शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

फेसबुक से कुछ चुराया हुआ


अंकित कुमार

एक पैग में बिक जातें हैं, जाने कितने खबरनबीस,

सच को कौन कफ़न पहनता, ये अखबार न होता तो.

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प्रशांत कुमार


जब विज्ञापन देने वाले ही बादशाह हों तो कामगार लोग सिर्फ़ शांत उपभोक्ता हो सकते हैं समाचार का एजेंडा तय करने वाले सक्रिय लोग नहीं.

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संजय कुमार श्रीवास्तव

हमेशा समाज का बौद्धिक सोच वाले बुद्धिजीवी वर्ग ही दुविधाओं का समाधान करता था..परन्तु आज का तथाकथित बुद्धिजीवी कोई दांयीं ओर चलता है तो कोई बाँयीं ओर, और बाकी बचे हुए किसी धर्म या जाति विशेष से खुद

को जोड़ लेते हैं और फ़िर हमेशा उसी वर्ग के ही हितों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जबकि पूर्ण समाज की उन्हें कोई फिक्र नहीं होती..लोग ऐसे ढोंगी और पाखंडी समाज सुधारकों को दरकिनार कर दें तो आज की आधी समस्या स्वतः मिट हो जायेगी..

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आशुतोष शुक्ल


स्वामी अग्निवेश टीम अन्ना से अलग हो गए हैं.... कह रहें हैं कि अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर अलग हो रहा हूं...... कहीं इस अंतरआत्मा का नाम कांग्रेस तो नहीं...???

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सनद गुप्ता

ये सरकार सटक गई है....



अब आप ही बताएं क्‍या होगा इस देश का...मुझे समझ में नहीं आता कि आम आदमी के हक में फैसला लेने में सरकार को दिक्‍कत क्‍या है...आज सरकार ने साफ कहा कि अन्‍ना अनशन करते हैं तो करते रहें...किरण बेदी ने कहा कि कल सरकार हमारी बातें सुन रही थी लेकिन आज की मीटिंग में सरकार हमें डांट रही थी...अन्‍ना चाहते हैं कि हर विभाग सिटिजन चार्टर बनाए...सरकारी दफ्तरों में किसी काम को करने के दिन तय हों...यानि अगर आप जाति प्रमाण पत्र बनवाने जाते हैं तो इसमें कितने दिन का वक्‍त लगेगा...अगर तय मियाद के अंदर काम नहीं होता है तो जिम्‍मेदार अफ़सर की तन्‍ख़्वाह कटे...अब ये समझ नहीं आता कि आखिर आम आदमी जो रोज़-रोज़ अफ़सरशाही की चक्‍की में पिसता है उसे मुक्‍त करने में सरकार को क्‍या दिक्‍कत है...बड़ी शर्मनाक बात है कि सरकार आम आदमी की दुश्‍मन की तरह बरताव कर रही है..........

सोमवार, 1 अगस्त 2011

बिन नैना जग सून


६४ साल से प्रताबित लोकपाल बिल के लिए अगर यह कहा जाये तो गलत बात है। देर से ही सही हमारी सरकार ने लोकपाल बिल तैयार किया है। यह अलग बात है कि इस बिल से कुछ होने जाने वाला नहीं है। यह तो केवल देखने वाला बिल है काम करने वाला नहीं। वैसे भी हमारे देश में दर्शक ज्यादा है कार्यकर्ता बहुत कम है। यह बिल भी दर्शक ही है। अर्थात इसे बहुमत मिल सकता है। लोकतंत्र में और क्या चाहिए केवल बहुमत उसके बाद आप ५ साल तक जो चाहे कर सकते हैं।
हमारे यहाँ ज्यादा तक बिलों को (जो सरकार या नौकरशाह पर प्रतिबन्ध लगाते हैं) मात्र आंखे दी जाती हैं। हाथ या पैर नहीं। अब मीडिया को ही लीजिये। प्रेस आयोग बनाया गया। उसे केवल भौकने की ताकत दी गयी काटने की नहीं। बेचारा आज भी मौके-बेमौके भौक लेता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। मीडिया गर्त में जा रही है तो जाये क्या किया जाये। सरकार ने प्रेस आयोग तो बना दिया है न। मीडिया पर अंकुश लगाये यह आयोग नहीं कहाँ हमारी मीडिया तो हाथी है हाथी। हाथी चली जाती है कुत्ते भौकते रहते हैं। वैसे ही प्रेस आयोग बेचार अयोग्य की तरह भौकता रहता है और मीडिया आपना सही गलत सब काम करता रहता है। मीडिया रूपी हाथी पर प्रेस आयोग रूपी कुत्ते के भौकने का कोई फर्क न तो पड़ा है और न उसे बिना कोई ताकत दिए पड़ने वाला है।
लोकपाल में भी यही होने जा रहा है। हमारे देश के नेता या अधिकारी या कोई भी जो भ्रष्टाचार करना चाहे करता रहेगा और लोकपाल से कहेगा भाई साहब हम तो आपको कुछ नहीं देंगे अरे हम तो आपको मेरा मतलब तुमको कुछ नहीं समझते हैं। तुम क्या कर लोगे मेरा। भौकोंगे भौको। हमें जो करना है हम कर लेंगे।
क्या हम ६४ साल से इसी तरह के लोकपाल का इंतजार कर रहे हैं। क्या सिविल सोसाइटी ने इसी तरह के बिल के लिए प्रयास कर रही है। क्या काम करने के लिए केवल आंखे चाहिए। ऐसे कई सवाल हमारे दिमाग में उठा सकते हैं। हमें कैसा लोकपाल चाहिए। निश्चय ही ऐसा नहीं जैसा प्रस्ताबित है।