शनिवार, 23 मई 2015

भारत निर्माणः गांधी और मोदी


विकासशील भारत को विकसित भारत बनाने के लिए आजादी से पूर्व से ही विचार-विमर्श किया जाता रहा है। समय-समय पर इस दिशा में कुछ प्रयास भी किए गए। आज भी भारत के विकास के लिए प्रयोग ही किए जा रहे हैं। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी भारत का विकास किस प्रकार और किस दिशा में हो, यह निर्धारित नहीं किया जा सका है।
आजादी के बाद से देश की सभी सरकारें गांधी के विचारों के आधार पर भारत को विकसित करने की बात करती रही हैं। इसी कड़ी में वर्तमान केन्द्रीय सरकार भी प्रयासरत है। हमें गांधी के विकास प्रतिरुप और मोदी के के विकास प्रतिरुप की समीक्षा करनी चाहिए। गांधी का मानना था कि देश के लघु एवं कुटीर उद्योगों तक स्थापना हो तथा गांव अपनी आवश्यकता की पूर्ति स्वयं करें। वहीं मोदी का विचार इसके एकदम उल्टा है। मोदी का मानना है कि देश का विकास मेक इन इंडिया के द्वारा किया जाना चाहिए। मानवपूंजी आधारित रोजगार की आवश्यकता वर्तमान भारत में हैं। देश में बेरोजगारी की दर निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसे में डिजीटल इंडिया का सपना देश के विकास का प्रतिरुप नहीं हो सकता है।

