शनिवार, 26 मार्च 2011
इस रंग बदलती दुनिया में
इन्सान कि नियत ठीक नहीं
निकला न करो तुम सज धज कर
इमान की नियत ठीक नहीं।
कुछ ऐसी ही नियत हमारे देश के नेताओ की हो गयी है। कोई भी इस हमाम में बचा नहीं है। सब के सब नंगे हो गये है। हमारे देश के प्रधान मंत्री को कुछ पता ही नहीं होता है कि क्या हो रहा है और सब अपनी अपनी गुल खिलते रहते हैं।
देश वासिओ! अब आपलोग भी अपनी नियत बदल लो या तो सजधज के निकलना बंद कर दो नही तो कब तुम्हारी इज्ज़त लुट जाएगी पता भी नहीं चलेगा।
शनिवार, 12 मार्च 2011
आखिर जनता ने ही उठा ही दी आवाज
मिस्र में जनता की आवाज को दबाने की जितनी भी कोशिश तत्कालीन सरकार ने कीआवाज उतनी ही बुलंद होती चली गई। नतीजा अब सब के सामने है। हुस्नी मुबारक को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा तथा साथ ही साथ देश निकाला भी मिला। वह जनता की ही आवाज थी जो इस करिश्में को कर दिखाई है। वही जनता अब अरब देशों में भी अपनी आवाज को उठा रही है। तो भारत की जनता कैसे पीछे रह सकती है। भारत के नागरिकों ने भी अपनी आवाज उठानी शुरु कर दी है। वह चाहे बहुत ही निचले स्तर से क्यों न हो। एक न एक दिन देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, लापरवाही, लालफीताशाही के खिलाफ जानता को अपनी आवाज उठानी ही थी। श्री श्री रविषंकर ने कह ही दिया है कि देश आज के नेतओं के बल पर नहीं चल सकता है। देश को जरुरत है ऐसे नेताओं की देश सेवा का केवल सपथ ने ले उसे कर दिखाने का जब्जा भी अपने अंदर विकसित करें।
मायावती शासित राज्य उत्तर प्रदेश में आखिर कर जनता ने अपनी आवाज को बुलंद कर ही दिया। बसपा के 54 विधायकों के उनके निर्वाचन क्षेत्र के नागरिकों ने ही रपट दर्ज कराने की मांग एक ऐतिहासिक पहलू बन सकता है। ऐसा भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार हो रहा है कि किसी राज्य के नागरिकों ने अपने ही चुने प्रत्याशी पर उंगली उठाई हो। इससे एक चीज जो सिद्ध होती है वह यह है कि देश की जनता और खास कर बिमारु राज्यों के रुप में जाना जाने वाला उत्तर प्रदेश की जनता अब अपने अधिकारों के लिए जाग उठी है। उसे यह हवा कहां से मिली इसका तो पता लगाना संभव नहीं है। लेकिन यह एक साकारत्मक पहल है।
उत्तर प्रदेश की जनता ने अपने जिन विधायकों पर उंगली उठाई है उनमें सभी के सभी सत्ता के विधायक हैं। सत्ताधारी विधायक सत्ता के नशे में यह भूल जाते हैं कि जनता ने उन्हें किस लिए विधानसभा या लोकसभा में भेजा है। शिकायतों में सबसे अधिक मुरादाबाद मंडल के विधायकों पर है दूसरे स्थान पर मेरठ मंडल के छह विधायकों पर जनता ने विरोध दर्ज कराया है।
जनता के इस विरोध को देखते हुए सरकार को चाहिए की वह अब ऐसा विधायक पारित करे जिससे जनता अपने निर्वाचित प्रत्याशी को वापस बुला सके। अगर सरकार जनता के इस रुख को नजर अंदाज करती है तो उसे इसके बहुत बुरे परिणाम भोगने पड़ सकते हैं। मायावती जहां प्रदेश के जिले-जिले में घूमकर अपनी छवि को सुधारने की कोशिश कर रही है वहीं इससे उनकी छवि और धुमिल होती जा रही है। अपने प्रवास के दौरान मायावती क्या दिखाना चाहती हैं यह तो उनके भ्रमण के बाद वहां पर घटित घटना से साफ नजर आता है। उनके जाने से पहले ही उस क्षेत्र में मीडिया और