सोमवार, 21 अप्रैल 2014

आओ खेती करें


अब आप सोच रहे होंगे
क्या पागलपन है।
अच्छा खासा पढ़ा-लिखा है
फिर इसे क्या पड़ी है
खेती करने की।
किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो
लगता है इसे भी आत्महत्या करनी है।
दोस्त!
यह खेती खेतों में नहीं
दिमाग में होगी
फल-फूल नहीं
बातें उगेंगी
बेवकूफ बनाने की खेती होगी।
बजट के अनुसार
कोई लागत नहीं है
शिक्षा के अनुसार
कोेई जरुरत नहीं है।
जरुरत केवल जुगाड़ की है।
अब बताओ खेती करोगे मेरे साथ

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

चुनाव और बयान

चुनाव हो और भाषण न हो। ऐसा कभी हो सकता है। भाषण भी विकास को लेकर हो। क्या इससे चुनाव जीता जा सकता है या अपने विरोधी का षिकस्त दिया जा सकता है। नहीं न। तो। तो क्या ऐसा बयान दो कि मीडिया पागल हो जाए और बात चुनाव आयोग तक चली जाए।
अब आज़म खां को ही लिजिए। कारगिल में केवल मुसलमानों ने युद्ध जीता। हिन्दु वहां थे ही नहीं। हो गयी न बात। मीडिया कैसे नहीं इस बात को बढ़ती। पूरा खेल तो मीडिया में बने रहने का है। थोड़ा सा भी आप मीडिया से बाहर हुए कि आपकी राजनीति पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं। खैर कारगिल कौन जीता यह तो सब जानते हैं लेकिन बेचारे आज़म खां चुनाव प्रचार से ही हार गए। अब वे चुनाव प्रचार भी नहीं कर पा रहे हैं तो चिट्ठी का सहारा ले रहें हैं। बात जो अपनी कहनी है। मैं चुनावी बयानों को एक-एक करके आपके सामने रखूगां। इसलिए आज के लिए केवल एक बयान ही काफी है। पढ़ो और मजा लो। चुनाव का मौसम है न।

    

रविवार, 13 अप्रैल 2014

बाबा बनने के लिए

यार! अपना खर्च चलाना मुष्किल हो रहा है। रोज का आना रोज का जाना हो गया है। महीना मुष्किल से गुजरता है। अब आषाराम बापू की अकूत संपत्ति को देखकर मन को एक नया आयाम मिल रहा है। धर्म का धंधा सबसे चंगा। सोच रहा हूं धर्म को अपना धंधा बना लूं। इसी के लिए यह प्रतिवेदन आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। विचार आमंत्रित हैं। लेकिन केवल सकारात्मक या इस धंधे को आगे बढ़ाने वाले ही विचार हों। साथ ही यदि कोई सहयोग हो सकता है तो बहुत ही उत्तम है। हमारे इस धंधे में जुड़ने के लिए सहयोग राषि की जरुरत नहीं है, कुछ अनुदान से ही काम चल जाएगा। आर्थिक अनुदान नही ंतो भौतिक ही सही। भौतिक भी न हो तो आपकी उपस्थिति से ही काम चल जाएगा। बस अपने साथ कुछ भक्त लेते आओगे तो हमें अच्छा लगेगा।
आइए अब हम अपनी योजना का खुलासा करते हैं। कहा भी गया है कि किसी भी कार्य को करने के लिए उचित योजना का होना आवष्यक है। इसीलिए हम धर्म के धंधे को सफलता के षिखर पर पहुंचाने की योजना बना रहे हैं। कुछ बना भी चुके हैं। जो बना चुका हूं उन्हें आपके सामने परोस रहा हूं। मेरी योजना के मुताबिक पहले कुछ ‘महान बाबाओं’ साक्षात्कार लेना है। इन बाबाओं की फेहरिस्त में आषाराम बापू, निर्मल बाबा जैसों को ही शमिल किया गया है। जो छूट गए हैं उनसे माफी चाहता हूं। वे अपना नाम मुझे ईमेल कर सकते हैं। शर्त केवल यह है कि वे महान हों। जैसे ये दिए गए नाम हैं। 
वैसे मुझे साक्षात्कार देना अच्छा नहीं लगता है। गुप्त बात यह है कि आज तक कोई मेरा साक्षात्कार लेने आया ही नहीं। तो सोचा साक्षात्कार लेकर ही काम चला लेता हूं। योजना के अनुरुप ही मैंने आषाराम से संपर्क गांठा और मुलाकान भी हो ही गयी। आजकल आषाराम बाबा को खोजना बहुत आसान हो गया है। क्योंकि मीडिया उनकी पल-पल हर पल की खबर देता रहता है। बाबा जी से मुलाकात हुई तो मैंने पूछा-‘‘बाबा कैसे बना जाता है?’’ आषाराम थोड़े सोच में पड़ गए। फिर अपने बीते दिनों को याद करते हुए बोले-‘बच्चा! बाबा बनने के लिए आपको चमत्कार करना होगा। ऐसा चमत्कार जो आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडिएट’ में चतुर रामालिंगम राजू ने किया है।’’ मैं कुछ समझ नहीं पाया। अब मुझे एहसास हुआ कि फिल्में भी बाबा बनने के लिए देखना आवष्यक है। बाबा मेरी विवषता को समझते हुए अपनी बातों को स्पष्ट किया। जो बाबा ने कहा मैं आप से साझा नहीं कर सकता हूं। क्योंकि यह व्यवसायिक गुप्त बात है। अपनी रणनीति को चाहे वह किसी भी क्षेत्र की हो उजागर नहीं करना चाहिए। इसीलिए मैं आपको नहीं बता रहा हूं। पहली ही मुलाकात में बाबा ने अपने जैसे कईयों के नाम बता दिए जो आज मजे की जिन्दगी काट रहे हैं। साथ ही सफलता के नुस्खे भी हमारे सामने रख दिए। 
अब आपकी राय आपेक्षित है।
भारत का एक भावी
बाबा

