मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

भारत में बदल रहे हैं विकास के मायने

वर्तमान में भारत में विकास के मायने काफी तेजी से बदल रहे हैं। विकास के सूचकांक यहां रोटी, कपड़ा और मकान न होकर खेलों का आयोजन, कॉल दरों में कामी, जीडीपी का बढ़ना, सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव हो गया है। यदि हम वास्तविक विकास की ओर ध्यान देते हैं तो भारत की स्थिति काफी नाजुक नजर आती है। हमारे देश में विकास के नाम पर एक राष्ट्रीय पाखंड चल रहा है। जहां देश की छवि को महान दिखाने के लिए औपनिवेशिक गुलामी के प्रतीक राष्ट्रमंडल खेलों पर तो अरबों रुपए खर्च किए जा सकते हैं, लेकिन गरीब जनता की भूख नहीं मिटाई जा सकती है।
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के ताजा आंकड़ों से यह बात एक बार और साफ हो गई है कि विकास के रास्ते में छलांग लगाता दिख रहा हिंदुस्तान अपनी बहुसंख्य जनता का पेट भरने में पूरी तरह नाकाम है। रिपोर्ट के मुताबिक विश्व भूख सूचकांक में भारत 68 स्थान पर है। एनडीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में जब गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को प्रति माह बांटे जाने की बात कहीं तो योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा कि यह अगली योजना तक संभव नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि 2012 तक ऐसी कोई भी योजना शुरु नहीं की जा सकती है।
सरकार गरीब जनता को रिझाने के लिए उनके हित में अनेक प्रकार की योजनाएं बनाती है लेकिन उनका सही से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। सरकार की गरीबी रेखा से नीचे के लिए बनाई गई योजना तथा अन्त्योदय योजना का क्या हाल है यह सभी जानते हैं। सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही हैं। सरकारी योजनाओं का यह हाल आज से नहीं है। राजीव गांधी ने भी स्वीकार किया था कि केंद्र से दिए गए धन का केवल 10 फीसद ही उस काम में लगता है जिसके लिए वह धन दिया जाता है।
देश में अगर गरीबी और भुखमरी की बात की जाए तो अर्जुन सेन गुप्ता चार साल पहले आई रिपोर्ट को देक्षा जा सकता है। इस रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि देश की 77 फीसदी आबादी हर रोज 20 रुपए से भी कम कमाती है। देश के अलग-अलग हिस्सों से लगातार गरीब किसानों की आत्महत्या और भुखमरी की खबरें आती रहती हैं। ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जो विकास की गुलाबी तस्वीर को झूठा साबित करती हैं। चिंता की बात यह है कि ऐसे में देश के विकास का वैकल्पिक मॉडल कैसे खड़ा हो, इस विमर्श की लगातार अनदेखी की जा रही है।
देश के महान नेतागण के लिए विकास का परिभाषा ही बदल गई है। विकास उनके लिए न तो देश का विकास रह गया है और न ही समाज का। विकास से उनका आशय महज अपने विकास से रह गया है। ऐसे में सोचनीय बात यह है कि सरकार विकास की जो तस्वीर जनता के सामने पेश करती है उसका आम जनता से क्या नाता है। यदि देश की सरकार को जनता की सही मायने में चिंता है तो उच्च्तम न्यायालय को बारबार यह क्यों कहना पड़ रहा है कि सड़ रहे आनाज को में गरीबों मुफ्त बांट रहे हैं। पूंजीवादियों के ब्याज को आसानी से माफ कर दिया जाता है लेकिन आम जनता के ब्याज को माफ करने के लिए अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। देश के इस प्रकार के विकास का आम जनता के लिए कोई औचित्य नहीं लगता है।

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