नागरिकों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है जहां उनका भ्रमण होना है। यह केवल जनता में दहशत पैदा करने का काम हो सकता है। इसका ताजा उदाहरण बुलान्दशाहर में देखने को मिला। मायावती अपने दौरे में बुलंदशहर गयी और वहां के प्रशासन ने उनकी सुरक्षा के इतने कड़े इंतजाम कर दिए कि "गीता बाल्मीकी" को अपनी जान गवानी पड़ गई। शहर में एक ओर मायावती के जिंदाबाद के नारे लग रहे थे और सीएम साहिबा तहसील के अभिलेख और अस्पतालों में मरीजों के हाल जानने के लिए जाने वाली थी। इसी ने अस्पताल की व्यवस्था में ऐसा परिवर्तन कर दिया कि आम नागरिक अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दे। अब ये मायावती हैं उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल तो हैं नहीं जो यह कह दें कि मेरे काफिले के लिए इतने प्रोटोकाल की आवश्याकता नहीं हैं। इन्हें तो केवल भूख है तो अपनी ताकत को दिखाने की उसकी कीमत चाहे जो हो।
2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में मायावती का प्रदेश दौरा उनकी छवि को कितना निखरता है यह देखने लायक होगा। कुछ भी हो , पिछले पांच सालों में जनता ने सत्ता पक्ष से जितनी परेशनी झेली है उतनी उसे किसी और से नहीं झेलनी पड़ी है। विधायकों के बुरे आचरण की खबरें उनके शासन काल में पूरे पांच से आती रही हैं। कहीं किसी विधायक ने कुछ किया तो कहीं किसी ने कुछ। पैसा ने देने पर इंजीनियर की हत्या तो जन्मदिन पर नोटों का हार। दौरे पर एसपी साहब जूती साफ करते हैं तो जन्मदिन पर डीआईजी साहब केक खिलाते हैं। पूरा का पूरा सरकारी कुनबा ही लगा है जी हजूरी में। इस दहशत में किसी राज्य की जनता कब तक रह सकती है। सरकार के गुलाम सरकारी कुनबा हो सकता है लेकिन जनता नहीं। शंखनाद जनता को करनी है जो वह कर चुकी है।
शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011
सवाल धर्म परिवर्तन का है जी!
हमारे देष के नेताओं को किसी के दुःख दर्द की कोई परवाह नहीं है परवाह है तो केवल इस बात की कि हमारी राजनीति कैसे चलती रहे, हम समाचार में कैसे बने रहें। यह सही है कि देष में अब केवल धर्म परिवर्तन ही नहीं राष्ट्र परिवर्तन की बात भी चल रही है। केवल झण्डा फहरा देने से कोई भारत का अंग बन जाएगा तो इसे माना नहीं जा सकता है। कष्मीर के लोगों की क्या समस्या है उसे समझना तथा उस अनुसार उनकी परेषानियों को दूर करने की कोषिष होनी चाहिए। ‘‘राष्ट्रीय एकता यात्रा’’ में जितने लोगों ने भाग लिया में उस पर कोई सवाल न उठाते हुए केवल इतना कहना चाहता हूं कि वही लोग इस बात को वहां जाकर बिना किसी हो हल्ला किए वहां के लोगों के परेषानियों को समझें और इस पर विचार करें इसे कैसे दूर किया जा सकता है।
भाजपा या आरएसएस को धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए अगर कुछ करना है तो उसके लिए महाकुंभ का आयोजन करने की कोई आवष्यकता नहीं है। धर्म परिवर्तन करने वालों के मनोभावों को समझे तथा उनकी समस्याओं को दूर करने की कोषिष करें। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई भी साधारण मनुष्य सामान्य परिस्थितियों में अपना धर्म बदलना पसंद नहीं करता है। जहां तक मुझे लगता है धर्म परिवर्तन से पहले लोग को अपने भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में बहुत सोचना-विचारना पड़ता है।
