मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

ये मीडिया चाहती क्या है

माँ, बहन, बेटियों जैसी बच्चियां
आइटम गर्ल बनाई  जाती हैं
सुरक्षित होने का सूत्र बताने की जगह
सुंदर दिखने के नुख्से बताती है
आखिर ये मीडिया चाहती क्या है।
समाचार पत्रों के महिला विशेष पृष्ठ पर
खाना बनाना और घर सजाना बताया जाता है
न अर्थ की बात न निति की बात
बात केवल वेश-भूषे की होती है
आखिर ये मीडिया महिलाओ को
बनाना क्या चाहती है . 

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

पत्थर बनाने के सिवा

सोना सोना होता है
और
सोना सोना होता है
पत्थर से सोना बनता है
पर यहाँ तो
सोने से पत्थर बनता है
यह एक युग का अंत है
या
युग कि शुरुआत है
शायद नए युग की शुरुआत है
कितना कुछ तो झेल चूका है वह
भ्रष्टाचार, आत्याचार, दुराचार, व्यभिचार
बलात्कार, मारकाट
ये जितने "चार" और "कार" हैं
सब तो सह चूका है वह
आखिर अब बचा ही क्या है
पत्थर बनने की सिवा।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

कैसे सुधरेगी स्थिति


बीमारु राज्य। भारत में बीमारु राज्य का दर्जा कुछ राज्यों का तो अनायास दिए गए हैं और ही यह चलन नया है। बिहार, उत्तर प्रदेश राजस्थान और मध्यप्रदे आज के बीमार राज्य नहीं हैं। समस्या यह है कि इन राज्यों की सरकारें इसकी बीमारी का इलाज नहीं करना चाहती हैं।
अब उत्तरप्रदे को ही ले लिजिए। देश में एक साल में बर्ड फ्लू या एड्स या अन्य बीमारी से जितने लोग काल के गाल में नहीं समाते हैं उससे अधिक उत्तर प्रदे में दिमागी बुखार से मर जाते हैं। पिछले सात सालों में इस बीमारी से लगभग 4000 मौतें हो चुकी हैं और 19000 के आसपास इससे पीडि़त है। लेकिन इस पर तो कोई राजनीतिक दल या सरकार कोई ध्यान देती है और ही स्वयं सेवी संस्थाएं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सभी पार्टियों ने इस बीमारी से निजात दिलाने की प्रतिबद्धता अपने घोषणापत्रो में की है लेकिन चुनाव में यह एक मुद्दा नहीं बन सका है। स्वयं सेवी संस्थाएं तो स्वयं की सेवा के लिए ही बनाई गई हैं।
उत्तरप्रदे में स्वास्थ्य के लिए जो धन आवंटित होता है वह सीधे भ्रष्टाचार को चढ़ जाता है। 85000 करोड़ का राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाला इसी समझने के लिए बहुत है। इस घोटाले से संबंधित जांच जब आगे बढ़ती है तो ‘‘एक और मौत’’ हो जाती है। अभी तक इस जांच में 7 मौतें हो चुकी हैं। आखिर राज्य बीमार है तो मौत तो होंगी ही।
मध्यप्रदेश। राज्यगीत है- सबका दाता, दुःख का साथी, सुख का यह संदेश है, पिता की गोदी मां का आंचल अपना मध्यप्रदेश है। इसको तो सुनने के बाद दुष्यंत कुमार की ये लाइनें ‘‘यहां तो दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो चलें कहीं नया आशियाँ बनाएं’’ याद आता है। इस प्रदेश में जन्म के समय 1000 में 62 बच्चे मौत के शिकार हो जाते हैं। जबकि गोवा और केरल में क्रमशः 10 और 13 है। यही नहीं ‘‘हंगर रिपोर्ट’’ बताती है कि कुपोषण के सबसे ज्यादा मामले मध्यप्रदेश में ही हैं। यह राज्य कभी सुख का साथी बनेगा, ऐसा मुझे लगता नहीं है।
बीमार को दवा की जरुरत होती है। और साथ ही कुशल चिकित्सक की। खेद यही है कि एक राज्य ‘‘घोषणावीर शिव ’’ के हाथों में है जो अपने सिपहसलारों को मुंह मांगा वरदान देते हैं। तो एक ‘‘माया’’ के हाथ में है। कबीर दास ने कहा ही है ‘‘माया महा ठगिन हम जानी’’

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

फेसबुक से कुछ चुराया हुआ


अंकित कुमार

एक पैग में बिक जातें हैं, जाने कितने खबरनबीस,

सच को कौन कफ़न पहनता, ये अखबार न होता तो.

