रविवार, 14 दिसंबर 2008

जो सवाल मैंने नही पूछा

जो सवाल कभी मेरे दिमाग में नही आया
वही सवाल कल मुझसे पूछा जाएगा
पापा, आपके किस नम्बर की प्रेमिका की औलाद हूँ मै
यह सवाल सहज ही पूछा जाएगा।
कितने प्रेम किए, कितने में सफल हुए,
अभी कितनों से प्यार किया जाएगा।
बहुत हराम के बच्चे हैं जहाँ में ,
उनमे से किसे तुम्हारा कहा जाएगा.
तुम सफ़ेद वस्त्र पहन कर निकलते हो
सदा तुम्हारा जयकार किया जाएगा
जो सवाल अभी मेरे दिमाग में नही है ,
वही सवाल कल मुझसे किया जाएगा।

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

क्या दवा बनाई है आप ने

कांग्रेस के पास हर एक मर्ज की दवा है। जुकाम से लेकर एड्स तक की। खास बात यह है कि सभी बिमारिओं की दवा एक ही है। इसे रामबाण कहना चाहिए। इससे सारी बीमारियाँ दूर हो जाती है।
आपको पता है आतंक के दर्द को कम करने की दवा क्या है। नही जानते। चलो सर्वरोग ज्ञाता कांग्रेस से पूछते हैं। वाह...वाह क्या दवा बनाई है। बता देता हूँ क्या दवा है--- जनता को हीरो और हीरोइनों में या क्रिकेट में उलझा दो। वह सारे गम भूल जायेगी। चाहे वह गम आंतकवादी वारदातों का हो या किसानों की आत्महत्या का।

रविवार, 30 नवंबर 2008

क्या चाहते हो?

फूल खिलने से पहले ही मुरझा जाए
उस बाग के माली क्या चाहते हैं।
अपने ही घर में हम सहमें रहें
इस घर के मालिक क्या चाहते हैं।
वारदातें होती रहें और लोग मरते रहें
इस देश के नेता क्या चाहते हैं।
जले सारा देश आतंकवाद की आग में
हमारे नीतिनिर्माता क्या चाहते हैं।
अभी तक जितने मरे इन वारदातों में
उनसे भी अधिक क्या चाहते हो
कुछ नही चाहते हैं।
चाहोगे भी तो क्या चाहोगे?
अपनी कुर्सी के लिए वोट चाहोगे
वोट के लिए एक दुसरे को लड़वाओगे
एक का पक्ष तुम और दुसरे का तुम्हारा विपक्षी ले लेगा
और कुर्सी Tअरह बची रहेगी
धिक्कार है तुम्हारी इच्छशक्ति की
कोई भी तुम्हारे घर में तुम्हे डरा जाता है
और तुम
" हम इसकी निंदा करते हैं "

किसका बाल-दिवस

चौदह नवम्बर को एक तस्वीर देखी
समाचार पत्रों में,
चाचा के साथ खड़े थे
कोट पहने तीन बच्चें
अखबारी दुनिया से
आठ बजे तक बाहर आया
सड़क पर मैला उठाते
एक बच्चा देखा
अब बताओ
यह बाल दिवस किसके लिए ?
नही समझे
अरे भाई
कोट वालों के लिए
और किसके लिए।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

