शनिवार, 28 सितंबर 2019

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2018

मनुष्य झूठ बोल सकता है परन्तु

मनुष्य झूठ बोल सकता है परन्तु साक्ष्य नही: डा.हर्ष शर्मा

पूर्व राष्ट्रपति कलाम के जन्मदिन पर होगी कई प्रतियेागिताएं

झांसी। बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय परिसर में संचालित डा.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम न्यायालयिक विज्ञान एवं अपराधशास्त्र संस्थान के तत्वाधान में द्वारा पूर्व राष्ट्रपति एवं देश के महान वैज्ञानिक डा.कलाम के 87वे जन्मदिन के उपलक्ष्य में 11 अक्टूबर से 15 अक्टूबर 2018 तक चार दिवसीय कार्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। यह जानकारी आज संस्थान के समन्वयक डा.विजय यादव ने दी।
डा.यादव ने बताया कि इसी श्रृंखला में आज प्रथम दिन भूगर्भ विज्ञान विभाग के सभागार में एक विशिष्ट व्याख्यान में राज्य न्यायालयिक विज्ञान प्रयोगशाला, सागर. के निदेशक डा.हर्ष शर्मा ने एक व्याख्यान दिया। डा.षर्मा अपराध अन्वेषण में भौतिक साक्ष्यो की महत्ता प्रकाश डालते हुए कहा कि एक जीवित मनुष्य झूठ बोल सकता है और बोलता है लेकिन साक्ष्य कभी भी झूठ नही बोलते।
इस अवसर पर बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता विज्ञान संकाय प्रो.एम.एम.ंिसंह, अपराध अन्वेषण षाखा टीकमगढ़ के वैज्ञानिक अधिकारी डा.प्रदीप कुमार, डा.अनु सिंगला, डा.अंकित श्रीवास्तव, डा.कृति निगम, डा.चन्दन नामदेव, डा.मुरली मनोहर यादव उपस्थित रहे।
समन्वयक डा.यादव ने बताया कि 12 अक्टूबर को प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता, 13 अक्टूबर को वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन होगा। जबकि 15 अक्टूबर रक्तदान शिविर का आयोजन  किया जायेगा।  डा.यादव ने विश्वविद्यालय परिसर के अधिक से अधिक छात्र-छसात्राओं को प्रतियेागिताओं में प्रतिभाग करने की अपील की।

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

पूरा गाँव एक था



लड़ाई में भी
सहयोग में भी
जुड़ने में भी
और टूटने में भी
पूरा गाँव एक था
ख़ुशी में भी
दुःख में भी
लड़ते भी थे
समझाते भी थे
क्योंकि पूरा गाँव एक था
काम भी एक था
दाम भी एक था
सभी अमीर भी थे
सभी गरीब भी थे
मेरा पूरा गाँव एक था
क्योंकि सब एक थे

सोमवार, 25 मई 2015

मोदी जीरो तो राहुल...

मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में हुआ है और संसदीय सीट अमेठी है. यह सर्व विदित है की रायबरेली कांग्रेस का गढ़ रहा है. इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी जहाँ रायबरेली से संसद रही है या रह चुकी हैं वहीँ राहुल गाँधी अमेठी से संसद हैं. आजादी के बाद यदि कुछ समय को छोड़ दिया जाए तो गाँधी परिवार ही यहाँ से सत्ता में रहा है. फिर भी वो कौन सी मजबूरियां हैं जो राहुल गाँधी को आज भी झुग्गी बस्तियों में जाने के लिए मजबूर कर रही है. क्या भारत में कभी कांग्रेस का शासन नहीं रहा है. या उत्तर प्रदेश में कभी कांग्रेस सत्ता में नहीं रही है. नहीं इसे सही नहीं कहा जा सकता है. उत्तर प्रदेश और केंद्र दोनों जगह पर कांग्रेस ने सत्ता संभाली है. लेकिन फिर भी उनके अपने क्षेत्र का विकास न होना क्या प्रदर्शित कर रहा है.
अप्रैल २०१५ में जब मैं अपने घर जा रहा था तो ३५ किलोमीटर की यात्रा को ४ घंटे में पूरा किया था. रायबरेली से जायस महज ३५ किलोमीटर की दुरी पर स्थित है. इसका अर्थ यह नहीं की मैं पैदल जा रहा था. यह यात्रा बस से की गयी थी. सड़क पर गड्डे हैं या गड्डे में सड़क है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल काम है. जायस और रायबरेली एनएच पर स्थित हैं. यदि इसकी यह स्थिति है तो बाकि जगहों के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. जहाँ मेरा घर है उस गांव या उसके आसपास कोई साल के चार महीने जुलाई से ओक्टुबर  में बीमार हो जाए और उसे अस्पताल ले जाना हो तो मरीज रास्ते में ही भगवान को प्यारा हो जायेगा. सड़क के नाम पर केवल गड्डे हैं और उसमे हमेशा पानी भरा रहता है. १०८ हो या कोई और वहां तक पहुँच पाए यह संभव नहीं है.
यदि यह कहा जाए की कांग्रेस अमेठी और रायबरेली की जनता को भेड़-बकरी समझती है तो दुःख नहीं होना चाहिए. पुरखों की फसल को ही राहुल और सोनिया आज काट रही हैं. मैं कहीं भी देश के किसी भी हिस्से में जाता हु तो लोगों का एक ही सवाल होता है कि आपका क्षेत्र को बहुत विकसित होगा. क्या बताऊँ उन्हें? विकास के नाम पर कुछ भी नहीं है वहां. पिछले ११ साल से राहुल गाँधी वहां के संसद हैं लेकिन क्षेत्र में जाते कब हैं यह बड़ा सवाल है. चुनाव में इस बार जाना पड़ा था. क्योंकि ओवरटेक की सुविधा नहीं थी. आप पार्टी के कुमार विश्वास और भाजपा की स्मृति ईरानी जो मैदान में थी. इसके पहले के चुनाव में तो कांग्रेस को ओवरटेक करने का पूरा मौका दिया जाता था. कोई भी पार्टी अपना ताकतवर नेता ही उस क्षेत्र से नहीं उतरती थी.
महज यह कह देने से कि हमारी सरकार नहीं है. क्या आप बच जायेंगे. नहीं न. ११ सालों में आपने क्या किया है जब आपकी ही सरकार केंद्र में रही है. जहाँ तक मेरा मानना है अमेठी और रायबरेली देश के उन पिछड़े हुए जिलो में शामिल होने लायक भी नहीं हैं जहाँ बुनियादी सुविधाए भी उपलब्ध न हो. कांग्रेस को अगर अपनी यह सीट बचाए रखनी है तो उसे काम करना पड़ेगा नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब यह सीटें भी हाथ से निकल जाए.