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प्रशांत कुमार


जब विज्ञापन देने वाले ही बादशाह हों तो कामगार लोग सिर्फ़ शांत उपभोक्ता हो सकते हैं समाचार का एजेंडा तय करने वाले सक्रिय लोग नहीं.

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संजय कुमार श्रीवास्तव

हमेशा समाज का बौद्धिक सोच वाले बुद्धिजीवी वर्ग ही दुविधाओं का समाधान करता था..परन्तु आज का तथाकथित बुद्धिजीवी कोई दांयीं ओर चलता है तो कोई बाँयीं ओर, और बाकी बचे हुए किसी धर्म या जाति विशेष से खुद

को जोड़ लेते हैं और फ़िर हमेशा उसी वर्ग के ही हितों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जबकि पूर्ण समाज की उन्हें कोई फिक्र नहीं होती..लोग ऐसे ढोंगी और पाखंडी समाज सुधारकों को दरकिनार कर दें तो आज की आधी समस्या स्वतः मिट हो जायेगी..

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आशुतोष शुक्ल


स्वामी अग्निवेश टीम अन्ना से अलग हो गए हैं.... कह रहें हैं कि अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर अलग हो रहा हूं...... कहीं इस अंतरआत्मा का नाम कांग्रेस तो नहीं...???

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सनद गुप्ता

ये सरकार सटक गई है....



अब आप ही बताएं क्‍या होगा इस देश का...मुझे समझ में नहीं आता कि आम आदमी के हक में फैसला लेने में सरकार को दिक्‍कत क्‍या है...आज सरकार ने साफ कहा कि अन्‍ना अनशन करते हैं तो करते रहें...किरण बेदी ने कहा कि कल सरकार हमारी बातें सुन रही थी लेकिन आज की मीटिंग में सरकार हमें डांट रही थी...अन्‍ना चाहते हैं कि हर विभाग सिटिजन चार्टर बनाए...सरकारी दफ्तरों में किसी काम को करने के दिन तय हों...यानि अगर आप जाति प्रमाण पत्र बनवाने जाते हैं तो इसमें कितने दिन का वक्‍त लगेगा...अगर तय मियाद के अंदर काम नहीं होता है तो जिम्‍मेदार अफ़सर की तन्‍ख़्वाह कटे...अब ये समझ नहीं आता कि आखिर आम आदमी जो रोज़-रोज़ अफ़सरशाही की चक्‍की में पिसता है उसे मुक्‍त करने में सरकार को क्‍या दिक्‍कत है...बड़ी शर्मनाक बात है कि सरकार आम आदमी की दुश्‍मन की तरह बरताव कर रही है..........

सोमवार, 1 अगस्त 2011

बिन नैना जग सून


६४ साल से प्रताबित लोकपाल बिल के लिए अगर यह कहा जाये तो गलत बात है। देर से ही सही हमारी सरकार ने लोकपाल बिल तैयार किया है। यह अलग बात है कि इस बिल से कुछ होने जाने वाला नहीं है। यह तो केवल देखने वाला बिल है काम करने वाला नहीं। वैसे भी हमारे देश में दर्शक ज्यादा है कार्यकर्ता बहुत कम है। यह बिल भी दर्शक ही है। अर्थात इसे बहुमत मिल सकता है। लोकतंत्र में और क्या चाहिए केवल बहुमत उसके बाद आप ५ साल तक जो चाहे कर सकते हैं।
हमारे यहाँ ज्यादा तक बिलों को (जो सरकार या नौकरशाह पर प्रतिबन्ध लगाते हैं) मात्र आंखे दी जाती हैं। हाथ या पैर नहीं। अब मीडिया को ही लीजिये। प्रेस आयोग बनाया गया। उसे केवल भौकने की ताकत दी गयी काटने की नहीं। बेचारा आज भी मौके-बेमौके भौक लेता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। मीडिया गर्त में जा रही है तो जाये क्या किया जाये। सरकार ने प्रेस आयोग तो बना दिया है न। मीडिया पर अंकुश लगाये यह आयोग नहीं कहाँ हमारी मीडिया तो हाथी है हाथी। हाथी चली जाती है कुत्ते भौकते रहते हैं। वैसे ही प्रेस आयोग बेचार अयोग्य की तरह भौकता रहता है और मीडिया आपना सही गलत सब काम करता रहता है। मीडिया रूपी हाथी पर प्रेस आयोग रूपी कुत्ते के भौकने का कोई फर्क न तो पड़ा है और न उसे बिना कोई ताकत दिए पड़ने वाला है।
लोकपाल में भी यही होने जा रहा है। हमारे देश के नेता या अधिकारी या कोई भी जो भ्रष्टाचार करना चाहे करता रहेगा और लोकपाल से कहेगा भाई साहब हम तो आपको कुछ नहीं देंगे अरे हम तो आपको मेरा मतलब तुमको कुछ नहीं समझते हैं। तुम क्या कर लोगे मेरा। भौकोंगे भौको। हमें जो करना है हम कर लेंगे।
क्या हम ६४ साल से इसी तरह के लोकपाल का इंतजार कर रहे हैं। क्या सिविल सोसाइटी ने इसी तरह के बिल के लिए प्रयास कर रही है। क्या काम करने के लिए केवल आंखे चाहिए। ऐसे कई सवाल हमारे दिमाग में उठा सकते हैं। हमें कैसा लोकपाल चाहिए। निश्चय ही ऐसा नहीं जैसा प्रस्ताबित है।