असुरक्षित बच्चों का बाल- दिवस

१४ नवम्बर यानि की बाल दिवस। हां, १४ नवम्बर को बाल दिवस था। सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि बाल दिवस का अर्थ क्या है। हमरे देश में चाहे स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस, पर्यावरण दिवस या एड्स दिवस सभी महज एक खाना पूर्ति बन गए हैं। तो इसमे बाल दिवास अपने उद्देस को कैसे प्राप्त कर सकता है। यह एक गंभीर सवाल है।
भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गयी है की १४ साल से कम आयु के सभी बच्चों को शिक्षा मिलनी चाहिए। लेकिन आकडों पर नजर डाला जाए तो केवल मध्य प्रदेश में १६५ हजार बच्चे अपना छठा जन्मदिन भी नही मन पाते हैं। इसी राज्य में लगभग १२०० हजार बच्चें कुपोषण के शिकार हैं। इस स्थिति में देश की पहली प्राथमिकता कुपोषण को दूर करना होना चाहिए न कि शिक्षा कि व्यवस्था में सुधर की।
सुबह से लेकर शाम तक बच्चे छोटे छोटे होटलों में काम करते दिखाई देते रहतें हैं। हद तो तब हो जाती है जब नगर निगम की कूड़ा उठाने वाली गाड़ी पर छोटे छोटे बच्चे बैठ कर कूड़ा उठाने जाते हैं। कानून को लागु करने वाली सत्ता ही कानून का उल्लंघन सबसे ज्यादा करती है। बाल मजदूरी पर प्रतिबन्ध के बावजूद १०-१६ साल तक के बच्चों को सस्ती मजदूरी की दर पर लगा देता है। उन बच्चों के लिए बाल दिवस का क्या मतलब है यही पता लगना मुश्किल है। वैसे आज हमारे देश में बच्चे केवल बाल दिवस का अर्थ ही नही उन्हें स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस का भी मतलब नदारद टूर पर ही पता होता है। इसका मतलब उनके लिए केवल छुट्टी का दिन होता है।
आधुनिक विकास कि अंधी दौड़ में सब जगह अँधेरा ही अँधेरा है। मानवाधिकारों के हनन के मामले को देखा जाए तो सबसे ज्यादा ज्यादा हनन बाल अधिकारों का हो रहा है। घर से बाहर खेलने के लिए निकलना उनके लिए दूभर हो जाता है। जितना वजन एक बच्चे का नही होता है उससे ज्यादा वजन का बसता उसे उठा कर स्कूल जाना पड़ता है। स्कूल से वापस आने पर कोचिंग, कोचिंग के बाद स्कूल का होमवर्क । बस यही दिनचर्या बन जाती है बच्चों की। परीक्षा में कम अंक आने पर घरवालों की डाट-फटकर । इस सबसे ग्रसित हो कर बाल मन अपनी जीवनलीला को ही समाप्त कर लेना चाहता है और बहुत से बच्चे ऐसा कर भी डालतें है।
कभी यदि बच्चे खेलने निकल जाते हैं तो डर इस बात का बना रहता है कि वे किसी समस्या में न फस जाएँ। आए दिन संचार पत्रों में इस प्रकार की खबरें आती रहती हैं कहीं प्रिंस तो कहीं कोई और मन कि कभी कभार बच्चों को जीवित निकल लिया जाता है लेकिन क्या उनकी उस २४-४८ घंटे कि तड़प को समझा जा सकता है।
शेष फ़िर

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

आतंकवाद

देश में आतंकवादी वारदातें बढती जा रही हैं। आज इंदौर में तो कल अहमदाबाद में। दिल्ली हो या भोपाल सभी आतंकवाद के साये में जी रहे हैं। आतंकवादी वारदातों के बाद सक्रिय हुई देश की पुलिस तथा जाँच एजेंसियां आनन-फानन में दो- चार लोगों को पकड़ लेती हैं। इतने में ही उनके कर्तव्यो की इतिश्री हो जाती है।
ऐसा कब तक चल सकता है। इसके लिए देश की सरकार को चाहिए कि वह कोई कारगर कदम उठाये। सरकार का काम केवल यहीं तक सिमित न रह जाए कि वह बयान जरी कर दे। आतंकवादी मानसिकता के पीछे एक मानसिकता काम करती है। जिसका मानना है कि हमारे देश कि सरकार कोई उपयोगी काम नही कर रही है।
आयु-वर्ग में आतंकवादियों को देखा जाए तो युवा वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है। कहीं न कहीं यह वर्ग aपने भविष्य को लेकर बहुत ही ज्यादा परेशान रहता है। उसे कोई बिकल्प दिखाई न देने पर वह आतंकवाद की ओर चला जाता है। जहाँ उसे हर प्रकार की सुविधाएं दी जाती हैं। इसी के साथ उनके अन्दर देशविरोधी भावनाएं दल दी जाती हैं। पहले से ही गुस्साए इस वर्ग में यह काम बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।
एक व्यक्ति जिसे दिन में दो बार खाने को न मिले उसे देश प्रेम कितना होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। देश की जनसँख्या कहने को तो केवल २३ फीसद ही गरीब है लेकिन विश्व के मान दण्डों के आधार pr देखा जाया तो यह लगभग ७० फीसद है। सरकार के लिए सेज, परमाणु करार एक मुद्दा बन सकता है लेकिन गरीबी केवल घोषणा पत्र तक ही सिमित रहती है। जीवन जीने की मूल भूति आवश्यकता भी लोगों की पूरी नही होती हैं। कोई भी व्यक्ति उस स्थिति में अपनी जान को दांव पर लगाने को तैयार होता है जब उसे लगता है की सामने वाला उसे ख़त्म कर देगा या उसके अधिकारों का हनन करेगा।
हमारे देश की सरकार देश की कुल युवा शक्ति का जो कुल जनसँख्या का ५० फीसद है, निर्माण में नही लगा प् रही है। इससे वह विध्वंसक कार्यों में स्वत ही लग जाती है। आतंकवाद की शुरवात असंतोष से होती है। यह बात सही है की यदि आतंकवादी देश को बदलना चाहते हैं तो लोकतान्त्रिक रास्ता अपनाए। लेकिनऐसा प्रतीत होता है की उनका विश्वास लोकतंत्र में ही नही रह गया है।
विश्व समुदाय आज आतंकवाद कोई जड़ से मिटने की बात करता है लेकिन वह उसकी जड़ ही नही देखता हैं। बिना जड़ देखे उसे मिटाना संभव प्रतीत नही होता है। केवल कठोर से कठोर कानून बना देने से आतंकवाद का सफाया नही हो सकता है। कानून आतंकवादियों को काम लेकिन निर्दोष लोगों को ज्यादा परेशान करता है । वारदात को अंजाम देने वाले तो अपना काम करके चले जाते हैं। और उसके बाद लागु कर्फ्यू लोगों के लिए परेशानी का सबब बन जाते हैं। भारत, अमेरिका, इंग्लैंड जैसे लगभग ५० देशों में आतंकवाद के खिलाफ बहुत ही कठोर कानून है लेकिन वहन पर आतंकवादी वारदातें आज भी होती हैं।
विश्व से यदि आतंकवाद की समस्या को जड़ से मिटाना है तो उसे सभी के लिए समानता की व्यवस्था करनी पड़ेगी । बढती बेरोजगारी गरीबी और लोगों के अधिकारों का हनन जब तक जरी रहेगा टीबी तक अत्नाक्वाद को मिटा पाना संभव नही है। विश्व सन्ति की नीव सर्वस्व विकास में स्थित है। अता हम केवल कानून के द्वारा आतंवाद को समाप्त करने का स्वप्न नही देखना चाहिए। इसके विपरीत हमें कुछ सार्थक काम करना चाहिए।

