शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

स्वार्थी जनहित

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनहित याचिका एक ऐसा अधिकार है जिसके जरिए आम आदमी अपने चुने हुए नुमाइन्दों को चुनौती दे सकता है। लेकिन इसे उत्तर-प्रदेष के लोगों का दुर्भाग्य कहा जाना चाहिए कि इस बात को मानने के लिए न तो राजनेता तैयार है और न ही नौकरषाह। मायावती सरकार साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपना कर याचिकाकर्ता पर अपना प्रभाव जमा ही लेती है।
उत्तर-प्रदेष में मायावती के लोकतंत्र को एकतंत्र में बदल डालने के प्रयासों को अगर किसी ने रोका हुआ है तो वह सिर्फ जनहित याचिकाएं ही हैं। मायावती के सामने विपक्ष की तो एक भी नहीं चलती है। जितनी परेषानियों का सामना मुख्यमंत्री मायावती को विपक्ष से नहीं होती है, उससे कहीं ज्यादा परेषानी जनहित याचिकाओं से होती है। यदि हम पिछले कार्यकाल पर नजर डालें तो स्थिति साफ हो जाती है कि ताज कॉरीडोर मामले में अजय अग्रवाल की जनहित याचिका पर मायावती का अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
वह और दौर था जब जनहित याचिकाएं लोगों के हित के लिए हुआ करती थी। समय के साथ-साथ जनहित याचिकाएं स्वार्थी या नाटकीय होती जा रही हैं। उत्तर-प्रदेष में तो इस प्रकार का व्यापार धड़ल्ले से फल-फूल रहा है। जनहित याचिका को लोगों ने अपने विकास का एक मार्ग बन लिए हैं। मायावती के मौजूदा कार्यकाल में यह व्यवसाय खूब चल रहा है। 2007 में ही ताज कॉरीडोर मामले में राम मोहन गर्ग ने एक जनहित याचिका दायर कर दी थी। इस मामले का अंत बड़े ही नाटकीय तरीके से हुआ। लालच में आकर याचिकाकर्त गर्ग ने याचिका वापस ले ली और सरकार ने उन्हें राज्य मत्स्य विकास निगम का अध्यक्ष बना दिया गया।
उत्तर-प्रदेष में जनहित याचिका का यह केवल इकलौता उदाहरण नहीं है। जब लखनऊ में खुद के बनाए अंबेडकर स्टेडियम को ध्वस्त करने के मामले में ओम प्रकाष यादव ने एक जनहित याचिका दायर की तब उच्च न्यायालय ने स्टेडियम को गिराए जाने पर रोक लगा दी। यह रोक भी ज्यादा दिन तक नहीं लगी रह सकी। याचिकाकर्ता स्वयं उच्चतम न्यायालय जाकर याचिका वापस लेने का अनुरोध किया और उसे मान भी लिया गया। बस, फिर क्या था, एक ही रात में करोड़ों की बनी इस इमारत को धूल चाटने के लिए मजबूर कर दिया गया। आखिर क्या जरुरत थी याचिका वापस लेने की। इससे पहले की यह सवाल लोगों के मन में उठता, जबाब आ चुका था। याचिकाकर्ता ओम प्रकाष यादव को राज्य निर्यात निगम का अध्यक्ष बना दिया गया। इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायधीष एचके सेमा को सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर-प्रदेष मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया।
संवैधानिक रुप से यह व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति जनहित याचिका लगा तो सकता है परन्तु अकेले उसे अपने स्वार्थ के लिए वापस नहीं ले सकता है। आखिर आज जिस व्यक्ति को काई बात बुरी लगती है वही बात कुछ दिनों के बाद उसे अच्छी कैसे लगने लगती है। जनहित याचिकाकर्ता अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जनहित की उपेक्षा कर देता है। याचिका यदि एक बार न्यायालय में आ जाए तो उस पर उचित कार्रवाई जरुर होनी चाहिए। इससे कम से कम अपने स्वार्थ के लिए जो जनहित याचिकाएं दायर की जाती हैं उन पर रोक लग सकेगा। और न्यायालय के काम काज में तेजी आएगी तथा सही आदमी को सही समय पर सही निर्णय मिल सकेगा।

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