मंगलवार, 15 सितंबर 2009

विरासत पर सियासत

आजादी के लिए जान गवाने वाले अब रास नहीं आ रहे हैं। सरकार उनका वजूद मिटाने पर तुल गई है। सभी राज्यों के सरकारों के दिल में आजादी के दिवाने खटकने लगे हैं। उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने तो हद ही कर दी। राज्य सरकार ने सबसे पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के आजाद भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश कोठी तोड़ी और बाद में उस जेल को भी गिराने का प्रयास किया जिसमें बैठकर आजादी के परवानों ने ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसी गीतों को लिखा था। यह सब महज इस लिए किया जा रहा है कि मायावती सरकार को बसपा विधायकों के लिए निवास स्थान बनाया जा सके। बसपा सरकार जब से सत्ता में आई वह पार्क, भवन आदि बनाने के लिए ऐतिहासिक इमारतों को गिराने का काम कर रही है। आधुनिक नेताओं के सामने आजादी दिवाने बौने पड़ गए हैं। ऐतिहासिक इमारतों का यह हाल केवल उत्तर-प्रदेश में ही नहीं है। मध्य-प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी चंद्रशेखर की प्रतिमा को हटाने का प्रयास किया जा रहा है। बलिदानी भी पार्टी के हो गए हैं। बसपा के लिए डाँ भीमराव अम्बेडकर स्वतंत्रता सेनानी हैं तो भाजपा के लिए सरदार पटेल। बसपा सरकार सोचती है कि आजादी की लड़ाई डाँ अम्बेडकर ने अकेली ही लड़ी थी। इसीलिए वह अम्बेडकर पार्क से लेकर अम्बेडकर ग्राम तक बना रही है। दूसरी तरफ आजादी की अन्य निसानियों को धूल चटा रही है।
सवाल यह उठता है कि इतिहास को इस प्रकार से मिटाया जाना कहां तक उचित है। इतिहास को मिटाना आसान है लेकिन बनाना ने केवल मुश्किल बल्कि असंभव है। अच्छा हो सरकार ऐतिहासिक इमारतों की रक्षा करे और उन्हें नया रुप और कलेवर दे।

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