लोगों को एक बार बेवकूफ बनाया जा सकता है हमेशा नहीं. कभी न कभी तो जागरूकता आएगी ही. धोखा ज्यादा दिन नहीं चलता है. 

शनिवार, 23 मई 2015

भारत निर्माणः गांधी और मोदी


विकासशील भारत को विकसित भारत बनाने के लिए आजादी से पूर्व से ही विचार-विमर्श किया जाता रहा है। समय-समय पर इस दिशा में कुछ प्रयास भी किए गए। आज भी भारत के विकास के लिए प्रयोग ही किए जा रहे हैं। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी भारत का विकास किस प्रकार और किस दिशा में हो, यह निर्धारित नहीं किया जा सका है।
आजादी के बाद से देश की सभी सरकारें गांधी के विचारों के आधार पर भारत को विकसित करने की बात करती रही हैं। इसी कड़ी में वर्तमान केन्द्रीय सरकार भी प्रयासरत है। हमें गांधी के विकास प्रतिरुप और मोदी के के विकास प्रतिरुप की समीक्षा करनी चाहिए। गांधी का मानना था कि देश के लघु एवं कुटीर उद्योगों तक स्थापना हो तथा गांव अपनी आवश्यकता की पूर्ति स्वयं करें। वहीं मोदी का विचार इसके एकदम उल्टा है। मोदी का मानना है कि देश का विकास मेक इन इंडिया के द्वारा किया जाना चाहिए। मानवपूंजी आधारित रोजगार की आवश्यकता वर्तमान भारत में हैं। देश में बेरोजगारी की दर निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसे में डिजीटल इंडिया का सपना देश के विकास का प्रतिरुप नहीं हो सकता है।

कोई भी विदेशी कंपनी भारत के विकास के लिए काम करेगी। इसका कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। 16वीं शताब्दी में भारत में व्यवसाय करने के लिए आई ईस्ट इंडिया कंपनी के विषय में सभी जानते हैं। गांधी का विचार था कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से पहले हमें अपने देश में स्वयं का निवेश करना चाहिए। देश में छोटे-छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए जिससे हर नागरिक को काम मिल सके। बेरोजगारी व्यक्ति को केवल आर्थिक रुप से कमजोर नहीं करती है। यह व्यक्ति को अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए गलत कार्य करने को मजबूर करती है। वर्तमान समय में गांवों से लोगों का पलायन निरंतर जारी है। भारत के वास्तविक विकास के लिए गांवों से शहरों की तरफ हो रहे पलायन की बढ़ती गति पर लगाम कसने की आवश्यकता है। पलायन को रोकने के लिए खेती एवं पशुधन को सम्पन्न और लाभकारी बनाना अत्यन्त आवश्यक है। इसका कारण यह है कि गांवों में संपन्नता और खुशहाली का आधार खेती और पशुध नही होता है। शहरों की तरफ के पलायन को रोकने के लिए यह भी आवश्यक है कि गांवों केा इस तरफ से विकसित किया जाए कि सभी को यथा उपयुक्त कार्य अपने आसपास ही उपलब्ध हो सके। मेक इन इंडिया  कार्यक्रम पलायन की प्रावृत्ति को और बढ़ावा देने वाली साबित होगी।
गांधी का विचार था कि देश में स्वदेशीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। हमें अपने उपयोग की वस्तुओं का निर्माण स्वयं करना चाहिए न कि किसी देश से खरीदना चाहिए। स्वदेशी अपनाने से जहां एक ओर हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत होगीं वहीं दूसरी ओर देश के नागरिकों को रोजगार की सुविधा उपलब्ध हो सकेगी। मोदी का विचार इसके एकदम विपरीत साबित हो रहा है। मेक इन इंडिया द्वारा नरेन्द्र मोदी देश को दुनिया के लिए खोल देना चाहते हैं। भारत में विदेशी कंपनियां आकर अपना व्यवसाय करें वर्तमान केन्द्र सरकार की यही नीति है। इसके लिए नियमों में भी पर्याप्त तथा आवश्यकता से अधिक लचीला बनाया जा रहा है। यह एक तरह से देश को बेचने की कोशिश कही जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। सरकार विदेशी कंपनियों के लिए जमीन तथा कच्चा माल उपलब्ध कराएगी। इसके एवज में देश के नागरिकों को रोजगार की सुविधा प्राप्त होगी। सवाल यह उठता है कि देश के नागरिकों को कैसा रोजगार प्राप्त होगा। जहां तक मेरा मानना है इससे केवल मजदूर वर्ग का निर्माण किया जा सकता है। जो विदेशी कंपनियों भारत में पैसा निवेश करेंगी उन्हीं के ही लोग नीति निर्माण का काम करेंगी। बाकी देश के सभी नागरिक मजदूरी करने को मजबूर हो जाएंगे।
विश्व में कोई भी ऐसा देश मेरी जानकारी में नहीं हैं जिसका विकास विदेशी कंपनियों ने किया हो। चीन का उदाहरण लें या जापान का। सभी देश स्वयं ही विकसित हुए हैं। इन देशों में विदेशों से पैसा नही ंके बराबर आता है तथा ये देश स्वयं दूसरे देशों में अपना पैसा निवेश करते हैं या अपने यहां का तैयार माल दूसरे देशों में भेजते हैं। विश्व के लगभग सभी विकसित देश भारत को विकसित करने के लिए भारत की ओर नहीं आना चाहते हैं। उनका एकमात्र मकसद इस विशाल जनसंख्या वाले देश भारत की बाजार पर कब्जा जमाना है। बाजार का अपना एक ही सिद्धांत होता है- जहां लाभ हो वहां निवेश किया जाए। यदि विदेशी कंपनियों को ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में लाभ की संभावना है तो यहां निवेश अवश्य होगा। सवाल यह उठता है कि क्या विदेशी कंपनियों को होने वाले लाभ से भारत के नागरिकों को कोई लाभ होगा।
भारत निर्माण से संबंधित विचारों के आधार पर यदि मोदी और गांधी के दृष्टिकोण की तुलना की जाए तो यह साफ परिलक्षित होता है कि गांधी मानव आधारित पूंजी के उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करते हैं और मोदी पूंजी आधारिता उद्योगों को बढ़ावा देना चाहते हैं। गांधी का मानना था कि ग्रामीण भारत के विकास के बिना देश का विकास संभव नहीं है। यह सही भी है। आज भी देश की लगभग 67 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है। केवल 33 प्रतिशत के विकास को विकास नहीं कहा जा सकता है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी यदि देखा जाए तो देश में गरीबी की स्थिति बनी हुई है। गरीबी बेरोजगारी का दुष्चक्र है। जहां बेरोजगारी होगी वहां गरीबी स्वयं आ जाएगी। पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था में मानव संसाधन का उपयोग कम करके तकनीकी तथा मशीनों का उपयोग ज्यादा किया जाता है। इससे जहां कम लोगों में अधिक काम किया जा सकता है वहीं लाभ भी अधिक होता है। ऐसी अर्थव्यवस्था उस देश के लिए अच्छी होती है जहां पर मानव संसााधन की कमी होती है। भारत में सौभाग्य से पर्याप्त मात्र में मानव संसाधान उपलब्ध है। यदि यह कहा जाए की मानव संसाधन केवल पर्याप्त मात्र में नहीं बल्कि अधिक है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
किसी भी देश की जनसंख्या दुधारी तलवार की तरह होती है। यदि उसका सही से उपयोग किया जाए तो देश के विकास का काम करती है और यदि गलत तरीके से उसका उपयोग किया जाए तो वह देश के विनाश के लिए काम करती है। भारत के नागरिकों को तब तक उचित रोजगार नहीं दिया जा सकता है जब तक मानव आधारित उद्योगों का विकास का विकास नहीं किया जाता। गांधी ने सूत कातने या सूती कपड़े के उपयोग की बात इसलिए नहीं कहा था कि देश में यह में अत्याधिक मात्रा में उपलब्ध बल्कि इसलिए कहा  था कि इससे देश के हर नागरिक को रोजगार के साथ ही साथ तन ढकने के लिए कपड़ा उपलब्ध हो सकेगा।

