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सोमवार, 25 मई 2015

मोदी जीरो तो राहुल...

मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में हुआ है और संसदीय सीट अमेठी है. यह सर्व विदित है की रायबरेली कांग्रेस का गढ़ रहा है. इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी जहाँ रायबरेली से संसद रही है या रह चुकी हैं वहीँ राहुल गाँधी अमेठी से संसद हैं. आजादी के बाद यदि कुछ समय को छोड़ दिया जाए तो गाँधी परिवार ही यहाँ से सत्ता में रहा है. फिर भी वो कौन सी मजबूरियां हैं जो राहुल गाँधी को आज भी झुग्गी बस्तियों में जाने के लिए मजबूर कर रही है. क्या भारत में कभी कांग्रेस का शासन नहीं रहा है. या उत्तर प्रदेश में कभी कांग्रेस सत्ता में नहीं रही है. नहीं इसे सही नहीं कहा जा सकता है. उत्तर प्रदेश और केंद्र दोनों जगह पर कांग्रेस ने सत्ता संभाली है. लेकिन फिर भी उनके अपने क्षेत्र का विकास न होना क्या प्रदर्शित कर रहा है.
अप्रैल २०१५ में जब मैं अपने घर जा रहा था तो ३५ किलोमीटर की यात्रा को ४ घंटे में पूरा किया था. रायबरेली से जायस महज ३५ किलोमीटर की दुरी पर स्थित है. इसका अर्थ यह नहीं की मैं पैदल जा रहा था. यह यात्रा बस से की गयी थी. सड़क पर गड्डे हैं या गड्डे में सड़क है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल काम है. जायस और रायबरेली एनएच पर स्थित हैं. यदि इसकी यह स्थिति है तो बाकि जगहों के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. जहाँ मेरा घर है उस गांव या उसके आसपास कोई साल के चार महीने जुलाई से ओक्टुबर  में बीमार हो जाए और उसे अस्पताल ले जाना हो तो मरीज रास्ते में ही भगवान को प्यारा हो जायेगा. सड़क के नाम पर केवल गड्डे हैं और उसमे हमेशा पानी भरा रहता है. १०८ हो या कोई और वहां तक पहुँच पाए यह संभव नहीं है.
यदि यह कहा जाए की कांग्रेस अमेठी और रायबरेली की जनता को भेड़-बकरी समझती है तो दुःख नहीं होना चाहिए. पुरखों की फसल को ही राहुल और सोनिया आज काट रही हैं. मैं कहीं भी देश के किसी भी हिस्से में जाता हु तो लोगों का एक ही सवाल होता है कि आपका क्षेत्र को बहुत विकसित होगा. क्या बताऊँ उन्हें? विकास के नाम पर कुछ भी नहीं है वहां. पिछले ११ साल से राहुल गाँधी वहां के संसद हैं लेकिन क्षेत्र में जाते कब हैं यह बड़ा सवाल है. चुनाव में इस बार जाना पड़ा था. क्योंकि ओवरटेक की सुविधा नहीं थी. आप पार्टी के कुमार विश्वास और भाजपा की स्मृति ईरानी जो मैदान में थी. इसके पहले के चुनाव में तो कांग्रेस को ओवरटेक करने का पूरा मौका दिया जाता था. कोई भी पार्टी अपना ताकतवर नेता ही उस क्षेत्र से नहीं उतरती थी.
महज यह कह देने से कि हमारी सरकार नहीं है. क्या आप बच जायेंगे. नहीं न. ११ सालों में आपने क्या किया है जब आपकी ही सरकार केंद्र में रही है. जहाँ तक मेरा मानना है अमेठी और रायबरेली देश के उन पिछड़े हुए जिलो में शामिल होने लायक भी नहीं हैं जहाँ बुनियादी सुविधाए भी उपलब्ध न हो. कांग्रेस को अगर अपनी यह सीट बचाए रखनी है तो उसे काम करना पड़ेगा नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब यह सीटें भी हाथ से निकल जाए.

