हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए बिडंबना ही कहा जाएगा कि वह हमारे देश के बच्चों को यह भी नहीं सिखा पा रही है।


शिक्षा का सरोकारों से अगर कोई संबंध नहीं होता है यह बात तो भारतीय जनगणना 2011 से भी निकल कर सामने आ गई है। अपने को शिक्षित मानने वाले और निरंतर संचार माध्यमों से संबंध रखने वाले लोगों में कन्या भ्रूण हत्या के ज्यादा मामले सामने आए हैं। जबकि देश के आदिवासी और पिछड़े इलाकों में लड़कियों की संख्या में वृद्धि हुई है। तो क्या इससे इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि शिक्षा हमें सरोकार नहीं दे रही है। अगर यह बात सिद्ध मानी जाए तो फिर सवाल यह उठता है कि हमें ऐसी शिक्षा की क्या आवश्याकता है। अब समय आ गया है जब शिक्षा को स्वचेतना से जोड़ा जाए।


लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति से देश का कोई भला नहीं हो सकता है। मैकाले के उद्देश्य को अगर हम ध्यान से देखे तो एक बात साफ नजर आता है कि शिक्षा को इस तरह बनाओ की वह ब्रिटिश कंपनियों के लिए क्लर्क पैदा हो सकें। आज भी उसी व्यवस्था को अपनाया गया है। तो क्या देश आज भी देश के लिए क्लर्क ही तैयार कर रहा है। शिक्षा का मतलब केवल डिग्री ही नहीं होती है। डिग्री तो आज देश में बिक रही है। अगर आप के पैसा है तो कोई भी डिग्री खरीद सकते हैं।


भ्रष्टाचार की जड़ें केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं हैं वह शिक्षा की जड़ों में मठ्ठा डालने का भी काम रही है। शिक्षा के क्षेत्र में जो क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं वे इसे सही दिशा देने में सफल नहीं हो रहे हैं। शिक्षा का निजीकरण शिक्षा को और भी आघात पहुंचा रहा है। निजीकरण के फलस्वरुप शिक्षा एक व्यवसाय का रुप धारण कर चुकी है। पैसा ऐंठने के चक्कर में जुलाई/अगस्त के महीने में कुकुरमुत्ते की तरह स्कूल उग आते हैं और कुछ समय बाद गायब हो जाते हैं। अभी हाल ही ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ में उजागर हुआ है। वहां पर एक स्कूल ने अपने 14 साखाएं खोली और एक साल के भीतर ही सभी को बंद करके लोगों का सारा धन लेकर चंपत हो गई। सवाल यह उठता है कि क्या देश की सरकार को इस बात से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है कि देश या प्रदेश में कैसे विद्यालय खुल रहे हैं। ऐसे में देश को किस के भरोसे छोड़ा जा सकता है। खैर अभी तक इस दिशा में कोई पहल की गई हो ऐसा भी नहीं लगता है।