कोई भी विदेशी कंपनी भारत के विकास के लिए काम करेगी। इसका कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। 16वीं शताब्दी में भारत में व्यवसाय करने के लिए आई ईस्ट इंडिया कंपनी के विषय में सभी जानते हैं। गांधी का विचार था कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से पहले हमें अपने देश में स्वयं का निवेश करना चाहिए। देश में छोटे-छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए जिससे हर नागरिक को काम मिल सके। बेरोजगारी व्यक्ति को केवल आर्थिक रुप से कमजोर नहीं करती है। यह व्यक्ति को अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए गलत कार्य करने को मजबूर करती है। वर्तमान समय में गांवों से लोगों का पलायन निरंतर जारी है। भारत के वास्तविक विकास के लिए गांवों से शहरों की तरफ हो रहे पलायन की बढ़ती गति पर लगाम कसने की आवश्यकता है। पलायन को रोकने के लिए खेती एवं पशुधन को सम्पन्न और लाभकारी बनाना अत्यन्त आवश्यक है। इसका कारण यह है कि गांवों में संपन्नता और खुशहाली का आधार खेती और पशुध नही होता है। शहरों की तरफ के पलायन को रोकने के लिए यह भी आवश्यक है कि गांवों केा इस तरफ से विकसित किया जाए कि सभी को यथा उपयुक्त कार्य अपने आसपास ही उपलब्ध हो सके। मेक इन इंडिया  कार्यक्रम पलायन की प्रावृत्ति को और बढ़ावा देने वाली साबित होगी।
गांधी का विचार था कि देश में स्वदेशीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। हमें अपने उपयोग की वस्तुओं का निर्माण स्वयं करना चाहिए न कि किसी देश से खरीदना चाहिए। स्वदेशी अपनाने से जहां एक ओर हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत होगीं वहीं दूसरी ओर देश के नागरिकों को रोजगार की सुविधा उपलब्ध हो सकेगी। मोदी का विचार इसके एकदम विपरीत साबित हो रहा है। मेक इन इंडिया द्वारा नरेन्द्र मोदी देश को दुनिया के लिए खोल देना चाहते हैं। भारत में विदेशी कंपनियां आकर अपना व्यवसाय करें वर्तमान केन्द्र सरकार की यही नीति है। इसके लिए नियमों में भी पर्याप्त तथा आवश्यकता से अधिक लचीला बनाया जा रहा है। यह एक तरह से देश को बेचने की कोशिश कही जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। सरकार विदेशी कंपनियों के लिए जमीन तथा कच्चा माल उपलब्ध कराएगी। इसके एवज में देश के नागरिकों को रोजगार की सुविधा प्राप्त होगी। सवाल यह उठता है कि देश के नागरिकों को कैसा रोजगार प्राप्त होगा। जहां तक मेरा मानना है इससे केवल मजदूर वर्ग का निर्माण किया जा सकता है। जो विदेशी कंपनियों भारत में पैसा निवेश करेंगी उन्हीं के ही लोग नीति निर्माण का काम करेंगी। बाकी देश के सभी नागरिक मजदूरी करने को मजबूर हो जाएंगे।
विश्व में कोई भी ऐसा देश मेरी जानकारी में नहीं हैं जिसका विकास विदेशी कंपनियों ने किया हो। चीन का उदाहरण लें या जापान का। सभी देश स्वयं ही विकसित हुए हैं। इन देशों में विदेशों से पैसा नही ंके बराबर आता है तथा ये देश स्वयं दूसरे देशों में अपना पैसा निवेश करते हैं या अपने यहां का तैयार माल दूसरे देशों में भेजते हैं। विश्व के लगभग सभी विकसित देश भारत को विकसित करने के लिए भारत की ओर नहीं आना चाहते हैं। उनका एकमात्र मकसद इस विशाल जनसंख्या वाले देश भारत की बाजार पर कब्जा जमाना है। बाजार का अपना एक ही सिद्धांत होता है- जहां लाभ हो वहां निवेश किया जाए। यदि विदेशी कंपनियों को ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में लाभ की संभावना है तो यहां निवेश अवश्य होगा। सवाल यह उठता है कि क्या विदेशी कंपनियों को होने वाले लाभ से भारत के नागरिकों को कोई लाभ होगा।
भारत निर्माण से संबंधित विचारों के आधार पर यदि मोदी और गांधी के दृष्टिकोण की तुलना की जाए तो यह साफ परिलक्षित होता है कि गांधी मानव आधारित पूंजी के उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करते हैं और मोदी पूंजी आधारिता उद्योगों को बढ़ावा देना चाहते हैं। गांधी का मानना था कि ग्रामीण भारत के विकास के बिना देश का विकास संभव नहीं है। यह सही भी है। आज भी देश की लगभग 67 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है। केवल 33 प्रतिशत के विकास को विकास नहीं कहा जा सकता है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी यदि देखा जाए तो देश में गरीबी की स्थिति बनी हुई है। गरीबी बेरोजगारी का दुष्चक्र है। जहां बेरोजगारी होगी वहां गरीबी स्वयं आ जाएगी। पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था में मानव संसाधन का उपयोग कम करके तकनीकी तथा मशीनों का उपयोग ज्यादा किया जाता है। इससे जहां कम लोगों में अधिक काम किया जा सकता है वहीं लाभ भी अधिक होता है। ऐसी अर्थव्यवस्था उस देश के लिए अच्छी होती है जहां पर मानव संसााधन की कमी होती है। भारत में सौभाग्य से पर्याप्त मात्र में मानव संसाधान उपलब्ध है। यदि यह कहा जाए की मानव संसाधन केवल पर्याप्त मात्र में नहीं बल्कि अधिक है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
किसी भी देश की जनसंख्या दुधारी तलवार की तरह होती है। यदि उसका सही से उपयोग किया जाए तो देश के विकास का काम करती है और यदि गलत तरीके से उसका उपयोग किया जाए तो वह देश के विनाश के लिए काम करती है। भारत के नागरिकों को तब तक उचित रोजगार नहीं दिया जा सकता है जब तक मानव आधारित उद्योगों का विकास का विकास नहीं किया जाता। गांधी ने सूत कातने या सूती कपड़े के उपयोग की बात इसलिए नहीं कहा था कि देश में यह में अत्याधिक मात्रा में उपलब्ध बल्कि इसलिए कहा  था कि इससे देश के हर नागरिक को रोजगार के साथ ही साथ तन ढकने के लिए कपड़ा उपलब्ध हो सकेगा।

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