बुधवार, 2 फ़रवरी 2011
युवाओं के देश में युवाओं का स्थान
बेरोजगारी का अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि एक एमबीए करना वाला उत्तर प्रदेश में होमगार्ड के लिए आवेदन कर रहा तो एक बरेली से आईटीबीपी की भर्ती के लिए 410 सीटों के लिए लाखों लोग जा रहे हैं। एक चपरासी की भर्ती निकलती है तो उसके लिए भी सुशिक्षित लोग अपना आवेदन करने में नहीं हिचकते हैं। ऐसी कोई एक दो खबरें नहीं हैं कि उन्हें गिना जा सके देश में आए दिन ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं।
युवाओं के नाम पर तो भारत में चुनाव तक लड़ा जा रहा है। हर दल का अपना एक युवा संघ है जो युवाओं की बात करता है। आज ही नहीं इतिहास के हर कालखण्ड में ‘युवापन’ और ‘युवाजन’ की महत्ता को स्वीकार किया जाता रहा है। समाज ने इन्हें अपनी ताकत समझा है तो राज्य ने अपना हथियार और बाजार ने अपने व्यापार का मूल आधार। लेकिन कमोवेश सब ने इन्हें अपने एजेंडे के केन्द्र में रखा है। यह अलग बात है कि इनकी आवश्यकता, आकांक्षा और भावनाओं को कितना समझा गया, इनकी कितनी कदर की गई या फिर उनके लिए कितने प्रयास किये गये, ये सदैव सवालों के घेरे में रहे हैं। सभी तरह के संघर्षं, आंदोलनों और रचनात्मक प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले ये युवाजन हमेशा अपने वर्तमान के संकट और संत्रास के सबसे अधिक भोक्ता रहे हैं।
देश की इस युवा शक्ति को राजनीतिक दल एक हथियार के रुप में उपयोग करते हैं और अपना काम निकाल लेने के बाद उनकी समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। इस समस्या के लिए अगर किसी को जिम्मेदार माना जाता है तो वह हमारी शिक्षा व्यवस्था है। शिक्षा व्यवस्था को ही हमारे देश अधिकतर विद्वान, नेता, अधिकारी यहां तक की सभी जिम्मेदार मानते हैं। आखिर यदि शिक्षा व्यवस्था में इतनी कमी है तो उसमें सुधार क्यों नहीं किए जाते हैं। हकीकत तो यह है कि देश में रोजगार के अवसर भी कम हो रहे हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश राज्य विद्युत निगम का ही उदाहरण लें। इसने आपने आधे से अधिक पदों को खत्म कर दिया है। पंजाब में बिजली को ठेके पर दिए जाने की बात हो रही है। स्कूलों में शिक्षकों की जगह पैराशिक्षकों से काम चलाया जा रहा है तो विष्वविद्यालयों में अतिथि शिक्षकों से। रिटायरमेंट की अवधि 60 से बढ़ाकर 62-65 की जा रही है और दूसरी तरफ रोजगार के अवसरों को कम किया जा रहा है ऐसे में यह कहा जाए कि केवल हमारी शिक्षा व्यवस्था में कमी है तो सही साबित नहीं हो सकती है।
कहा जाता है ‘‘जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चलता है’’ तो हमारे देश की जवानी किस ओर जा रही है? इसका पता होना देश के नीति निर्माताओं के लिए आवष्यक है। अगर हम मध्य प्रदेश की बात लें तो अभी तक यहां केवल वृद्ध किसान ही आत्महत्या करते थे लेकिन अब युवा भी आत्म हत्या करने लगे हैं। अभी हाल ही में एक युवा मजदूर महू निवासी लगभग 24 वर्षीय रमेश कुमार ने अपने अंग को बेचने की पेश कश की। इन्दौर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी से कहा ‘‘सर मुझे आंख बेचनी और मैं कमजोर आंखे लगवा लूंगा।’’ जिस देश की जवानी अपने शरीर के अंगों को बेचने को तैयार उस देश का भविष्य क्या होगा यह तो आने वाला कल ही बताएगा। लेकिन यह तो तय है कि यदि यही हाल बरकरार रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आत्महत्या की महामारी वृद्धों से युवाओं को बहुत ही जल्द अपनी चपेट में ले लेगा।