शुक्रवार, 22 मई 2015

मोदी के नाम खुला पत्र


प्रिय प्रधानमंत्री/प्रधानसेवक
आपने देश के विकास के लिए क्या किया यह तो हम नहीं बता सकते हैं. जहाँ तक मुझे पता है आपने विदेश यात्रा खूब की है. आप के अनुसार ही विदेशों में हमारी खूब इज्जत हो रही है. हमारी विदेश निति मजबूत हो रही है. लेकिन आपने अपनी विदेश यात्रा के दौरान जो बहस छेड़ा है, वह विचार का विषय बन गया है. भारत में जन्म लेना क्या शर्मिंदगी है या गर्व का विषय है. हमारे वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि जननी और जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान होती है. ऐसे में हमें अपनी जन्मभूमि पर शर्मिंदगी कैसे हो सकती है.
भारत ऋषियों-मुनियों का देश रहा है. यदि भारत के इतिहास पर नजर डाला जाए तो हमें गर्व करने के बहुत से अवसर मिल सकते हैं. गलत तरीके से इतिहास का विश्लेषण करने के कारण ही हमें शर्मिंदा होना पड़ता है. शिक्षा के क्षेत्र में बात की जाए तो नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालय न केवल भारत में बल्कि विश्व में अपनी अमिट पहचान रखते थे. भारतीय शिक्षाविदों के द्वारा दिए गये सूत्र आज भी वैज्ञानिक शोध का आधार बन रहे हैं.
इतिहास में यदि महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो हम पाते हैं की गार्गी, रानी लक्ष्मी बाई बहुत से नाम ऐसे हैं जिन्होंने देश को सम्मानित किया है. भारत में आज भी परिवार जैसी संस्था अपना अस्तित्व बनाये हुए है. परिवार केवल हमें रहने के लिए स्थान नहीं देता है बल्कि हममें संस्कारों को रोपित करने का भी काम करता है. देश में वर्तमान में जो सामाजिक बुराइयाँ दिखाई दे रही हैं उनका अस्तित्व भी भारत में पुरातन काल में नहीं था. परिवार के टूटने के कारण ही आज के समय में यौन हिंसा, चोरी आदि बढती जा रही है.
भारत में इन बुराइयों का कारण यहाँ के लोगों में निरंतर देश प्रेम का हो रहा ह्रास है. देश का प्रधानमंत्री ही देश की टोपी को विदेशों में उछालने का काम कर रहा है. ऐसे में यदि कोई भी देश भारत के विषय में अपनी गलत अवधारणा बनाये तो कोई आतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए. जब कोई व्यक्ति अपनी इज्ज़त नहीं करता है तो उसकी इज्जत कोई नहीं करता है. यही सिद्दांत देश के साथ भी लागू होता है. आपके के द्वारा दिया गया बयान हमारे देश की इज्जत को बढाने वाला नहीं बल्कि हमारी इज्जत को कम करने वाला है.
भारत ही वह देश है जो किसी भी संस्कृति को अपने में समाहित करने की क्षमता रखता है. जो देश किसी को भी अपने में समाहित कर लेता है वह कभी समाप्त नहीं होता है. विश्व में कोई भी ऐसा देश नहीं होगा जहाँ पर इतनी विविधता हो जितनी भारत में है. संस्कृतियों की बात की जाए तो विश्व से आज के समय में बहुत सी संस्कृतियाँ इतिहास बन गयी है लेकिन भारतीय संस्कृति आज भी जीवित है और हमेशा जीवित रहेगी.
आप देश को देश न समझ कर कोई उत्पाद समझ रहे हैं. १६वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत व्यापार करने के लिए ही आये थे. यदि हमारे देश के प्रधानमंत्री को इतिहास के विषय में थोडा बहुत भी ज्ञान  होगा तो उन्हें पता होगा कि अंग्रेज केवल व्यापार ही नहीं किये देश पर राज भी किया. कोई भी देश या व्यक्ति पैसा लगता है तो लाभ कमाना उसका लक्ष्य होता है. आज देश को फिर से १६विं शतब्दी की ओर ले जाया जा रहा है.
प्रिये प्रधानमंत्री आप महात्मा गाँधी को बहुत मानते हैं. ऐसा मैंने सुना है. दिल से मानते हैं या दिमाग से यह मुझे नहीं पता है. लेकिन इतना मैं पूरे विश्वास से कह सकता हु की आप उनकी नीतियों को नहीं मानते हैं. गाँधी कुटीर उद्योग से देश का विकास चाहते थे और आप उसके एकदम विपरीत. शायद मैं विषय से भटक रहा हु. गाँधी ने देश को देश माना और उन्हें भी देश पर गर्व था रामराज उनका सपना था. आप भी राम का नाम तो लेते ही होंगे. उन पर भी आपको शर्म आती होगी. मेरी एक छोटी सी सलाह मानिए. आप उस देश चले जाए जहाँ आपको शर्म न आये. व्यक्ति कहाँ पर जन्म लेगा यह तो निर्धारित नहीं कर सकता है लेकिन कहाँ पर रहेगा यह निर्धारित कर सकता है.
आपका शुभ चिंतक 