रविवार, 28 सितंबर 2008

हाय-हाय

कुछ भी हो तो हाय होगा
अच्छा हो तो भी हाय
कोई मिले तो भी हाय
सब हाय-हाय करते हैं
दुनिया ही एक हाय हो गयी
कोई मरता है तो कहता है हाय
कोई मर जाता है तो सब कहते हैं हाय
हाय सुख भी, हाय दुःख भी
हाय ही सब कुछ है।
कोई मांग हो तो हाय
हड़ताल हो तो भी हाय
सब जगह हाय है
इसलिए तुम और हम अब
बस हाय-हाय हैं।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

हिन्दी दिवस

आख़िर हम हिन्दी दिवस क्यों मानते हैं? क्या इस दिन केवल हिन्दी को ही भारत के संविधान में स्थान दिया गया। आज माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यायल में '' भारतीय भाषा में एक अन्तर संवाद'' विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। इसमें जाने मने साहित्यकार एवं पत्रकार बालशौरी रेड्डी , मालती जोशी और रामदेव शुक्ल ने वक्तव्य दिए।
रामदेव शुक्ल ने एक कहानी सुनते हुए कहा की माना मैअपनी माता को बहुत अच्छी-अच्छी उपमाओं से संबोधित करते हैं लेकिन पड़ोस की अन्य महिलाओं को गली देते हैं। तो क्या हमें यह विश्वास करना चाहिए की हमारे पड़ोसी हमारी माँ को सम्मान करेंगे। जहाँ तक मेरा मानना है ऐसा नही होगा। ठीक यही हिन्दी की स्थिति है। यदि हम हिन्दी को ही सबसे अच्छी भाषा मान ले और अन्य भारतीय भाषा की आलोचना करें तो क्या गैर हिन्दी भाषी हिन्दी का सम्मान करेंगे। हिन्दी पूरे देश में बोली जाती है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जो त्रि भाषा सूत्र दिया था वह आज भी लागु होता है। हम हिन्दी भाषी लोगों को अपने दामन में झांक कर देखना चाहिए की हम कितनी भारतीय भाषा जानते हैं। हिन्दी और इंग्लिश (अंग्रेजी) को तो मिला कर हिंगलिश बना लेते है। तो हिन्दी और किसी भारतीय भाषा को मिला कर क्यों नही बना सकते है।
भारत में हिन्दी को राज भाषा कहा जाता है। लोकतंत्र को बहुत समय तक प्रजातंत्र कहा जाता था। ( कुछ लोग अभी भी इसका प्रयोग करते हैं।) राजा राज्य करता है। और उसी की प्रजा होती है। इसीलिए यदि हिन्दी को राज्य भाषा कहा जाए तो इसका मतलब यही मानना चाहिए की हिन्दी भाषी लोगों को लोकतंत्र का ज्ञान नही है। मेरा मानना है की हिन्दी को राज भाषा न मानकर लोकभाषा मानना चाहिए ।
भाषा का निर्माण कहाँ होता है। और कौन करता है आप उसे साहित्यकार या उसकी पुस्तक बता सकते हैं लेकिन हकीकत कुछ अलग ही है। इसका निर्माण वे करते हैं जिन्हें शायद भाषा शब्द ही पता न हो। मेरा मानना है की प्रत्येक हिन्दी भाषी को कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा को जरुर सिखाना चाहिए।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