आज भारतीयों की सादगी दिखी

हमारे देश में  नया साल दो बार आता है
एक धूम धमाके के साथ
और एक सादगी के साथ
पहले वाला नया साल आयातित है
दुल्हन है
इसलिए तो उस दिन खूब धूम धड़ाका होता है
और दूसरा
अपने देश का
वैसे आज भी आम भारतीय सादगी पसंद है
बाजार की चमक  गावं अभी बचे हैं
लेकिन कब तक
कोई इसे घर की मुर्गी दाल बराबर कह सकता है
पर मै तो इसे देश की महानता मानता हु
आपका क्या विचार है 

सोमवार, 31 मार्च 2014

आओ आज गम्भीर चिंतन करें

बहुत दिनों के बाद सोच रहा हु आज कुछ गम्भीर सोचु
लेकिन किस विषय में सोचु
कुछ मिल नहीं रहा है
राजनीती पर सोचने से पहले ही सोच
विचार आ जाता है कि
यह तो गंदे नाले से भी ज्यादा गन्दी हो गयी है
आरोप प्रत्यारोप और गली गलौच
राजनीती का विषय हो गया है
गरीबों के बारे में सोचने पर पता चलता है कि
उन पर तो पहले से ही गरीबों के ठेकेदारों ने कब्ज़ा जमा रखा है
केवल अपनी ठेकेदारी के वास्ते
शिक्षा के बारे में सोचने पर पता चलता है कि
यह तो महज पास होने के लिए हो गयी है
येन केन प्रकारेण परीक्षा पास हुआ जाया
कहीं भी गम्भीरता से कोई काम होता नहीं दीखता है
केवल दिखावा है
सब दिखावा है
निज स्वार्थ अपना हित है
इसी के लिए लोग आम और खास आदमी बन जाते हैं