लोगों को एक बार बेवकूफ बनाया जा सकता है हमेशा नहीं. कभी न कभी तो जागरूकता आएगी ही. धोखा ज्यादा दिन नहीं चलता है. 

सोमवार, 31 मार्च 2014

आखिर कब तक चलेगा यह खेल

पंचायत का फैसला। सामूहिक दुष्कर्म। आरोप। जांच। दण्ड की मांग। पीड़िता से मिलना। पीड़िता के लिए कुछ मुवावजे की घोषण। परिवार के लोगों को सुरक्षा। प्यार जुर्म हो गया है। सामुहिक दुष्कर्म उस जुर्म को खत्म करने का तरीका। कुछ ऐसा ही कारनामें करती हैं हमारे देष की खाप पंचायतें। उच्चतम न्यायालय ऐसी पंचायतों पर रोक लगाती है लेकिन पुलिस कुछ कर नहीं पाती है। आखिर कब तक चलेगा यह गंदा खेल। कब तक हम इंतजार करते रहेंगे अगले षिकार की। जब किसी लड़की के साथ दुष्कर्म होता है तो हमें याद आती हैं धाराएं, कानून। उसके पहले हम इंतजार करते रहते हैं अगले षिकार होने वाली की।
देष में ऐसे ही कम दुष्कर्म के मामले आते हैं क्या। जो पंचायतें भी इस काम को आगे बढ़ाने में लगी हुई है। समझ में नहीं आता है कि ये पंचायते होती किस लिए है। लोगों के रक्षण के लिए या भक्षण के लिए। जहां तक मैंने आज तक पंचायतों की खबरों को पढ़ा या सुना है रक्षण या समाज के उत्थान की एक भी खबर मुझे आज तक पढ़ने को नही मिली है। केवल मिलती है तो सजा की। पंचायत नहीं अदालत हो गयी है। सारे फैसले कर लेती है। सजा भी वह जो मानवता के ही खिलाफ हो। कभी अपने नवजात बच्चे को फेंकने का आदेष तो कभी सामूहिक दुष्कर्म की सजा। मुझे हरिषंकर परसाई जी का वह व्यग्ंय याद आता है जिसमें कहा गया कि शादी करने से जाति है बच्चे पैदा करने से नहीं। ठीक वैसे ही प्यार करने से मुंछ नीची होती है समाज की, दुष्कर्म करने से तो पुरुषत्व का पता चलता है। पंचायतें वैसे भी पुरुषवादी होती हैं। खासकर के खाप पंचायतें। यहां महिलाओं को किसी भी तरह का अधिकार नहीं है चाहे वह संविधान प्रदत्त हो या समाज प्रदत्त। यहां केवल वे एक उत्पाद हैं जिसे समाज के तथाकथित ठेकेदार जैसा चाहें फैसला सुना सकते हैं।
दिल्ली दुष्कर्म के बाद से देष में वैसे भी दुष्कर्म के मामलों की बढ़त होती सी लगती है। आए दिन समाचार पत्रों में इससे संबंधित खबर जरुर होगी। ऐसा लगता है कि इसके बिना समाचार पत्र बन ही नहीं सकते हैं। जरुरी भी है। जहां तक हो पाता है पुलिस दबाने की कोषिष तो करती है लेकिन एक बार मीडिया में जब बात आ जाती है तो पुलिस भी थोड़ा सजग दिखने लगती है। एक सर्वे के अनुसार भार में हर 5 में से 1 महिला के साथ दुष्कर्म होती है। फब्तिया ंतो लगभग हर महिला पर होती है। कोई भी महिला इससे बच नहीं पाती है। यह मानसिक दिवालियपन नहीं है पंचायतों को और क्या है।