शुक्रवार, 10 जून 2011

घर से बाहर का विद्यार्थी जीवन

मुझे ३ साल की पढाई के लिए भोपाल आना पड़ा तो यह पता चला कि घर से बाहर का विद्यार्थी जीवन क्या होता है. वैसे मैं यहाँ केवल २ साल के लिए आया था पी.जी. करने लेकिन एम.फिल. के लिए एक साल और रुकना पड़ा. इन तीन सालों पर अगर एक किताब भी लिखी जाये तो शायद कम होगी. उपन्यास लिखने की जरुरत पड़ेगी. फिर भी मै अपने कुछ अनुभावों को इस लेख के माध्यम से आप सब के साथ साँझा करने की कोशिश करता हूँ.
घर के बहुत सारे नियम कानून होते हैं. कब सोना है, कब उठना है, कब खाना है, कब क्या करना है, कब क्या करना है. लेकिन भोपाल आकर मुझे इन सब बंधनों से छुटकारा मिल गया. यहाँ सारे नियम हमारे अपने बनाये होते हैं. मुझे कब क्या करना है. कहाँ जाना है, क्या नहीं करना है, क्या करना है.
रात में दोस्तों के साथ आइस क्रीम खाने जाना और रात को देर से वापस आने के अपने मजे होते हैं. इस बात की कोई चिंता नहीं होती है देर हो गयी तो घर पर डाट पड़ेगी. घर से फोन भी आता है तो दिन में ही आ जाता है जिससे फोन की भी कोई चिंता नहीं होती. घर से बाहर की पढाई के अपने मजे हैं. सच में याद आएंगे ये दिन.

गुरुवार, 9 जून 2011

विद्यार्थी जीवन – सबसे बड़ा अमीर और सबसे बड़ा गरीब

विद्यार्थी जीवन के अंपने फायदे और नुकसान होते हैं. मेरा विद्यार्थी जीवन लगभग समाप्त होने वाला है. और जब मै इसका मूल्यांकन करने की कोशिश की तो यही पाया की इसके फायदे ज्यादा और नुकसान कम रहे हैं. इस जिंदगी में न तो मै कभी गरीब हुआ और न ही कभी अमीर. हमेशा बराबर का मामला रहा है. १-५ तारीख तक पिता जी का भेजा हुआ पैसा आ जाता था और २० दिन मजे से बीत जाते थे उसके बाद शुरू होता था दोस्तों मांगने का सिलसिला. लेकिन सब की तो वही जिंदगी है और सब पप्पा छात्रवृत्ति पर ही तो निर्भर हैं. तो वह लोग भी थोडा-थोडा देते थे और उसके पहले ही एक सवाल पूछ लेते थे “कब दोगे” जिसका जबाब भी एक ही होता था “बहुत जल्दी” और वह बहुत जल्दी फिर वही १-५ तारीख के बीच में ही आता था.
पैसा आया और शुरू हुआ पार्टियों का दौर. २-४ दिन किसी अच्छे से होटल में खाना खाना. दोस्तों के साथ थोड़ी मस्ती. इस तरह से पता ही नहीं चलता था कि कब २० तारीख आ गयी. २० के बाद तो दिन काटता ही नहीं है. एक एक दिन एक एक साल के बराबर लगने लगता है क्योकि पैसा खत्म हो गया. दोस्तों की मेहरबानी शुरू हो गयी.
खैर विद्यार्थी जीवन के अपने ये मजे हैं. इन्हें किसी और जिंदगी में जीने के बारे में सोचा भी नहीं आ सकता है. क्योंकि उसके बाद तो शुरू होता है जिम्मेदारियो का दौर. जिसमे सभी की कुछ न कुछ अपेक्षा होती है. मम्मी-पापा चाहते हैं की बेटा अब काम करना शुरू करे तो क्या गलत चाहते हैं. लेकिन अभी बेटे पर मस्ती ही चडी हुई है तो वह क्या करे. आखिर स्टूडेंट लाइफ को इतनी जल्दी तो नहीं भुलाया जा सकता है.