शनिवार, 16 मई 2015

समस्या सोच का है

हमारे देश में आज भी यदि कोई काम गलत हो जाए या नुकसान हो जाए या मैच में हार हो जाए तो उसके लिए नारी को जिम्मेदार ठहराया जाता है. कहा जाता है कि इसकी वजह से हमारा काम ख़राब हुआ. लोग अपनी गलती को छुपाने के लिए नारी को दोषित करते हैं और कहते हैं कि इसके कारण हमारा कोई भी काम सही से नहीं हो पा रहा है. जब एक लड़की की शादी होती है और वह दुल्हन, लक्ष्मी के रूप में ससुराल जाती है. उस समय उसके ससुराल में कोई दुर्घटना घट जाए तो तो उस लड़की के माथे दोष लगाया जाता है की यह डायन कहाँ से आई है. आते ही नुकसान होना शुरू हो गया. उस दुर्घटना चाहे किसी और की गलती से हुआ हो. सारा दोष उस लक्ष्मी जैसी बहु पर डाल दिया जाता है. तथा उसे डायन कहने लगते हैं.
    कई मायने में वर्तमान में पुरुषों से महिलाएं बहुत आगे हैं. बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम से इसकी पुष्टि की जा सकती है. पढाई हो या खेल कूद का मैदान, प्रशासनिक सेवा हो या देश की सेवा, चिकित्सक हो या शिक्षक हर किसी कार्य क्षेत्र में वह बढ़चढ़ भाग लेती हैं और आगे भी निकलती हैं.
भारत में महिलाओं का एक सशक्त इतिहास है. विज्ञान के क्षेत्र में कल्पना चावला से लेकर खेल के मैदान में सयाना नेहवाल, राजनीती में इंद्रा गाँधी, सोनिया गाँधी, ममता बनर्जी, मायावती, उमा भारती, प्रतिभा पाटिल सेवा क्षेत्र में चंदा कोचर, इंद्रा नुई, किरण बेदी, मदर टेरेसा, स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, देवी आहिल्या बाई, रजिया सुल्तान, बेगम हजरत महल आदि के इतिहास को भुलाया नहीं जा सकता है.
ऐसा सशक्त इतिहास होने के बावजूद हमारे देश के लोग टोने-टोटके जैसे भ्रम में पड़े हुए हैं. जो अपना दोष किसी नारी पर थोप देते हैं. भारत देश इतना आगे बढने के बावजूद भी कहीं न कहीं बाकि देशों के मुकाबले पीछे है. अनपढ़ लोग को कहने को ही बहमी माने जाते हैं. जबकि यहाँ तो पढ़े लिखे लोग भी विश्व कप में हार का दोष अनुष्का शर्मा पर लगा देते हैं. गौरतबल है की सिडनी के इस क्रिकेट स्टेडियम में ४२ हजार लोगों के बैठने की जगह है. इन दर्शकों में एक अनुष्का शर्मा भी थी जो सिडनी में भारत का मैच देखने गई थी. भारत ऑस्ट्रेलिया से अपना मैच हार गया. इसके लिए ४२ हजार में से किसी एक को जिम्मेदार हमारी सोशल मीडिया ने ठहराया. वह थी अनुष्का शर्मा. विराट कोहली के एक रन पर आउट होना जैसे अनुष्का की गलती हो. क्या अनुष्का शर्मा सिडनी मैच देखने न जाती तो विराट कोहली आउट न होते और भारत मैच न हारता.

किसी भी खेल में जीत और हार खेल के मैदान में तय होता है न कि स्टेडियम में बैठे लोगों के भाग्य से. खेल मैदान में लिया गया फैसला और हमारा प्रदर्शन हमारी जीत या हार का कारण है. इसके लिए किसी भी प्रकार से किसी महिला को दोषी ठहराया जाना हमारी कुंठित मानसिकता को दर्शाता है. यह हमें बहुत ही अच्छी तरह से इस मैच में दिखाई दिया. 