आखिर कब तक चलेगा यह खेल

पंचायत का फैसला। सामूहिक दुष्कर्म। आरोप। जांच। दण्ड की मांग। पीड़िता से मिलना। पीड़िता के लिए कुछ मुवावजे की घोषण। परिवार के लोगों को सुरक्षा। प्यार जुर्म हो गया है। सामुहिक दुष्कर्म उस जुर्म को खत्म करने का तरीका। कुछ ऐसा ही कारनामें करती हैं हमारे देष की खाप पंचायतें। उच्चतम न्यायालय ऐसी पंचायतों पर रोक लगाती है लेकिन पुलिस कुछ कर नहीं पाती है। आखिर कब तक चलेगा यह गंदा खेल। कब तक हम इंतजार करते रहेंगे अगले षिकार की। जब किसी लड़की के साथ दुष्कर्म होता है तो हमें याद आती हैं धाराएं, कानून। उसके पहले हम इंतजार करते रहते हैं अगले षिकार होने वाली की।
देष में ऐसे ही कम दुष्कर्म के मामले आते हैं क्या। जो पंचायतें भी इस काम को आगे बढ़ाने में लगी हुई है। समझ में नहीं आता है कि ये पंचायते होती किस लिए है। लोगों के रक्षण के लिए या भक्षण के लिए। जहां तक मैंने आज तक पंचायतों की खबरों को पढ़ा या सुना है रक्षण या समाज के उत्थान की एक भी खबर मुझे आज तक पढ़ने को नही मिली है। केवल मिलती है तो सजा की। पंचायत नहीं अदालत हो गयी है। सारे फैसले कर लेती है। सजा भी वह जो मानवता के ही खिलाफ हो। कभी अपने नवजात बच्चे को फेंकने का आदेष तो कभी सामूहिक दुष्कर्म की सजा। मुझे हरिषंकर परसाई जी का वह व्यग्ंय याद आता है जिसमें कहा गया कि शादी करने से जाति है बच्चे पैदा करने से नहीं। ठीक वैसे ही प्यार करने से मुंछ नीची होती है समाज की, दुष्कर्म करने से तो पुरुषत्व का पता चलता है। पंचायतें वैसे भी पुरुषवादी होती हैं। खासकर के खाप पंचायतें। यहां महिलाओं को किसी भी तरह का अधिकार नहीं है चाहे वह संविधान प्रदत्त हो या समाज प्रदत्त। यहां केवल वे एक उत्पाद हैं जिसे समाज के तथाकथित ठेकेदार जैसा चाहें फैसला सुना सकते हैं।
दिल्ली दुष्कर्म के बाद से देष में वैसे भी दुष्कर्म के मामलों की बढ़त होती सी लगती है। आए दिन समाचार पत्रों में इससे संबंधित खबर जरुर होगी। ऐसा लगता है कि इसके बिना समाचार पत्र बन ही नहीं सकते हैं। जरुरी भी है। जहां तक हो पाता है पुलिस दबाने की कोषिष तो करती है लेकिन एक बार मीडिया में जब बात आ जाती है तो पुलिस भी थोड़ा सजग दिखने लगती है। एक सर्वे के अनुसार भार में हर 5 में से 1 महिला के साथ दुष्कर्म होती है। फब्तिया ंतो लगभग हर महिला पर होती है। कोई भी महिला इससे बच नहीं पाती है। यह मानसिक दिवालियपन नहीं है पंचायतों को और क्या है।
हाल की घटना किसी और प्रांत की नहीं ऐसे राज्य की है जहां की मुख्यमंत्री भी एक महिला ही है। पष्चिम बंगाल की है। सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं सरकार में आकर भी अपने लिए एक सुरक्षात्मक कानून नहीं बना सकती है। महिलाओं को आरक्षण लोकसभा और विधानसभा में दिया जाता है जिससे कि उनका प्रतिनिधित्व हो सके। पंचायतों में तो 50 प्रतिषत तक आरक्षण दिया गया है लेकिन क्या वे इसका उपयोग कर पाती है। सही तरीके से कहना तो बेइमानी होगी। मुझे नहीं लगता है कि विधायिकाओं मेें महिलाओं का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भी वे भारत की महिलाओं का
प्रतिनिधित्व कर पाती है। राजनीति में आने के बाद वे तो सुरक्षित हो जाती हैं और चिंता होती है तो केवल अपनी कुर्सी की। जिस काम के लिए उनका चुनाव किया जाता है वह कुर्सी पर आकर खत्म हो जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि महिलाओं को कैसे सुरिक्षत किया जा सकता है।
सामाजिक दिवालियापन के मामलों में लगातार वृद्धि होती जा रही है लेकिन हमारे देष के तथाकथित समाजषास्त्री इस पर मौन हैं। इस समस्या से कैसे निपटा जाए तथा लोगों में जागरुकता कैसे लाई जाए इस पर कोई भी शोध करने उनके लिए गवारा हो गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन तथा समस्याओं से निपटने के लिए समाजषास्त्रियों के पास कोई उपाय नहीं मिलता है। वे केवल इसे मानसिक विक्षप्तता मान लेते हैं। आष्चर्य की बात यह है कि हमारे देष में उच्च षिक्षा में शोध का प्रवधान किया गया है लेकिन वह केवल खानापूर्ति के लिए होते हैं। सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए गहन शोध की आवष्कता है। आज हालत ऐसी हो गयी है कि बिना मर्ज का पता लगाए है दवा दी जा रही है। कानून पर कानून। एक और कानून। लेकिन समस्या जस की तस। आखिर इतने कानून के बावजूद भी समस्या वैसे ही बनी हुई है इससे यही माना जा सकता है कि या तो लोगों को कानून का कोई डर नहीं है या समस्या को सही तरीके तरीके से समझने की कोषिष नहीं की गई। केवल वातानुकूलित कमरे में बैठकर कानून बना दिया गया और उसे समाज पर थोप दिया गया जो वास्तविक समस्या से कोई सरोकार नहीं रखता है।
जहां तक मेरेी समझ है समस्या का सही तरीके से जाना ही नहीं गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन पर कोई शोध ही सही तरीके से नहीं किया गया है। विष्वविद्यालय अनुदान आयोग सेमिनार, परिचर्चा जाने किस किस चीज के लिए पैसा देती है लेकिन कोई महत्व की बात नहीं निकल रही है। इसके पीछे कौन जिम्मेदार है। लोग वहां केवल प्रमाणपत्र और खाना खाने के लिए आते हैं। इसके इतर और किसी चीज से किसी का कोई सरोकार नहीं होता है। सबकुछ महज खानापूर्ति। ऐसे में तो कितने भी कानून बना लिए जाए समाज की समस्या का समाधान कर पाना संभव नहीं है। जब तक कि इस पर गहन विचार विमर्ष न किया जाए तथा इसका कोई रास्ता निकाला जाए। आज समय समाज के मनोविज्ञान को समझने का है। चाहे वह खाप पंचायत के संदर्भ में हो या किसी और समस्या के संबंध में।
उमेष कुमार