काले-बादल


कभी देखकर तुम्हें मन मयूर हो जाता है,

कभी तेरे रूप से मन मायूस हो जाता है।

जब महीना सावन भादौं का हो,

तब तेरा रूप सिलोन लगता है।

आने से तेरे घर-घर में

खुशियों की बारिस हो जाती है।

पर देखा तुम्हारा यही रूप मुझे क्रोध बहुत ही आता है।

महीना चैत वैशाख का हो खेतों में सोना पड़ा रहे।

तुम उसे अपनी छाया में लेकर

मिटटी में मिला देते हो।

धिक्कार है उस भगवान को, जिसने तुम्हे बनाया होगा।

तेरा प्यार हमें कम ही मिलता है पर दुख ज्यादा ही होता है।

पर सर्व्सत्ताशायी हो तुम, इतना अन्याय मत करो

कर जोड़ विनती है हम सब की कुछ हमारा भी ध्यान धरो।

रविवार, 14 सितंबर 2008

तन्हाई

सबसे बाद में जो सताती है मुझे

उसे मैं केवल तन्हाई कहता हूँ।

प्यार के बाद दूर जाकर उदास रहने को

मैं केवल तन्हाई कहता हूँ।

अकेला रहना यादों के सहारे

मेरे लिए तन्हाई है।

चश्मा जब ठहर जाए मिलने से पहले तो

इसे मैं तन्हाई कहता हूँ।

तवील रास्तों में कोई न मिले तो

तन्हाई ही हमारे साथ चलती है।

तनही के रूप अनेक

हर एक में है तन्हाई

इसीलिए मैं तनहा हूँ यहाँ

और तुम तनहा हो वहाँ।

ट्रेन छूटने तक


तुम्हारे हाथ को हिलते देखने के लिए

मैं खड़ा रहा

ट्रेन छूटने तक।

आज भी जब कोई ट्रेन गुजरती है

मैं खड़ा होकर उसे देखता रहता हूँ

गुजर जाने तक ।

आशा लगाये रहता हूँ कि

किसी दिन तुम आओगी उसी ट्रेन में

लेकिन वक्त ऐसे ही निकल जाता है

तुम्हें याद करते-करते ।

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

ओलम्पिक में मिले पदक- भारत के लिए गर्व या शर्म

चीन में वर्ष २००८ के अगस्त में खेल महाकुम्भ ओलम्पिक का आयोजन किया गया । सुखद बात यह रही कि इस आयोजन में भारत को व्यक्तिगत स्पर्धा में एक स्वर्ण पदक तथा दो रजत पदक मिले। भारत के १०८ साल के ओलम्पिक इतिहास में पहली बार किसी को व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक नसीब हुआ है। प्रशन यह उठता है कि आख़िर अभी तक भारत में किसी को व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक प्राप्त क्यों नही हुआ?

जहाँ तक मेरा मानना है वह यह है कि इसके पीछे सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। वर्ष २००५-०६ में ४३८.९९ करोड़ रुपये का बजट खेल के लिए प्रस्तावित किया गया था। लेकिन ३८६.१० करोड़ ही स्वीकृत किया गया। यही हालत २००६-०७ की भी रही। इस साल ४५७.२० करोड़ ही दिया गया वह भी यह rashtra मंडल खेलों की तैयारी के लिए है। कहने को तो २००७-०८ में ७०० करोड़ का प्रावधान किया गया है जिसमें से २३७.५१ करोड़ राष्ट्र मंडल खेलों तैयारी के लिए है ।

भारत में राष्ट्रीय खेल का आयोजन हर दो साल पर किया jaanaa था। लेकिन ऐसा नही है। पिछले साल असम के गुवाहाटी में हुए ३३वे तथा हैदराबाद में हुआ३२वे राष्ट्रीय खेल में ५ साल का अन्तर था। इसी तरह ३० वें और ३१ वें राष्ट्रीय खेल में तीन साल तथा २८वेन और २७ वें राष्ट्रीय खेल में ७ साल का अन्तराल रहा । भारत में राष्ट्रीय खेल कभी पास हुआ है कभी फेल। ऐसी स्थिति में भारत के लिए यह पदक क्या हैभारत में खेल का आधार ही कमजोर है। वर्ष १९८४ में बने भारतीय खेल प्राधिकरण के तहत जिला स्तर की हर प्रतियोगिता के लिए ३० हजार तथा राज्य स्तर की हर एक प्रतियोगिता के लहै रुपयों का प्रावधान किया गया है ही ऊट के मुह में जीरे के सामान है। खेल प्रशिक्षकों की संख्या देखी जाए तो भारत में एक जिले के लिए केवल ३ प्रशिक्षक ही है । ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिंद्रा तथा कांस्य पदक जीतने वाले सुशील और विजेंद्र ने यह स्पष्ट कर दिया की भारत में आज भी प्रतिभा की कमी नही है। कमी है तो उन्हें एक दिशा देने वालों की। भारत के किसी भी जिले में खेल prashikshakon की संख्या बहुत ही कम है।

ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव विन्द्रा तथा कांस्य पदक जीतने वाले सुशील और विजेंदर कुमार ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत में भी प्रतिभा की कमी नही है, कमी है तो उन्हें एक दिशा देने वाले की। भारत के किसी भी जिले की यह हल नही है कि वहां की खेल संस्था ठीक ले काम कर सके। खिलाड़ियों को जीतने के बाद तो पैसों से तौल दिया जाता है परन्तु जब वह तैयारी कर रहे होते हैं तब उन्हें अर्थाभाव से गुजरना पड़ता है। बीजिंग ओलम्पिक की तैयारी कर रहे खिलाड़ियों को मात्र ७५००० रुपये प्रति खिलाड़ी मिले थे। वह भी पुरी तैयारी के लिए। ऐसी स्थिति में भारत के खेल की क्या दशा होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। भारत यदि इग्लैंड में होने वाले ओलम्पिक में कुछ करना चाहता है तो उसे चीनी माडल अपनाना चाहिए। तथा खिलाड़ियों को सभी प्रकार की सुबिधा मुहैया करवाना चाहिए। जिससे पदक जीतने के बाद यह कोई न कहे कि इसके लिए मुझे इतने रुपये लगाने या खर्च करने पड़े।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

गुरु

अंकित कर मेरे अवगुण तुम
दिए प्रकाश विवेक स्वरूप
मैं अनजान रहा रवि की किरणों से
वह किरण आप ने दिखलाई
पढ़ा करके पाठ ज्ञान शील एकता
हम सबमें एक नई ज्योति जगाई
अन्धकार मय मोहित जग में
मै फसता ही जाता था
पाकर के स्नेह आप का
मैंने कुछ किरणें हैं देखा
बस यही कमाना है मेरी -२
यह रूप हमेशा बना रहे
हम जैसे नव आगंतुक को
एक छाया हमेशा मिलाती रहे।

ऐसे भी हैं लोग

हाय! कितने दिन बीत गये
बिना भोजन किए
चारों तरफ़ पानी है, पर
बिना पानी के।
मै छत पर खड़ा रहा
कई दिनों तक
इस उम्मीद में की
इन्द्र थोड़ा दया कर दें
एक के ऊपर एक सामान रखता गया
लेकिन अब हाय! कैसे बचूं ........... ।

सोमवार, 19 मई 2008

क्योंकि जिन्दगी इसी का नाम है.

जीतना ही जिन्दगी का नाम नही होता है,
हार कर भी खुश रहना हमारा काम होता है।
दूसरों को छल कर बहुत धनवान होते हैं
खुशी का इक लफ्ज भी उन्हें दुश्वार होता है।
हार गए यदि सारे दांव, छल गया तुमको संसार
खुश होकर अब रहना सीखो,
डरने से अब क्या काम
देखे बहुत है जहाँ में इन्साँ को
सभी तन्हा, सभी उदास नजर आते हैं।
बहुत है जो इक बाजी हारने के बाद हार मै लेते हैं।
दूसरे इसे जितने को उत्सुक नजर आते हैं।
उनके लिए हारना और जीतना ही जिन्दगी है
क्योंकि यही हार और जीत ही जिन्दगी का नाम है।

महगाई

कहो जी, क्या हल है।
घर में तो सभी खुशहाल हैं।
फ़िर भी तोरी की तरह क्यों खस्ता हाल है।
पगार बढने को सुनकर तो चेहरा बड़ा लवलीन था
फ़िर क्यों आज यह सुखाया फूल है।
किसान कहते हैं, मजदुर कहते हैं,
या यूं कहे कि सभी कहते हैं
जो अपना व्यवसाय करते हैं।
सरकार तुम्हारी पगार बढाये
हम अपनी बढा लेगे
फ़िर महगाई का रोना क्या रोना
चाहते क्या हो धनवान होना न
सो तो हो गए
अब पैसा क्या करोगे रखकर
अरे भाई! महगाई है उसे खर्च देना
जैसे थे वैसे ही रहोगे।

वह मुझसे बहुत प्यार करती है

आयु कोई दो साल होगी। लगाव इतना कि पूछिये मत। बात किसी और कि नही मेरे घर के बगल में रहने वाली लडकी मुस्कान। जिसे हम सभी प्यार से मुक्कू कहते हैं। जब उसका जन्म हुआ तब तक मुझे इस शहर में आये मुश्किल ले दो महीने हुए थे।

