सोमवार, 1 अगस्त 2011

बिन नैना जग सून


६४ साल से प्रताबित लोकपाल बिल के लिए अगर यह कहा जाये तो गलत बात है। देर से ही सही हमारी सरकार ने लोकपाल बिल तैयार किया है। यह अलग बात है कि इस बिल से कुछ होने जाने वाला नहीं है। यह तो केवल देखने वाला बिल है काम करने वाला नहीं। वैसे भी हमारे देश में दर्शक ज्यादा है कार्यकर्ता बहुत कम है। यह बिल भी दर्शक ही है। अर्थात इसे बहुमत मिल सकता है। लोकतंत्र में और क्या चाहिए केवल बहुमत उसके बाद आप ५ साल तक जो चाहे कर सकते हैं।
हमारे यहाँ ज्यादा तक बिलों को (जो सरकार या नौकरशाह पर प्रतिबन्ध लगाते हैं) मात्र आंखे दी जाती हैं। हाथ या पैर नहीं। अब मीडिया को ही लीजिये। प्रेस आयोग बनाया गया। उसे केवल भौकने की ताकत दी गयी काटने की नहीं। बेचारा आज भी मौके-बेमौके भौक लेता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। मीडिया गर्त में जा रही है तो जाये क्या किया जाये। सरकार ने प्रेस आयोग तो बना दिया है न। मीडिया पर अंकुश लगाये यह आयोग नहीं कहाँ हमारी मीडिया तो हाथी है हाथी। हाथी चली जाती है कुत्ते भौकते रहते हैं। वैसे ही प्रेस आयोग बेचार अयोग्य की तरह भौकता रहता है और मीडिया आपना सही गलत सब काम करता रहता है। मीडिया रूपी हाथी पर प्रेस आयोग रूपी कुत्ते के भौकने का कोई फर्क न तो पड़ा है और न उसे बिना कोई ताकत दिए पड़ने वाला है।
लोकपाल में भी यही होने जा रहा है। हमारे देश के नेता या अधिकारी या कोई भी जो भ्रष्टाचार करना चाहे करता रहेगा और लोकपाल से कहेगा भाई साहब हम तो आपको कुछ नहीं देंगे अरे हम तो आपको मेरा मतलब तुमको कुछ नहीं समझते हैं। तुम क्या कर लोगे मेरा। भौकोंगे भौको। हमें जो करना है हम कर लेंगे।
क्या हम ६४ साल से इसी तरह के लोकपाल का इंतजार कर रहे हैं। क्या सिविल सोसाइटी ने इसी तरह के बिल के लिए प्रयास कर रही है। क्या काम करने के लिए केवल आंखे चाहिए। ऐसे कई सवाल हमारे दिमाग में उठा सकते हैं। हमें कैसा लोकपाल चाहिए। निश्चय ही ऐसा नहीं जैसा प्रस्ताबित है।

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