हाल की घटना किसी और प्रांत की नहीं ऐसे राज्य की है जहां की मुख्यमंत्री भी एक महिला ही है। पष्चिम बंगाल की है। सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं सरकार में आकर भी अपने लिए एक सुरक्षात्मक कानून नहीं बना सकती है। महिलाओं को आरक्षण लोकसभा और विधानसभा में दिया जाता है जिससे कि उनका प्रतिनिधित्व हो सके। पंचायतों में तो 50 प्रतिषत तक आरक्षण दिया गया है लेकिन क्या वे इसका उपयोग कर पाती है। सही तरीके से कहना तो बेइमानी होगी। मुझे नहीं लगता है कि विधायिकाओं मेें महिलाओं का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भी वे भारत की महिलाओं का
प्रतिनिधित्व कर पाती है। राजनीति में आने के बाद वे तो सुरक्षित हो जाती हैं और चिंता होती है तो केवल अपनी कुर्सी की। जिस काम के लिए उनका चुनाव किया जाता है वह कुर्सी पर आकर खत्म हो जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि महिलाओं को कैसे सुरिक्षत किया जा सकता है।
सामाजिक दिवालियापन के मामलों में लगातार वृद्धि होती जा रही है लेकिन हमारे देष के तथाकथित समाजषास्त्री इस पर मौन हैं। इस समस्या से कैसे निपटा जाए तथा लोगों में जागरुकता कैसे लाई जाए इस पर कोई भी शोध करने उनके लिए गवारा हो गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन तथा समस्याओं से निपटने के लिए समाजषास्त्रियों के पास कोई उपाय नहीं मिलता है। वे केवल इसे मानसिक विक्षप्तता मान लेते हैं। आष्चर्य की बात यह है कि हमारे देष में उच्च षिक्षा में शोध का प्रवधान किया गया है लेकिन वह केवल खानापूर्ति के लिए होते हैं। सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए गहन शोध की आवष्कता है। आज हालत ऐसी हो गयी है कि बिना मर्ज का पता लगाए है दवा दी जा रही है। कानून पर कानून। एक और कानून। लेकिन समस्या जस की तस। आखिर इतने कानून के बावजूद भी समस्या वैसे ही बनी हुई है इससे यही माना जा सकता है कि या तो लोगों को कानून का कोई डर नहीं है या समस्या को सही तरीके तरीके से समझने की कोषिष नहीं की गई। केवल वातानुकूलित कमरे में बैठकर कानून बना दिया गया और उसे समाज पर थोप दिया गया जो वास्तविक समस्या से कोई सरोकार नहीं रखता है।
जहां तक मेरेी समझ है समस्या का सही तरीके से जाना ही नहीं गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन पर कोई शोध ही सही तरीके से नहीं किया गया है। विष्वविद्यालय अनुदान आयोग सेमिनार, परिचर्चा जाने किस किस चीज के लिए पैसा देती है लेकिन कोई महत्व की बात नहीं निकल रही है। इसके पीछे कौन जिम्मेदार है। लोग वहां केवल प्रमाणपत्र और खाना खाने के लिए आते हैं। इसके इतर और किसी चीज से किसी का कोई सरोकार नहीं होता है। सबकुछ महज खानापूर्ति। ऐसे में तो कितने भी कानून बना लिए जाए समाज की समस्या का समाधान कर पाना संभव नहीं है। जब तक कि इस पर गहन विचार विमर्ष न किया जाए तथा इसका कोई रास्ता निकाला जाए। आज समय समाज के मनोविज्ञान को समझने का है। चाहे वह खाप पंचायत के संदर्भ में हो या किसी और समस्या के संबंध में।
उमेष कुमार