सभी का प्यार करने का अंदाज अलग-अलग होता है। मैं उसे जितना मारता हूँ उतना ही प्यार भी करता हूँ। वह मार खाने के बावजूद मेरे पास ही रहती है। लेकिन खाने की कोई वस्तु किसी को नही देती है। मुझे भी। उस दिन पता नही उसके दिमाग में क्या बात आई कि वह सेब का एक टुकडा लेकर मेरे घर आ गई। उस समय मेरी माँ भी मेरे पास आई हुई थी। उसने सेब को लेकर आते ही मेरी माँ से कहा" उमेथ भइया " मैं किसी काम से बाहर गया हुआ था । माँ ने कहा दिया वह बाहर गए हैं क्यों?

वह इसे समझ तो नही सकी पर खड़ी रही। मेरे पिता जी भी घर पर ही थे। माँ ने कहा "मुक्कू इसे मुझे दे दो" फ़िर उसने कहा" नही भइया " उसे इतना विश्वास दिलाने की कोशिश की गयी कि मैं तुम्हारे भइया को दे दूंगी। परन्तु वह नही मानी। अंत में माँ ने कहा अच्छा रख दो जब भइया आयेंगे तो खा लेगें। वह ख़ुद बेड पर चढकर एक आलमारी पर रख देती है । लेकिन मेरे माता-पिता को नही देती है। उसे इस बात का विश्वास ही नही था कि ये उन्हें दे देगें। उसे वह मुझे देना चाहती थी, मगर क्या करे। बाद में उसने मुझसे कुछ कहा तो नही परन्तु उसका चेहरा देखकर मैं समझ गया कि वह मुझसे नाराज है। उसकी नाराजगी दूर करने का उपाय यही है ही कि उसे गोद में उठा लो। मैंने उसे उठा लिया और वह खुश हो गयी।

कृषक की दास्तान

कर्जों के तले दबे पहले से ही हैं भगवन
आप ने यह क्या शितम ढाया है
कोई मेरे दुःख का तो साथी नही था
आप पर ही तो हमें विश्वास था ।
छः महीने से -छः महीने से इंतजार था
घर में आनाज आएगा,
हमें भी एक दिन गम से निजात मिलेगा।
महीना चैत का और गेहूं खेत में पके हैं।
घर में एक दाना नही है
और यह
बेवक्त बारिस का कहर
क्यों ढाया है आपने
सच है
विपत्ति में आप भी हमारे नही हैं।
आप तो ऐसे नही थे
फ़िर क्यों किया यह विश्वासघात
हमें आपहिज क्यों बना दिया
इसीलिए कि हम बेबस हैं न ।

ये कैसा लोकतंत्र

आओ एक झुनझुना बजायें
आजादी का गीत गाकर
अपने मन को संतोष दिलाएं। आओ....... ।
सरकारें बदलती रही कुर्सी वही रही
जनता के उपर पुलिस भी मेहरबान रही।
कैप्टन हों या बादल दोनों नेता ही हैं।
पुलिस उनकी लाठी और जनता भैस है
अपना हक मांगना, और न मिलाने पर रोष करना
उनके लिए गलत बात है
नेता जी बोले चुनाव के समय -
महिला देश का आधार हैं,
लोकतंत्र में उनकी अलग पहचान है
सरकार हमारी होगी तो कष्ट दूर तुम्हारे होंगे
पर हाय
सरकार तो बन गई बादल की
और हमें झुनझुना दे दिया
कह दिया
बच्चों बजाना मना है।
अधिकार संविधान में है
पर
मांगना मना है।

रविवार, 18 मई 2008

घर के चिराग से लगी आग

घर कि स्थिति ख़राब होने पर घर का ही दीपक उसे जलाने में कोई कोर-कसार नही छोड़ता है। खाक का एक ढेर बना कर वह इस बात पर खुशी जाहिर करता है कि मुझमें चींटी की जैसी ताकत होने पर भी हाथी को मार दिया । जब बात चींटियों के सरदार के अमले का हो तो बात ही कुछ और ही है। उपर से सरकार मेहरबान नीचे से जनता का सम्मान। भला और क्या चाहिए मुझे अपने काम को अंजाम देने के लिए।

आये दिन सरकार नशीले पदार्थों के व्यापार को रोकने के लिए बनती है। कानून बनाकर उसकी धज्जियाँ उड़ना भी उसे अच्छी तरह से आता है। कानून बनने वाले अपने को कानून का बाप समझाते हैं और कानून को अपना बेटा। अर्थात मैं इससे बड़ा हूँ तो क्यों न इस पर शासन करूँ। अकाली दल के एक नेता ने जिस प्रकार से हेरोइन को एअरपोर्ट पर ले जा रहा था और पकड़ा गया। यह अनुमान लगाया जा रहा हैं कि वह करीब २२किलो ७५०ग्राम थी। अर्थात लगभग २२करोड रुपये की। यह बात अच्छी हैं कि उसे पुलिस वालों ने नही पकड़ा नही तो एक ही डाट मैं छोड़ दिए होते। ये वही नेता महाशय हैं जो विधानसभा में इस बात पर जब बिपछ में होतें हैं तो सरकार की आलोचना करते हैं।

