शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सरोकरों से कटती शिक्षा भारतीय

शिक्षा में जो परिवर्तन वर्तमान समय में दिखाई दे रहें हैं वे किसी को भी सुखमय प्रतीत नहीं हो सकते हैं। शिक्षा व्यवस्था इस कदर बर्बाद होती जा रही है कि लोग अब केवल शिक्षित हो रहें हैं, संस्कारी नहीं। संस्कारों का अभाव भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए बहुत ही बड़ा संकट बन सकता है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए देश में केवल बाबू लोग तैयार हो रहे हैं। कच्चे माल की तरह वे कालेजों या विश्वविद्यालयों में आते हैं और तीन साल में उन्हें एक बाबू बनाकर भेज दिया जाता है। कहने के नाम पर तो वे शिक्षित हो जाते हैं लेकिन वास्तव में उनकी वह शिक्षा न तो देश के किसी काम की होती है और न ही समाज का उससे कुछ भला हो सकता है।

आज से कुछ समय पहले जब मैं उत्तर प्रदेश शिक्षा मंडल इलाहाबाद से संबंधित एक स्कूल में तीसरी कक्षा का छात्र था तब से पांचवी तक हमें नैतिक शिक्षा के रुप में एक विषय पढ़ने को दिया जाता था। हमारी उस शिक्षा का एकमात्र उद्देष्य हमें नैतिकता की शिक्षा देना था। आश्चर्य तो तब हुआ जब मैं इस बार अपने गांव गया और यह पता चला कि अब बच्चों को नैतिकता की कोई आवश्याकता नहीं रह गई है। नैतिक शिक्षा को विषय से हटा दिया गया है। आज बच्चों को यह भी नहीं पता है कि दूध गाय देती है या बैल। इसे हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए बिडंबना ही कहा जाएगा कि वह हमारे देश के बच्चों को यह भी नहीं सिखा पा रही है।


शिक्षा का सरोकारों से अगर कोई संबंध नहीं होता है यह बात तो भारतीय जनगणना 2011 से भी निकल कर सामने आ गई है। अपने को शिक्षित मानने वाले और निरंतर संचार माध्यमों से संबंध रखने वाले लोगों में कन्या भ्रूण हत्या के ज्यादा मामले सामने आए हैं। जबकि देश के आदिवासी और पिछड़े इलाकों में लड़कियों की संख्या में वृद्धि हुई है। तो क्या इससे इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि शिक्षा हमें सरोकार नहीं दे रही है। अगर यह बात सिद्ध मानी जाए तो फिर सवाल यह उठता है कि हमें ऐसी शिक्षा की क्या आवश्याकता है। अब समय आ गया है जब शिक्षा को स्वचेतना से जोड़ा जाए।


लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति से देश का कोई भला नहीं हो सकता है। मैकाले के उद्देश्य को अगर हम ध्यान से देखे तो एक बात साफ नजर आता है कि शिक्षा को इस तरह बनाओ की वह ब्रिटिश कंपनियों के लिए क्लर्क पैदा हो सकें। आज भी उसी व्यवस्था को अपनाया गया है। तो क्या देश आज भी देश के लिए क्लर्क ही तैयार कर रहा है। शिक्षा का मतलब केवल डिग्री ही नहीं होती है। डिग्री तो आज देश में बिक रही है। अगर आप के पैसा है तो कोई भी डिग्री खरीद सकते हैं।


भ्रष्टाचार की जड़ें केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं हैं वह शिक्षा की जड़ों में मठ्ठा डालने का भी काम रही है। शिक्षा के क्षेत्र में जो क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं वे इसे सही दिशा देने में सफल नहीं हो रहे हैं। शिक्षा का निजीकरण शिक्षा को और भी आघात पहुंचा रहा है। निजीकरण के फलस्वरुप शिक्षा एक व्यवसाय का रुप धारण कर चुकी है। पैसा ऐंठने के चक्कर में जुलाई/अगस्त के महीने में कुकुरमुत्ते की तरह स्कूल उग आते हैं और कुछ समय बाद गायब हो जाते हैं। अभी हाल ही ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ में उजागर हुआ है। वहां पर एक स्कूल ने अपने 14 साखाएं खोली और एक साल के भीतर ही सभी को बंद करके लोगों का सारा धन लेकर चंपत हो गई। सवाल यह उठता है कि क्या देश की सरकार को इस बात से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है कि देश या प्रदेश में कैसे विद्यालय खुल रहे हैं। ऐसे में देश को किस के भरोसे छोड़ा जा सकता है। खैर अभी तक इस दिशा में कोई पहल की गई हो ऐसा भी नहीं लगता है।

1 टिप्पणी:

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