सोमवार, 1 अगस्त 2011

बिन नैना जग सून


६४ साल से प्रताबित लोकपाल बिल के लिए अगर यह कहा जाये तो गलत बात है। देर से ही सही हमारी सरकार ने लोकपाल बिल तैयार किया है। यह अलग बात है कि इस बिल से कुछ होने जाने वाला नहीं है। यह तो केवल देखने वाला बिल है काम करने वाला नहीं। वैसे भी हमारे देश में दर्शक ज्यादा है कार्यकर्ता बहुत कम है। यह बिल भी दर्शक ही है। अर्थात इसे बहुमत मिल सकता है। लोकतंत्र में और क्या चाहिए केवल बहुमत उसके बाद आप ५ साल तक जो चाहे कर सकते हैं।
हमारे यहाँ ज्यादा तक बिलों को (जो सरकार या नौकरशाह पर प्रतिबन्ध लगाते हैं) मात्र आंखे दी जाती हैं। हाथ या पैर नहीं। अब मीडिया को ही लीजिये। प्रेस आयोग बनाया गया। उसे केवल भौकने की ताकत दी गयी काटने की नहीं। बेचारा आज भी मौके-बेमौके भौक लेता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। मीडिया गर्त में जा रही है तो जाये क्या किया जाये। सरकार ने प्रेस आयोग तो बना दिया है न। मीडिया पर अंकुश लगाये यह आयोग नहीं कहाँ हमारी मीडिया तो हाथी है हाथी। हाथी चली जाती है कुत्ते भौकते रहते हैं। वैसे ही प्रेस आयोग बेचार अयोग्य की तरह भौकता रहता है और मीडिया आपना सही गलत सब काम करता रहता है। मीडिया रूपी हाथी पर प्रेस आयोग रूपी कुत्ते के भौकने का कोई फर्क न तो पड़ा है और न उसे बिना कोई ताकत दिए पड़ने वाला है।
लोकपाल में भी यही होने जा रहा है। हमारे देश के नेता या अधिकारी या कोई भी जो भ्रष्टाचार करना चाहे करता रहेगा और लोकपाल से कहेगा भाई साहब हम तो आपको कुछ नहीं देंगे अरे हम तो आपको मेरा मतलब तुमको कुछ नहीं समझते हैं। तुम क्या कर लोगे मेरा। भौकोंगे भौको। हमें जो करना है हम कर लेंगे।
क्या हम ६४ साल से इसी तरह के लोकपाल का इंतजार कर रहे हैं। क्या सिविल सोसाइटी ने इसी तरह के बिल के लिए प्रयास कर रही है। क्या काम करने के लिए केवल आंखे चाहिए। ऐसे कई सवाल हमारे दिमाग में उठा सकते हैं। हमें कैसा लोकपाल चाहिए। निश्चय ही ऐसा नहीं जैसा प्रस्ताबित है।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

सवाल धर्म परिवर्तन का है जी!

धर्मपरिवर्तन का सवाल किसी के मन में क्यों उठता है इस बात को समझना तथा उन्हें दूर करना जरुरी है। एक साधारण सा आदमी अपना धर्म बदल लेता है। कुछ मामलों में इसे जबरदस्ती परिवर्तन माना जा सकता है कुछ में लालच को लेकिन सभी मामलों में ऐसा ही होता है यह सही नहीं है।
हमारे देष के नेताओं को किसी के दुःख दर्द की कोई परवाह नहीं है परवाह है तो केवल इस बात की कि हमारी राजनीति कैसे चलती रहे, हम समाचार में कैसे बने रहें। यह सही है कि देष में अब केवल धर्म परिवर्तन ही नहीं राष्ट्र परिवर्तन की बात भी चल रही है। केवल झण्डा फहरा देने से कोई भारत का अंग बन जाएगा तो इसे माना नहीं जा सकता है। कष्मीर के लोगों की क्या समस्या है उसे समझना तथा उस अनुसार उनकी परेषानियों को दूर करने की कोषिष होनी चाहिए। ‘‘राष्ट्रीय एकता यात्रा’’ में जितने लोगों ने भाग लिया में उस पर कोई सवाल न उठाते हुए केवल इतना कहना चाहता हूं कि वही लोग इस बात को वहां जाकर बिना किसी हो हल्ला किए वहां के लोगों के परेषानियों को समझें और इस पर विचार करें इसे कैसे दूर किया जा सकता है।
भाजपा या आरएसएस को धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए अगर कुछ करना है तो उसके लिए महाकुंभ का आयोजन करने की कोई आवष्यकता नहीं है। धर्म परिवर्तन करने वालों के मनोभावों को समझे तथा उनकी समस्याओं को दूर करने की कोषिष करें। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई भी साधारण मनुष्य सामान्य परिस्थितियों में अपना धर्म बदलना पसंद नहीं करता है। जहां तक मुझे लगता है धर्म परिवर्तन से पहले लोग को अपने भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में बहुत सोचना-विचारना पड़ता है।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