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

आओ खेती करें


अब आप सोच रहे होंगे
क्या पागलपन है।
अच्छा खासा पढ़ा-लिखा है
फिर इसे क्या पड़ी है
खेती करने की।
किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो
लगता है इसे भी आत्महत्या करनी है।
दोस्त!
यह खेती खेतों में नहीं
दिमाग में होगी
फल-फूल नहीं
बातें उगेंगी
बेवकूफ बनाने की खेती होगी।
बजट के अनुसार
कोई लागत नहीं है
शिक्षा के अनुसार
कोेई जरुरत नहीं है।
जरुरत केवल जुगाड़ की है।
अब बताओ खेती करोगे मेरे साथ

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

चुनाव और बयान

चुनाव हो और भाषण न हो। ऐसा कभी हो सकता है। भाषण भी विकास को लेकर हो। क्या इससे चुनाव जीता जा सकता है या अपने विरोधी का षिकस्त दिया जा सकता है। नहीं न। तो। तो क्या ऐसा बयान दो कि मीडिया पागल हो जाए और बात चुनाव आयोग तक चली जाए।
अब आज़म खां को ही लिजिए। कारगिल में केवल मुसलमानों ने युद्ध जीता। हिन्दु वहां थे ही नहीं। हो गयी न बात। मीडिया कैसे नहीं इस बात को बढ़ती। पूरा खेल तो मीडिया में बने रहने का है। थोड़ा सा भी आप मीडिया से बाहर हुए कि आपकी राजनीति पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं। खैर कारगिल कौन जीता यह तो सब जानते हैं लेकिन बेचारे आज़म खां चुनाव प्रचार से ही हार गए। अब वे चुनाव प्रचार भी नहीं कर पा रहे हैं तो चिट्ठी का सहारा ले रहें हैं। बात जो अपनी कहनी है। मैं चुनावी बयानों को एक-एक करके आपके सामने रखूगां। इसलिए आज के लिए केवल एक बयान ही काफी है। पढ़ो और मजा लो। चुनाव का मौसम है न।

    

रविवार, 13 अप्रैल 2014

बाबा बनने के लिए

यार! अपना खर्च चलाना मुष्किल हो रहा है। रोज का आना रोज का जाना हो गया है। महीना मुष्किल से गुजरता है। अब आषाराम बापू की अकूत संपत्ति को देखकर मन को एक नया आयाम मिल रहा है। धर्म का धंधा सबसे चंगा। सोच रहा हूं धर्म को अपना धंधा बना लूं। इसी के लिए यह प्रतिवेदन आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। विचार आमंत्रित हैं। लेकिन केवल सकारात्मक या इस धंधे को आगे बढ़ाने वाले ही विचार हों। साथ ही यदि कोई सहयोग हो सकता है तो बहुत ही उत्तम है। हमारे इस धंधे में जुड़ने के लिए सहयोग राषि की जरुरत नहीं है, कुछ अनुदान से ही काम चल जाएगा। आर्थिक अनुदान नही ंतो भौतिक ही सही। भौतिक भी न हो तो आपकी उपस्थिति से ही काम चल जाएगा। बस अपने साथ कुछ भक्त लेते आओगे तो हमें अच्छा लगेगा।
आइए अब हम अपनी योजना का खुलासा करते हैं। कहा भी गया है कि किसी भी कार्य को करने के लिए उचित योजना का होना आवष्यक है। इसीलिए हम धर्म के धंधे को सफलता के षिखर पर पहुंचाने की योजना बना रहे हैं। कुछ बना भी चुके हैं। जो बना चुका हूं उन्हें आपके सामने परोस रहा हूं। मेरी योजना के मुताबिक पहले कुछ ‘महान बाबाओं’ साक्षात्कार लेना है। इन बाबाओं की फेहरिस्त में आषाराम बापू, निर्मल बाबा जैसों को ही शमिल किया गया है। जो छूट गए हैं उनसे माफी चाहता हूं। वे अपना नाम मुझे ईमेल कर सकते हैं। शर्त केवल यह है कि वे महान हों। जैसे ये दिए गए नाम हैं। 
वैसे मुझे साक्षात्कार देना अच्छा नहीं लगता है। गुप्त बात यह है कि आज तक कोई मेरा साक्षात्कार लेने आया ही नहीं। तो सोचा साक्षात्कार लेकर ही काम चला लेता हूं। योजना के अनुरुप ही मैंने आषाराम से संपर्क गांठा और मुलाकान भी हो ही गयी। आजकल आषाराम बाबा को खोजना बहुत आसान हो गया है। क्योंकि मीडिया उनकी पल-पल हर पल की खबर देता रहता है। बाबा जी से मुलाकात हुई तो मैंने पूछा-‘‘बाबा कैसे बना जाता है?’’ आषाराम थोड़े सोच में पड़ गए। फिर अपने बीते दिनों को याद करते हुए बोले-‘बच्चा! बाबा बनने के लिए आपको चमत्कार करना होगा। ऐसा चमत्कार जो आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडिएट’ में चतुर रामालिंगम राजू ने किया है।’’ मैं कुछ समझ नहीं पाया। अब मुझे एहसास हुआ कि फिल्में भी बाबा बनने के लिए देखना आवष्यक है। बाबा मेरी विवषता को समझते हुए अपनी बातों को स्पष्ट किया। जो बाबा ने कहा मैं आप से साझा नहीं कर सकता हूं। क्योंकि यह व्यवसायिक गुप्त बात है। अपनी रणनीति को चाहे वह किसी भी क्षेत्र की हो उजागर नहीं करना चाहिए। इसीलिए मैं आपको नहीं बता रहा हूं। पहली ही मुलाकात में बाबा ने अपने जैसे कईयों के नाम बता दिए जो आज मजे की जिन्दगी काट रहे हैं। साथ ही सफलता के नुस्खे भी हमारे सामने रख दिए। 
अब आपकी राय आपेक्षित है।
भारत का एक भावी
बाबा

आज भारतीयों की सादगी दिखी

हमारे देश में  नया साल दो बार आता है
एक धूम धमाके के साथ
और एक सादगी के साथ
पहले वाला नया साल आयातित है
दुल्हन है
इसलिए तो उस दिन खूब धूम धड़ाका होता है
और दूसरा
अपने देश का
वैसे आज भी आम भारतीय सादगी पसंद है
बाजार की चमक  गावं अभी बचे हैं
लेकिन कब तक
कोई इसे घर की मुर्गी दाल बराबर कह सकता है
पर मै तो इसे देश की महानता मानता हु
आपका क्या विचार है 