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010
केरवा डम
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
अर्विन्दम के नाम खुला पत्र
प्रिय अरविन्दम,
‘द सण्डे इण्डियन में नीरा राडिया और मीडीया पर प्रकाशित आपका लेख पढ़ा । नया विचार देने के लिए आपको धन्यवाद। नये तरीके से देखने में कोई बुराई नहीं है लेकिन बुरा को भी अच्छा कहना बुरा है। लाबिंग के बारे में आपने जो दलीले दी है वह सही है। लबिंग एक ऐसा पेशा है जिसमें आज दुनिया के लाखो लोग है। आप vichardhara की बात करते हैं ? ओबामा को जिताने में एक टीवी चैनल का पूरा सहयोग है, यह सही है। ओबामा के लिए वह पेड पत्रकारिता कर रहा था तो क्या आप भारत में भी पेड पत्रकारिता के बुराई के पेड़ को पैदा करना चाहते हैं ? मीडिया जगत पेड पत्रकारिता को पर प्रतिबन्ध लगना चाहता है और आप हैं जो उसे बढा़ रहे हैं।
इसमें आप की गलती नहीं है। आप सभी चीजो को पैसे के साथ तौलना चाहते हैं। आप तो इसे भी बैध ठहरा सकते हैं कि हमारे सांसद पैसा लेकर सवाल पूछे। लेकिन आपके देखने का नजरिया व्यसायिक है। जहां तक मुझे लगता है खास कर भारतीय मीडिया के बारे में बहुत कम जानते है। पत्रकारिता के सम्बन्ध में एक विद्वाव ने कहा है ‘‘ कि आगर डाक्टर गलती करता है तो एक आदमी मरता है ,आगर एक वकील गलती करता है तो मामले की जांच फिर से शुरू कर दी जाती है लेकिन अगर एक पत्रकार गलती करता है तो सारा देश उससे प्रभावित होता है।
केवल अपना फायदा देखना हर जगह उचित नहीं हैं। नीरा राडिया को एक लाविस्ट मान लिया जाए तो बरखा दत्त ,प्रभूचावला और वीर संघवी भी एक पत्रकार न हो कर लाविस्ट है। अगर ये सब लाविस्ट हैं और आपने ग्रहक के लिए काम करना चाहते हैं तो मीडिया नाम का चादर ओढ़ने की क्या जरूत है। लाविगं खुद में एक व्यवसाय है। आपके दिए आकडे़ के अनुसार, इसका व्यवसाय दिन दूना रात चौगनी बढ रहा है। इन लोगो को चाहिए की मीडिया की चादर को उतार फेंके और लाविगं को अपना व्यवसाय या मैं कहूं अपना
धन्धा बना ले। भविष्य उज्जवल रहेगा और देश उस गर्त में जाने से बच जाएगा जिसमें ये लोग ले जाना चाहते हैं।
मीडिया की अपनी कुछ आचार संहिता होती है। राजेन्द्र माथुर ने कहा है कि मीडिया के लोग ही मीडिया की आचार संहिता बना सकते है कोई और अगर उसे बनाएगा तो या तो रेखा गलत खीचे देगा या हरण कर ले जाएगा। आप मीडिया और लाविंग ,लाविंग और मीडिया को एक बना कर मीडिया का हरण करना चाहते हैं लाविंग का काम है आपने ग्रहको को फायदा पहुचाना तो मीडिया का ग्रहक कौन हैं ? वे पत्रकार जो इस मामले में फंसे हैं या नहीं फसे है या आम जनता है। यदि आम जनता मीडिया की ग्रहक है तो उस को जरूर फायदा होना चाहिए। लेकिन बरखा दत्त, वीर संघवी और प्रभूचावला के इस कारनामे से किसका फायदा होने वाला है क्या आप इसे बताते की कोशिश करेगें।
अब मैं बात करना चाहूंगा की मीडिया मैन जब लाविस्ट बनते हैं तो क्या होता है?