युवाओं के देश में युवाओं का स्थान

भारत युवाओं का देश है। हमारे देश में युवाओं की संख्या लगभग 56 प्रतिशत है जो दुनिया के सभी देशो से अधिक से अधिक है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन युवाओं की वर्तमान स्थिति क्या है और इनका भविष्य क्या होगा। देश केवल युवाओं से विकास की डगर पर आगे नहीं बढ़ सकता है इसके लिए आवष्यक है कि उन्हें सही दिशा-निर्देश मिले और अवसर मिले। अर्थशास्त्रीयों का मानना है कि जनसंख्या दुधारी तलवार की तरह होती है अगर उसका सही से इस्तेमाल नहीं किया जाता है तो वह इस्तेमाल करने वाले का भी गला काटने से हिचकती नहीं है। भारत के हाथ में यह जो तलवार है यह भारत को विकास के मार्ग पर आगे ले जाएगी या विनाश के गर्त में जाएगी इस पर विचार करने का समय आ गया है।
बेरोजगारी का अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि एक एमबीए करना वाला उत्तर प्रदेश में होमगार्ड के लिए आवेदन कर रहा तो एक बरेली से आईटीबीपी की भर्ती के लिए 410 सीटों के लिए लाखों लोग जा रहे हैं। एक चपरासी की भर्ती निकलती है तो उसके लिए भी सुशिक्षित लोग अपना आवेदन करने में नहीं हिचकते हैं। ऐसी कोई एक दो खबरें नहीं हैं कि उन्हें गिना जा सके देश में आए दिन ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं।
युवाओं के नाम पर तो भारत में चुनाव तक लड़ा जा रहा है। हर दल का अपना एक युवा संघ है जो युवाओं की बात करता है। आज ही नहीं इतिहास के हर कालखण्ड में ‘युवापन’ और ‘युवाजन’ की महत्ता को स्वीकार किया जाता रहा है। समाज ने इन्हें अपनी ताकत समझा है तो राज्य ने अपना हथियार और बाजार ने अपने व्यापार का मूल आधार। लेकिन कमोवेश सब ने इन्हें अपने एजेंडे के केन्द्र में रखा है। यह अलग बात है कि इनकी आवश्यकता, आकांक्षा और भावनाओं को कितना समझा गया, इनकी कितनी कदर की गई या फिर उनके लिए कितने प्रयास किये गये, ये सदैव सवालों के घेरे में रहे हैं। सभी तरह के संघर्षं, आंदोलनों और रचनात्मक प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले ये युवाजन हमेशा अपने वर्तमान के संकट और संत्रास के सबसे अधिक भोक्ता रहे हैं।
देश की इस युवा शक्ति को राजनीतिक दल एक हथियार के रुप में उपयोग करते हैं और अपना काम निकाल लेने के बाद उनकी समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। इस समस्या के लिए अगर किसी को जिम्मेदार माना जाता है तो वह हमारी शिक्षा व्यवस्था है। शिक्षा व्यवस्था को ही हमारे देश अधिकतर विद्वान, नेता, अधिकारी यहां तक की सभी जिम्मेदार मानते हैं। आखिर यदि शिक्षा व्यवस्था में इतनी कमी है तो उसमें सुधार क्यों नहीं किए जाते हैं। हकीकत तो यह है कि देश में रोजगार के अवसर भी कम हो रहे हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश राज्य विद्युत निगम का ही उदाहरण लें। इसने आपने आधे से अधिक पदों को खत्म कर दिया है। पंजाब में बिजली को ठेके पर दिए जाने की बात हो रही है। स्कूलों में शिक्षकों की जगह पैराशिक्षकों से काम चलाया जा रहा है तो विष्वविद्यालयों में अतिथि शिक्षकों से। रिटायरमेंट की अवधि 60 से बढ़ाकर 62-65 की जा रही है और दूसरी तरफ रोजगार के अवसरों को कम किया जा रहा है ऐसे में यह कहा जाए कि केवल हमारी शिक्षा व्यवस्था में कमी है तो सही साबित नहीं हो सकती है।
कहा जाता है ‘‘जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चलता है’’ तो हमारे देश की जवानी किस ओर जा रही है? इसका पता होना देश के नीति निर्माताओं के लिए आवष्यक है। अगर हम मध्य प्रदेश की बात लें तो अभी तक यहां केवल वृद्ध किसान ही आत्महत्या करते थे लेकिन अब युवा भी आत्म हत्या करने लगे हैं। अभी हाल ही में एक युवा मजदूर महू निवासी लगभग 24 वर्षीय रमेश कुमार ने अपने अंग को बेचने की पेश कश की। इन्दौर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी से कहा ‘‘सर मुझे आंख बेचनी और मैं कमजोर आंखे लगवा लूंगा।’’ जिस देश की जवानी अपने शरीर के अंगों को बेचने को तैयार उस देश का भविष्य क्या होगा यह तो आने वाला कल ही बताएगा। लेकिन यह तो तय है कि यदि यही हाल बरकरार रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आत्महत्या की महामारी वृद्धों से युवाओं को बहुत ही जल्द अपनी चपेट में ले लेगा।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