सोमवार, 31 मार्च 2014

आओ आज गम्भीर चिंतन करें

बहुत दिनों के बाद सोच रहा हु आज कुछ गम्भीर सोचु
लेकिन किस विषय में सोचु
कुछ मिल नहीं रहा है
राजनीती पर सोचने से पहले ही सोच
विचार आ जाता है कि
यह तो गंदे नाले से भी ज्यादा गन्दी हो गयी है
आरोप प्रत्यारोप और गली गलौच
राजनीती का विषय हो गया है
गरीबों के बारे में सोचने पर पता चलता है कि
उन पर तो पहले से ही गरीबों के ठेकेदारों ने कब्ज़ा जमा रखा है
केवल अपनी ठेकेदारी के वास्ते
शिक्षा के बारे में सोचने पर पता चलता है कि
यह तो महज पास होने के लिए हो गयी है
येन केन प्रकारेण परीक्षा पास हुआ जाया
कहीं भी गम्भीरता से कोई काम होता नहीं दीखता है
केवल दिखावा है
सब दिखावा है
निज स्वार्थ अपना हित है
इसी के लिए लोग आम और खास आदमी बन जाते हैं

आखिर कब तक चलेगा यह खेल

पंचायत का फैसला। सामूहिक दुष्कर्म। आरोप। जांच। दण्ड की मांग। पीड़िता से मिलना। पीड़िता के लिए कुछ मुवावजे की घोषण। परिवार के लोगों को सुरक्षा। प्यार जुर्म हो गया है। सामुहिक दुष्कर्म उस जुर्म को खत्म करने का तरीका। कुछ ऐसा ही कारनामें करती हैं हमारे देष की खाप पंचायतें। उच्चतम न्यायालय ऐसी पंचायतों पर रोक लगाती है लेकिन पुलिस कुछ कर नहीं पाती है। आखिर कब तक चलेगा यह गंदा खेल। कब तक हम इंतजार करते रहेंगे अगले षिकार की। जब किसी लड़की के साथ दुष्कर्म होता है तो हमें याद आती हैं धाराएं, कानून। उसके पहले हम इंतजार करते रहते हैं अगले षिकार होने वाली की।
देष में ऐसे ही कम दुष्कर्म के मामले आते हैं क्या। जो पंचायतें भी इस काम को आगे बढ़ाने में लगी हुई है। समझ में नहीं आता है कि ये पंचायते होती किस लिए है। लोगों के रक्षण के लिए या भक्षण के लिए। जहां तक मैंने आज तक पंचायतों की खबरों को पढ़ा या सुना है रक्षण या समाज के उत्थान की एक भी खबर मुझे आज तक पढ़ने को नही मिली है। केवल मिलती है तो सजा की। पंचायत नहीं अदालत हो गयी है। सारे फैसले कर लेती है। सजा भी वह जो मानवता के ही खिलाफ हो। कभी अपने नवजात बच्चे को फेंकने का आदेष तो कभी सामूहिक दुष्कर्म की सजा। मुझे हरिषंकर परसाई जी का वह व्यग्ंय याद आता है जिसमें कहा गया कि शादी करने से जाति है बच्चे पैदा करने से नहीं। ठीक वैसे ही प्यार करने से मुंछ नीची होती है समाज की, दुष्कर्म करने से तो पुरुषत्व का पता चलता है। पंचायतें वैसे भी पुरुषवादी होती हैं। खासकर के खाप पंचायतें। यहां महिलाओं को किसी भी तरह का अधिकार नहीं है चाहे वह संविधान प्रदत्त हो या समाज प्रदत्त। यहां केवल वे एक उत्पाद हैं जिसे समाज के तथाकथित ठेकेदार जैसा चाहें फैसला सुना सकते हैं।
दिल्ली दुष्कर्म के बाद से देष में वैसे भी दुष्कर्म के मामलों की बढ़त होती सी लगती है। आए दिन समाचार पत्रों में इससे संबंधित खबर जरुर होगी। ऐसा लगता है कि इसके बिना समाचार पत्र बन ही नहीं सकते हैं। जरुरी भी है। जहां तक हो पाता है पुलिस दबाने की कोषिष तो करती है लेकिन एक बार मीडिया में जब बात आ जाती है तो पुलिस भी थोड़ा सजग दिखने लगती है। एक सर्वे के अनुसार भार में हर 5 में से 1 महिला के साथ दुष्कर्म होती है। फब्तिया ंतो लगभग हर महिला पर होती है। कोई भी महिला इससे बच नहीं पाती है। यह मानसिक दिवालियपन नहीं है पंचायतों को और क्या है।
हाल की घटना किसी और प्रांत की नहीं ऐसे राज्य की है जहां की मुख्यमंत्री भी एक महिला ही है। पष्चिम बंगाल की है। सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं सरकार में आकर भी अपने लिए एक सुरक्षात्मक कानून नहीं बना सकती है। महिलाओं को आरक्षण लोकसभा और विधानसभा में दिया जाता है जिससे कि उनका प्रतिनिधित्व हो सके। पंचायतों में तो 50 प्रतिषत तक आरक्षण दिया गया है लेकिन क्या वे इसका उपयोग कर पाती है। सही तरीके से कहना तो बेइमानी होगी। मुझे नहीं लगता है कि विधायिकाओं मेें महिलाओं का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भी वे भारत की महिलाओं का
प्रतिनिधित्व कर पाती है। राजनीति में आने के बाद वे तो सुरक्षित हो जाती हैं और चिंता होती है तो केवल अपनी कुर्सी की। जिस काम के लिए उनका चुनाव किया जाता है वह कुर्सी पर आकर खत्म हो जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि महिलाओं को कैसे सुरिक्षत किया जा सकता है।
सामाजिक दिवालियापन के मामलों में लगातार वृद्धि होती जा रही है लेकिन हमारे देष के तथाकथित समाजषास्त्री इस पर मौन हैं। इस समस्या से कैसे निपटा जाए तथा लोगों में जागरुकता कैसे लाई जाए इस पर कोई भी शोध करने उनके लिए गवारा हो गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन तथा समस्याओं से निपटने के लिए समाजषास्त्रियों के पास कोई उपाय नहीं मिलता है। वे केवल इसे मानसिक विक्षप्तता मान लेते हैं। आष्चर्य की बात यह है कि हमारे देष में उच्च षिक्षा में शोध का प्रवधान किया गया है लेकिन वह केवल खानापूर्ति के लिए होते हैं। सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए गहन शोध की आवष्कता है। आज हालत ऐसी हो गयी है कि बिना मर्ज का पता लगाए है दवा दी जा रही है। कानून पर कानून। एक और कानून। लेकिन समस्या जस की तस। आखिर इतने कानून के बावजूद भी समस्या वैसे ही बनी हुई है इससे यही माना जा सकता है कि या तो लोगों को कानून का कोई डर नहीं है या समस्या को सही तरीके तरीके से समझने की कोषिष नहीं की गई। केवल वातानुकूलित कमरे में बैठकर कानून बना दिया गया और उसे समाज पर थोप दिया गया जो वास्तविक समस्या से कोई सरोकार नहीं रखता है।
जहां तक मेरेी समझ है समस्या का सही तरीके से जाना ही नहीं गया है। समाज में आ रहे परिवर्तन पर कोई शोध ही सही तरीके से नहीं किया गया है। विष्वविद्यालय अनुदान आयोग सेमिनार, परिचर्चा जाने किस किस चीज के लिए पैसा देती है लेकिन कोई महत्व की बात नहीं निकल रही है। इसके पीछे कौन जिम्मेदार है। लोग वहां केवल प्रमाणपत्र और खाना खाने के लिए आते हैं। इसके इतर और किसी चीज से किसी का कोई सरोकार नहीं होता है। सबकुछ महज खानापूर्ति। ऐसे में तो कितने भी कानून बना लिए जाए समाज की समस्या का समाधान कर पाना संभव नहीं है। जब तक कि इस पर गहन विचार विमर्ष न किया जाए तथा इसका कोई रास्ता निकाला जाए। आज समय समाज के मनोविज्ञान को समझने का है। चाहे वह खाप पंचायत के संदर्भ में हो या किसी और समस्या के संबंध में।
उमेष कुमार