आपने विदेशों में पसरे लाविंग के व्यवसाय का उदाहरण लेकर इस बात को समझाने का प्रयत्न किया है कि यह सही है तो उन देशों के बारे में कुछ बाते औऱ भी हैं। आप अमेरिका की बात करेंगे, इग्लैड की बात करेंगे। आप कहते हैं की वहां मीडिया संस्थान और पत्रकार लाविंग करते हैं। लेकिन शायद आरतो यह मालूम नहीं है की वहां के एक पत्रकार बिना टिकट यात्रा नहीं कर सकता है। गिफ्ट या अनुदान(घूस) नहीं ले सरता है।
किसी भी ऐसी कंपनी का शेयर नहीं खरीद सकता है जिसकी वह रिपोर्टिंग कर रहा है। अगर वह ऐसा करता है तो उसे अपनी बीट छोड़नी पड़ती है या फिर संस्थान के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। वहां तो व्यवस्था यहां तक है कि कोई पत्रकार किसी पार्टी को कवर करने जाए तो भी वह अपना बिल खुद चुकाए। जरा सोचिए।
एक पत्रकार ऐसे में लाबिंग कैसे कर सकता है। हां दलाली जरुर कर सकता है। क्योंकि दलालों को नौकरी की चिंता नहीं रहती है। पत्रकारों को अपने चरित्र के बारे में सोचना पड़ता है। लाबिंग करने वाले अलग लोग होते हैं और मीडिया में काम करने वाले अलग लोग होते हैं। अगर एक ही आदमी से ऑपरेशन भी करवाओगे और पूल का नक्शा भी बनवाओगे तो वह दोनों ही काम गलत करेगा। जिसका ऑपरेशन कर रहा है वह तो मरेगा ही और वह पूल भी ज्यादा दिन तक नहीं चल पाएगा और उससे भी लोग मरेंगे ही। अच्छा हो एक आदमी एक ही काम करे। प्रभु चावल, बरखा दत्त और वीर संघवी ने एक साथ दो काम हाथ में लिए लेकिन आज वो कहीं के नहीं रहे। अच्छा है यह हिंदुस्तान है कि उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया गया केवल पदभर को कम किया गया है। भारत में भी लाबिंग का व्यवसाय फले-फूले इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। लेकिन लाबिंग करने वाले इस व्यवसाय के हों। अन्य देशों की तरह हमारे देश में भी लाबिंग को स्थान मिले। मीडिया के लोग अगर लाबिंग करेंगे तो मीडिया का जो काम है उसे कौन करेगा। क्या कोई मीडिया कर्मी इस बात को सोच सकता है कि जिससे उसे काम निकलवाना है उसके खिलाफ कुछ भी छाप सके।
पत्रकार या तो पत्रकारिता करे या लाबिंग करे। दोनों एक प्रकार से व्यवसाय ही हैं। और इनमे से एक को उन्हें चुनना चाहिए। क्यों कुछ लोगों के फायदे के लिए पूरे समाज को गर्त में धकेलना चाहते हैं आप।
लाबिस्ट और पत्रकार में अंतर समझिए सहाब। दोनों को एक ही तराजू पर मत तौलिए।
आपका
उमेश कुमार
एम.फिल मीडिया अध्ययन
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्नविद्यालय भोपाल मध्य प्रदेश
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
स्वार्थी जनहित