असुरक्षित बच्चों का बाल- दिवस

१४ नवम्बर यानि की बाल दिवस। हां, १४ नवम्बर को बाल दिवस था। सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि बाल दिवस का अर्थ क्या है। हमरे देश में चाहे स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस, पर्यावरण दिवस या एड्स दिवस सभी महज एक खाना पूर्ति बन गए हैं। तो इसमे बाल दिवास अपने उद्देस को कैसे प्राप्त कर सकता है। यह एक गंभीर सवाल है।
भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गयी है की १४ साल से कम आयु के सभी बच्चों को शिक्षा मिलनी चाहिए। लेकिन आकडों पर नजर डाला जाए तो केवल मध्य प्रदेश में १६५ हजार बच्चे अपना छठा जन्मदिन भी नही मन पाते हैं। इसी राज्य में लगभग १२०० हजार बच्चें कुपोषण के शिकार हैं। इस स्थिति में देश की पहली प्राथमिकता कुपोषण को दूर करना होना चाहिए न कि शिक्षा कि व्यवस्था में सुधर की।
सुबह से लेकर शाम तक बच्चे छोटे छोटे होटलों में काम करते दिखाई देते रहतें हैं। हद तो तब हो जाती है जब नगर निगम की कूड़ा उठाने वाली गाड़ी पर छोटे छोटे बच्चे बैठ कर कूड़ा उठाने जाते हैं। कानून को लागु करने वाली सत्ता ही कानून का उल्लंघन सबसे ज्यादा करती है। बाल मजदूरी पर प्रतिबन्ध के बावजूद १०-१६ साल तक के बच्चों को सस्ती मजदूरी की दर पर लगा देता है। उन बच्चों के लिए बाल दिवस का क्या मतलब है यही पता लगना मुश्किल है। वैसे आज हमारे देश में बच्चे केवल बाल दिवस का अर्थ ही नही उन्हें स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस का भी मतलब नदारद टूर पर ही पता होता है। इसका मतलब उनके लिए केवल छुट्टी का दिन होता है।
आधुनिक विकास कि अंधी दौड़ में सब जगह अँधेरा ही अँधेरा है। मानवाधिकारों के हनन के मामले को देखा जाए तो सबसे ज्यादा ज्यादा हनन बाल अधिकारों का हो रहा है। घर से बाहर खेलने के लिए निकलना उनके लिए दूभर हो जाता है। जितना वजन एक बच्चे का नही होता है उससे ज्यादा वजन का बसता उसे उठा कर स्कूल जाना पड़ता है। स्कूल से वापस आने पर कोचिंग, कोचिंग के बाद स्कूल का होमवर्क । बस यही दिनचर्या बन जाती है बच्चों की। परीक्षा में कम अंक आने पर घरवालों की डाट-फटकर । इस सबसे ग्रसित हो कर बाल मन अपनी जीवनलीला को ही समाप्त कर लेना चाहता है और बहुत से बच्चे ऐसा कर भी डालतें है।
कभी यदि बच्चे खेलने निकल जाते हैं तो डर इस बात का बना रहता है कि वे किसी समस्या में न फस जाएँ। आए दिन संचार पत्रों में इस प्रकार की खबरें आती रहती हैं कहीं प्रिंस तो कहीं कोई और मन कि कभी कभार बच्चों को जीवित निकल लिया जाता है लेकिन क्या उनकी उस २४-४८ घंटे कि तड़प को समझा जा सकता है।
शेष फ़िर