रविवार, 30 मार्च 2014

भारत भाग्य विधाता

खूब पढ़ लिया हमने
जन गण मन अधिनायक जय हे 
भारत भाग्य विधाता 
समझ नहीं आया अब तक भी 
है कौन हमारा भाग्य विधाता 
५ साल में एक बार जनता बनती भाग्य विधाता 
बाकी समय कौन है भाग्य विधाता 
लोकतंत्र की ही महिमा है 
देव कभी याचक तो 
याचक कभी देव बन जाते हैं। 

शनिवार, 22 मार्च 2014

क्या छपता है अखबारों

आज जब मैं अखबारों के पन्ने पलट रहा हूं
सुबह के सात बज रहे हैं
कि
अचानक एक पृष्ट पर मेरी नजर रुक जाती है
बुन्देलखण्ड जागरण
पूरा पृष्ट देखा
पूरा बुन्देलखण्ड देखा
एक नया राज्य बनने को आतुर बन्देलखण्ड
पूरे पृष्ट पर कहीं भी नहीं था विकास
कहीं भी नहीं थी
पानी, बिजली, सड़क जैसी मूलभूत समस्याएं
कहीं भी नहीं था किसानों के हितों की बातें
बुन्देलखण्ड जागरण में केवल अपराध था
पृष्ट पर लगभग 15 खबरें हैं
जिनमें से 11 खबरें
हत्या, मौत, मारपीट
लडाई, दंगा और लूटपाट की
सवाल यह नहीं कि अखबार में क्या छपा है
सवाल यह है कि क्या बुन्देलखण्ड ऐसा ही राज्य बनने जा रहा है
क्या इसे एक राज्य का रुप देेने में लगे लोग ऐसा ही बुन्देलखण्ड बनाना चाह रहे हैं
क्या रानी लक्ष्मीबाई ऐसे ही बुन्देलखण्ड के लिए शहीद हुई थी
इन सब सवालों के अन्दर जाने पर हमें दिखाई देती है
एक वेदना
जो कहा रही है
बुन्देलखण्ड वीरों की धरती है
चोरांे, लुटेरों की नहीं

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

यह यह चुनावी साल है

 भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्यौहार है
यह चुनावी साल है
सज गया है चुनावी मैदान
कुछ  परेशान तो कुछ हैरान हैं
यह चुनावी साल है
लाल परेशां हैं अपने ही सागो से
मोदी की जय जय कार है
केजरीवाल आप के साथ थे
और आप के साथ हैं
लोकपाल का पता नहीं
बाकी सारा काम है

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

ये मीडिया चाहती क्या है

माँ, बहन, बेटियों जैसी बच्चियां
आइटम गर्ल बनाई  जाती हैं
सुरक्षित होने का सूत्र बताने की जगह
सुंदर दिखने के नुख्से बताती है
आखिर ये मीडिया चाहती क्या है।
समाचार पत्रों के महिला विशेष पृष्ठ पर
खाना बनाना और घर सजाना बताया जाता है
न अर्थ की बात न निति की बात
बात केवल वेश-भूषे की होती है
आखिर ये मीडिया महिलाओ को
बनाना क्या चाहती है . 