कभी-कभी ऐसा लगता हैं कि अवैध नशीले पदार्थ का व्यापार करने में राजनेता के प्यारे ज्यादा ही उत्सुक हैंसंइया भइल कोतवाल, अब डर कहे का।" इस बात को सार्थक सिद्ध करना उनके बाएं हाथ का खेल लगता हैं। आखिर कब तक घर का ही चिराग घर को जलाएगा। जहाँ तक इस देश के बार में मैंने समझा हैं वह यह हैं कि यहाँ अगर किसी बात को खुली छोड़ दी जाए तो शायद वह रुक सकती हैं।

एक बार मेरे गाँव में एक जादूगर जादू दिखाने आया था। मंगलवार का दिन था। बाजार लगी हुई थी। मै अपने एक अध्यापक महोदय के साथ गया था। सभी लोग वहां बच्चों से कह रहे थे पीछे-पीछे और पीछे हटो। बच्चें आगे बढते जा रहे थे। ये महोदय पहुचते ही कहा और आगे बढो। बच्चे पीछे लौटने लगे। मुझसे रहा नही गया। मैंने पूछे लिया आखिर आप आगे बढने को क्यों कहा रहे हैं। उन्होंने बताया कि ये सोच रहे हैं कि लोग हमें आगे बढने से मना कर रहे हैं कि आगे कोई डर नही हैं। इन बातों का उल्टा असर अधिक होता हैं। इसीलिए आगे बढने को मैंने कहा था। इस बात को मै कई जगह पर सत्य होते देख चुका हूँ।

मैं सोचता हूँ कि अगर इस पर से भी सरे बंधनों को हटा दिए जाए तो शायद नशीले पदार्थों का कारोबार कुछ लोग ही करेगें और अधिकतर इससे बच सकते हैं। कम से कम हमारे नेता तो इस मुहावरे से निजात पा ही जायेगे कि "Ghar का ही चिराग घर को जला रहा हैं।"


गुरुवार, 15 मई 2008

याद आ गयी

तेरे इस रूप यौवन को देखा ही था कि
मुझे मेरी प्रेमिका याद आ गयी।
जब कभी तुमसे बातें हुई तो
उसके साथ हुई बातें याद आ गयी।
निकलता हूँ जब कभी कालेज के लिए
तेरी मुलाकात से उसकी मुलाकात याद आ जाती है।
चाहता बहुत हूँ भूल जाऊ उसे पर
भुलाने के बहने वह याद आ गयी।
कभी-कभी तो तुमको मुझसे गुस्सा होना
मुझे उसके रूठने की याद दिला जाती है।
जब तुम मुझसे बहुत दूर होती हो तो
दिल की तस्वीर में चेहरा देखा तुम्हारा और वह याद आ गयी।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

नारी तेरी महिमा

हे देवताओं की देवी मह्देवी! तेरे चरणों में मेरा भी स्थान बने। लड़का लडकी बने। लडकी लड़का बने। लडकी दूल्हा बन कर आये और लड़का रोता हुआ जाये। मैं घर का काम करू और तुम दुनिया का काम करो। मुझे चाहे गुलाम कहो या जोरू का गुलाम लेकिन मुझे अपने चरणों में दे दो पनाह।


हे कानून के निर्माता! देश के भाग्य विधाता! लड़कों पर भी जरा रहम तो कर दो। हमें भी संसार की आजादी का लुफ्त तो उठाने दो। क्यों हमे जोरू का गुलाम बना रहे हो। सभी से आजाद होकर भी हम स्त्रियों के गुलाम हैं। घर में रहना है तो चरणों को धोकर सीता के राम को पीना है।

हे नारी! दुनिया के शासनकार- तेरा शासन है संसार में। हमको तो लूट लिया है अपने वालों ने। गोरे-गोरे गालों ने काले-काले बालों ने। अब आप हमें लूटे न। सरदार की तरह यह कह दें कि ऐ गाँव वाले मर्दों जो तुम्हारे पास हो उसे इज्जत से निकल कर मुझे दे दो अन्यथा मै तुम्हें हवालात के अंदर करवा दूंगी। आज के कानून के आगे हम भीगे चूहे की तरह आप के आगे आ जायेगें फिर जो मर्जी करो।