बुधवार, 17 सितंबर 2008

हिन्दी दिवस

आख़िर हम हिन्दी दिवस क्यों मानते हैं? क्या इस दिन केवल हिन्दी को ही भारत के संविधान में स्थान दिया गया। आज माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यायल में '' भारतीय भाषा में एक अन्तर संवाद'' विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। इसमें जाने मने साहित्यकार एवं पत्रकार बालशौरी रेड्डी , मालती जोशी और रामदेव शुक्ल ने वक्तव्य दिए।
रामदेव शुक्ल ने एक कहानी सुनते हुए कहा की माना मैअपनी माता को बहुत अच्छी-अच्छी उपमाओं से संबोधित करते हैं लेकिन पड़ोस की अन्य महिलाओं को गली देते हैं। तो क्या हमें यह विश्वास करना चाहिए की हमारे पड़ोसी हमारी माँ को सम्मान करेंगे। जहाँ तक मेरा मानना है ऐसा नही होगा। ठीक यही हिन्दी की स्थिति है। यदि हम हिन्दी को ही सबसे अच्छी भाषा मान ले और अन्य भारतीय भाषा की आलोचना करें तो क्या गैर हिन्दी भाषी हिन्दी का सम्मान करेंगे। हिन्दी पूरे देश में बोली जाती है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जो त्रि भाषा सूत्र दिया था वह आज भी लागु होता है। हम हिन्दी भाषी लोगों को अपने दामन में झांक कर देखना चाहिए की हम कितनी भारतीय भाषा जानते हैं। हिन्दी और इंग्लिश (अंग्रेजी) को तो मिला कर हिंगलिश बना लेते है। तो हिन्दी और किसी भारतीय भाषा को मिला कर क्यों नही बना सकते है।
भारत में हिन्दी को राज भाषा कहा जाता है। लोकतंत्र को बहुत समय तक प्रजातंत्र कहा जाता था। ( कुछ लोग अभी भी इसका प्रयोग करते हैं।) राजा राज्य करता है। और उसी की प्रजा होती है। इसीलिए यदि हिन्दी को राज्य भाषा कहा जाए तो इसका मतलब यही मानना चाहिए की हिन्दी भाषी लोगों को लोकतंत्र का ज्ञान नही है। मेरा मानना है की हिन्दी को राज भाषा न मानकर लोकभाषा मानना चाहिए ।
भाषा का निर्माण कहाँ होता है। और कौन करता है आप उसे साहित्यकार या उसकी पुस्तक बता सकते हैं लेकिन हकीकत कुछ अलग ही है। इसका निर्माण वे करते हैं जिन्हें शायद भाषा शब्द ही पता न हो। मेरा मानना है की प्रत्येक हिन्दी भाषी को कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा को जरुर सिखाना चाहिए।