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

पत्थर बनाने के सिवा

सोना सोना होता है
और
सोना सोना होता है
पत्थर से सोना बनता है
पर यहाँ तो
सोने से पत्थर बनता है
यह एक युग का अंत है
या
युग कि शुरुआत है
शायद नए युग की शुरुआत है
कितना कुछ तो झेल चूका है वह
भ्रष्टाचार, आत्याचार, दुराचार, व्यभिचार
बलात्कार, मारकाट
ये जितने "चार" और "कार" हैं
सब तो सह चूका है वह
आखिर अब बचा ही क्या है
पत्थर बनने की सिवा।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

कैसे सुधरेगी स्थिति


बीमारु राज्य। भारत में बीमारु राज्य का दर्जा कुछ राज्यों का तो अनायास दिए गए हैं और ही यह चलन नया है। बिहार, उत्तर प्रदेश राजस्थान और मध्यप्रदे आज के बीमार राज्य नहीं हैं। समस्या यह है कि इन राज्यों की सरकारें इसकी बीमारी का इलाज नहीं करना चाहती हैं।
अब उत्तरप्रदे को ही ले लिजिए। देश में एक साल में बर्ड फ्लू या एड्स या अन्य बीमारी से जितने लोग काल के गाल में नहीं समाते हैं उससे अधिक उत्तर प्रदे में दिमागी बुखार से मर जाते हैं। पिछले सात सालों में इस बीमारी से लगभग 4000 मौतें हो चुकी हैं और 19000 के आसपास इससे पीडि़त है। लेकिन इस पर तो कोई राजनीतिक दल या सरकार कोई ध्यान देती है और ही स्वयं सेवी संस्थाएं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सभी पार्टियों ने इस बीमारी से निजात दिलाने की प्रतिबद्धता अपने घोषणापत्रो में की है लेकिन चुनाव में यह एक मुद्दा नहीं बन सका है। स्वयं सेवी संस्थाएं तो स्वयं की सेवा के लिए ही बनाई गई हैं।
उत्तरप्रदे में स्वास्थ्य के लिए जो धन आवंटित होता है वह सीधे भ्रष्टाचार को चढ़ जाता है। 85000 करोड़ का राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाला इसी समझने के लिए बहुत है। इस घोटाले से संबंधित जांच जब आगे बढ़ती है तो ‘‘एक और मौत’’ हो जाती है। अभी तक इस जांच में 7 मौतें हो चुकी हैं। आखिर राज्य बीमार है तो मौत तो होंगी ही।
मध्यप्रदेश। राज्यगीत है- सबका दाता, दुःख का साथी, सुख का यह संदेश है, पिता की गोदी मां का आंचल अपना मध्यप्रदेश है। इसको तो सुनने के बाद दुष्यंत कुमार की ये लाइनें ‘‘यहां तो दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो चलें कहीं नया आशियाँ बनाएं’’ याद आता है। इस प्रदेश में जन्म के समय 1000 में 62 बच्चे मौत के शिकार हो जाते हैं। जबकि गोवा और केरल में क्रमशः 10 और 13 है। यही नहीं ‘‘हंगर रिपोर्ट’’ बताती है कि कुपोषण के सबसे ज्यादा मामले मध्यप्रदेश में ही हैं। यह राज्य कभी सुख का साथी बनेगा, ऐसा मुझे लगता नहीं है।
बीमार को दवा की जरुरत होती है। और साथ ही कुशल चिकित्सक की। खेद यही है कि एक राज्य ‘‘घोषणावीर शिव ’’ के हाथों में है जो अपने सिपहसलारों को मुंह मांगा वरदान देते हैं। तो एक ‘‘माया’’ के हाथ में है। कबीर दास ने कहा ही है ‘‘माया महा ठगिन हम जानी’’

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

फेसबुक से कुछ चुराया हुआ


अंकित कुमार

एक पैग में बिक जातें हैं, जाने कितने खबरनबीस,

सच को कौन कफ़न पहनता, ये अखबार न होता तो.

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प्रशांत कुमार


जब विज्ञापन देने वाले ही बादशाह हों तो कामगार लोग सिर्फ़ शांत उपभोक्ता हो सकते हैं समाचार का एजेंडा तय करने वाले सक्रिय लोग नहीं.

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संजय कुमार श्रीवास्तव

हमेशा समाज का बौद्धिक सोच वाले बुद्धिजीवी वर्ग ही दुविधाओं का समाधान करता था..परन्तु आज का तथाकथित बुद्धिजीवी कोई दांयीं ओर चलता है तो कोई बाँयीं ओर, और बाकी बचे हुए किसी धर्म या जाति विशेष से खुद

को जोड़ लेते हैं और फ़िर हमेशा उसी वर्ग के ही हितों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जबकि पूर्ण समाज की उन्हें कोई फिक्र नहीं होती..लोग ऐसे ढोंगी और पाखंडी समाज सुधारकों को दरकिनार कर दें तो आज की आधी समस्या स्वतः मिट हो जायेगी..

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आशुतोष शुक्ल


स्वामी अग्निवेश टीम अन्ना से अलग हो गए हैं.... कह रहें हैं कि अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर अलग हो रहा हूं...... कहीं इस अंतरआत्मा का नाम कांग्रेस तो नहीं...???

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सनद गुप्ता

ये सरकार सटक गई है....



अब आप ही बताएं क्‍या होगा इस देश का...मुझे समझ में नहीं आता कि आम आदमी के हक में फैसला लेने में सरकार को दिक्‍कत क्‍या है...आज सरकार ने साफ कहा कि अन्‍ना अनशन करते हैं तो करते रहें...किरण बेदी ने कहा कि कल सरकार हमारी बातें सुन रही थी लेकिन आज की मीटिंग में सरकार हमें डांट रही थी...अन्‍ना चाहते हैं कि हर विभाग सिटिजन चार्टर बनाए...सरकारी दफ्तरों में किसी काम को करने के दिन तय हों...यानि अगर आप जाति प्रमाण पत्र बनवाने जाते हैं तो इसमें कितने दिन का वक्‍त लगेगा...अगर तय मियाद के अंदर काम नहीं होता है तो जिम्‍मेदार अफ़सर की तन्‍ख़्वाह कटे...अब ये समझ नहीं आता कि आखिर आम आदमी जो रोज़-रोज़ अफ़सरशाही की चक्‍की में पिसता है उसे मुक्‍त करने में सरकार को क्‍या दिक्‍कत है...बड़ी शर्मनाक बात है कि सरकार आम आदमी की दुश्‍मन की तरह बरताव कर रही है..........