हे जन्मदायिनी माता! तुम माता भी हो पत्नी भी हो, बहन और भाभी भी हो। तुम्ही भाग्य की निर्माता भी हो और हमें हवालात पहुचने वाली भी। हम तो तेरे गुलाम हैं सदियों से यह मत समझो कीआज से हम तो उस कुत्ते के समान के हैं जो घर की रखवाली करे और खाना न खाए। हे लेडी तुम चाहे लात से मरो चाहे गाली दो । मै हाथ नही उठाऊगा क्योंकि तुम मालिक हो और मैं आपक गुलाम।


हे विधि के निर्माता! एक और कानून मत बना देना। महिला आरक्षण में हमen निरक्षर न बना देना हम तो आप के दया के पात्र हें तुम जेसा चाहो कानून बनाओ हम न नही कर सकते हैं।हम विरोध नही कर सकते हैं। तुम भी तो देवी की पूजा करती हो वाही विरोध कर सकती है। मगर कैसे? तुम तो उन्हीं के पक्षधर ही हो।

हे संविधान के निर्माता! तुम्हारी भी गलती कहें तो हम खुद ही गलत हैं। आज चौराहों पर बेचारे निर्दोषों को पीट रहे हैं। क्योंकि एक लडकी ने उसे मारा था वह भी सड़क पर तो हम तुम्ही से गिला-शिकवा करें। हम तो अपने से भी नही कर सकते हैं। जब महारानी को दुनिया सुन रहा है तो इसे एक पुस्तक में लिखने में कोई बुराई नही है। तुम भी सही ही हो।


हे अबला! अब तुम्हारी कहानी बदल रही है। अब तो tumhaare अंचल में दूध नही वह तो क्या है हमें खुद ही नही मालूम है। तुम अब अबला कहाँ हो तुम तो अब मर्दों को भी पीछे पीछे छोड़ रही हो अबला तो अब मर्दों को कहे। अब उनके अन्दर इतनी ही क्षमतानही है कि वह आप से बराबरी कर सके ।

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

दुनियादारी

जंगल का राजा इक दिन बोला


आज मुझे है सैर पर जाना


घर में रहना महल, में सोना ,


मुझको नही सुहाता है

मैं भी दुनिया देखूं भला


मेरी बात न जाये टाली


राजा के yaron ने इसका बिरोध किया


राजा ने सबको यह समझाय दिया


तुमको भी दुनिया देखने का

ऐसा मौका न जाय चला


हम सबको धन देकर


दुनिया का सैर कराउगा

राजा की बातों को सुनकर


कुछ ने सोचा की मेरा काम बना


इसी बहाने धन की तो


आने की है राह बना


भेज दूंगा किसी और को


तो क्या मेरा जाएगा


बदले में सैर नही पर


धन का भंडार भर जायेगा।

सब तेरा है

दुनिया में सब तेरा है

बस आँख उठा कर देखो तो

तू ही महान, तू ही दयावान

तू ही है सब का आसमान

लेकिन इस दुनिया में हमने

तेरे कई रुप हैं देखे

कहीं प्यार, कहीं तकरार

कहीं ये दोनों हैं ख़बरदार

अत्याचार बढे दुनिया में

हाथ तुम्हारे कभी न कापे

दुनिया में आने से पहले

तुने ही है मार दिए

धन्य नारी! तेरी ये महिमा

तुझमें अब दुनिया का रहना

रोओगी अपनी करनी पर

पानी नही तुझे है मिलना।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

जो सभी को चाहता है।

अपनी बाँहों में भरने के लिए
उतावला खड़ा है
अपनी बाँहों को फैलाये
स्वागतम कह रह है
तुम उससे प्यार करो या न करो
पर
वह तुम्हारा सच्चा प्रेमी है
आज नही तो कल
वह तुमसे जरूर मिलेगा
पर
कोई निश्चित स्थान नही
तुमसे मिलने के लिए
तुम्हारे घर भी आ जाएगा
बिना पते का ही
रास्ते में भी मिल सकता है
फिर
प्यार से उठा कर साथ ले जाएगा
अपने घर को
और तेरा आदर-सत्कार
वह खूब करेगा।

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

उत्साहित मन से तुम्हें पुकार लू


सभी मस्त है तुम्हे चूम लू


आ आज पूरे दिल से


तुमसे मुहब्बत कर लू


तू दूर जा रही है


तेरा आज मैं स्वागत कर लू


कल सभी नये सूर्य का स्वागत करेगें


सभी हैप्पी न्यू इअर कहेगें और


तुझे भुलाना चाहेगें


इसलिए


ओ दूर जाने वाले


तेरे लिए दो बूंद आसू गिरा लू


इस जिन्दगी में तू अब मिलेगा नही


बस एक याद ही छोड़ जाएगा


एक बार फिर तेरे गले लग लूँ


आ आज मैं तेरा स्वागत कर लूं।