उत्तर-प्रदेष में मायावती के लोकतंत्र को एकतंत्र में बदल डालने के प्रयासों को अगर किसी ने रोका हुआ है तो वह सिर्फ जनहित याचिकाएं ही हैं। मायावती के सामने विपक्ष की तो एक भी नहीं चलती है। जितनी परेषानियों का सामना मुख्यमंत्री मायावती को विपक्ष से नहीं होती है, उससे कहीं ज्यादा परेषानी जनहित याचिकाओं से होती है। यदि हम पिछले कार्यकाल पर नजर डालें तो स्थिति साफ हो जाती है कि ताज कॉरीडोर मामले में अजय अग्रवाल की जनहित याचिका पर मायावती का अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
वह और दौर था जब जनहित याचिकाएं लोगों के हित के लिए हुआ करती थी। समय के साथ-साथ जनहित याचिकाएं स्वार्थी या नाटकीय होती जा रही हैं। उत्तर-प्रदेष में तो इस प्रकार का व्यापार धड़ल्ले से फल-फूल रहा है। जनहित याचिका को लोगों ने अपने विकास का एक मार्ग बन लिए हैं। मायावती के मौजूदा कार्यकाल में यह व्यवसाय खूब चल रहा है। 2007 में ही ताज कॉरीडोर मामले में राम मोहन गर्ग ने एक जनहित याचिका दायर कर दी थी। इस मामले का अंत बड़े ही नाटकीय तरीके से हुआ। लालच में आकर याचिकाकर्त गर्ग ने याचिका वापस ले ली और सरकार ने उन्हें राज्य मत्स्य विकास निगम का अध्यक्ष बना दिया गया।
उत्तर-प्रदेष में जनहित याचिका का यह केवल इकलौता उदाहरण नहीं है। जब लखनऊ में खुद के बनाए अंबेडकर स्टेडियम को ध्वस्त करने के मामले में ओम प्रकाष यादव ने एक जनहित याचिका दायर की तब उच्च न्यायालय ने स्टेडियम को गिराए जाने पर रोक लगा दी। यह रोक भी ज्यादा दिन तक नहीं लगी रह सकी। याचिकाकर्ता स्वयं उच्चतम न्यायालय जाकर याचिका वापस लेने का अनुरोध किया और उसे मान भी लिया गया। बस, फिर क्या था, एक ही रात में करोड़ों की बनी इस इमारत को धूल चाटने के लिए मजबूर कर दिया गया। आखिर क्या जरुरत थी याचिका वापस लेने की। इससे पहले की यह सवाल लोगों के मन में उठता, जबाब आ चुका था। याचिकाकर्ता ओम प्रकाष यादव को राज्य निर्यात निगम का अध्यक्ष बना दिया गया। इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायधीष एचके सेमा को सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर-प्रदेष मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया।
संवैधानिक रुप से यह व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति जनहित याचिका लगा तो सकता है परन्तु अकेले उसे अपने स्वार्थ के लिए वापस नहीं ले सकता है। आखिर आज जिस व्यक्ति को काई बात बुरी लगती है वही बात कुछ दिनों के बाद उसे अच्छी कैसे लगने लगती है। जनहित याचिकाकर्ता अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जनहित की उपेक्षा कर देता है। याचिका यदि एक बार न्यायालय में आ जाए तो उस पर उचित कार्रवाई जरुर होनी चाहिए। इससे कम से कम अपने स्वार्थ के लिए जो जनहित याचिकाएं दायर की जाती हैं उन पर रोक लग सकेगा। और न्यायालय के काम काज में तेजी आएगी तथा सही आदमी को सही समय पर सही निर्णय मिल सकेगा।