रविवार, 30 मार्च 2014

भारत भाग्य विधाता

खूब पढ़ लिया हमने
जन गण मन अधिनायक जय हे 
भारत भाग्य विधाता 
समझ नहीं आया अब तक भी 
है कौन हमारा भाग्य विधाता 
५ साल में एक बार जनता बनती भाग्य विधाता 
बाकी समय कौन है भाग्य विधाता 
लोकतंत्र की ही महिमा है 
देव कभी याचक तो 
याचक कभी देव बन जाते हैं। 

शनिवार, 22 मार्च 2014

क्या छपता है अखबारों

आज जब मैं अखबारों के पन्ने पलट रहा हूं
सुबह के सात बज रहे हैं
कि
अचानक एक पृष्ट पर मेरी नजर रुक जाती है
बुन्देलखण्ड जागरण
पूरा पृष्ट देखा
पूरा बुन्देलखण्ड देखा
एक नया राज्य बनने को आतुर बन्देलखण्ड
पूरे पृष्ट पर कहीं भी नहीं था विकास
कहीं भी नहीं थी
पानी, बिजली, सड़क जैसी मूलभूत समस्याएं
कहीं भी नहीं था किसानों के हितों की बातें
बुन्देलखण्ड जागरण में केवल अपराध था
पृष्ट पर लगभग 15 खबरें हैं
जिनमें से 11 खबरें
हत्या, मौत, मारपीट
लडाई, दंगा और लूटपाट की
सवाल यह नहीं कि अखबार में क्या छपा है
सवाल यह है कि क्या बुन्देलखण्ड ऐसा ही राज्य बनने जा रहा है
क्या इसे एक राज्य का रुप देेने में लगे लोग ऐसा ही बुन्देलखण्ड बनाना चाह रहे हैं
क्या रानी लक्ष्मीबाई ऐसे ही बुन्देलखण्ड के लिए शहीद हुई थी
इन सब सवालों के अन्दर जाने पर हमें दिखाई देती है
एक वेदना
जो कहा रही है
बुन्देलखण्ड वीरों की धरती है
चोरांे, लुटेरों की नहीं

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

यह यह चुनावी साल है

 भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्यौहार है
यह चुनावी साल है
सज गया है चुनावी मैदान
कुछ  परेशान तो कुछ हैरान हैं
यह चुनावी साल है
लाल परेशां हैं अपने ही सागो से
मोदी की जय जय कार है
केजरीवाल आप के साथ थे
और आप के साथ हैं
लोकपाल का पता नहीं
बाकी सारा काम है