रविवार, 30 नवंबर 2008

क्या चाहते हो?

फूल खिलने से पहले ही मुरझा जाए
उस बाग के माली क्या चाहते हैं।
अपने ही घर में हम सहमें रहें
इस घर के मालिक क्या चाहते हैं।
वारदातें होती रहें और लोग मरते रहें
इस देश के नेता क्या चाहते हैं।
जले सारा देश आतंकवाद की आग में
हमारे नीतिनिर्माता क्या चाहते हैं।
अभी तक जितने मरे इन वारदातों में
उनसे भी अधिक क्या चाहते हो
कुछ नही चाहते हैं।
चाहोगे भी तो क्या चाहोगे?
अपनी कुर्सी के लिए वोट चाहोगे
वोट के लिए एक दुसरे को लड़वाओगे
एक का पक्ष तुम और दुसरे का तुम्हारा विपक्षी ले लेगा
और कुर्सी Tअरह बची रहेगी
धिक्कार है तुम्हारी इच्छशक्ति की
कोई भी तुम्हारे घर में तुम्हे डरा जाता है
और तुम
" हम इसकी निंदा करते हैं "

किसका बाल-दिवस

चौदह नवम्बर को एक तस्वीर देखी
समाचार पत्रों में,
चाचा के साथ खड़े थे
कोट पहने तीन बच्चें
अखबारी दुनिया से
आठ बजे तक बाहर आया
सड़क पर मैला उठाते
एक बच्चा देखा
अब बताओ
यह बाल दिवस किसके लिए ?
नही समझे
अरे भाई
कोट वालों के लिए
और किसके लिए।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

असुरक्षित बच्चों का बाल- दिवस

१४ नवम्बर यानि की बाल दिवस। हां, १४ नवम्बर को बाल दिवस था। सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि बाल दिवस का अर्थ क्या है। हमरे देश में चाहे स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस, पर्यावरण दिवस या एड्स दिवस सभी महज एक खाना पूर्ति बन गए हैं। तो इसमे बाल दिवास अपने उद्देस को कैसे प्राप्त कर सकता है। यह एक गंभीर सवाल है।
भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गयी है की १४ साल से कम आयु के सभी बच्चों को शिक्षा मिलनी चाहिए। लेकिन आकडों पर नजर डाला जाए तो केवल मध्य प्रदेश में १६५ हजार बच्चे अपना छठा जन्मदिन भी नही मन पाते हैं। इसी राज्य में लगभग १२०० हजार बच्चें कुपोषण के शिकार हैं। इस स्थिति में देश की पहली प्राथमिकता कुपोषण को दूर करना होना चाहिए न कि शिक्षा कि व्यवस्था में सुधर की।
सुबह से लेकर शाम तक बच्चे छोटे छोटे होटलों में काम करते दिखाई देते रहतें हैं। हद तो तब हो जाती है जब नगर निगम की कूड़ा उठाने वाली गाड़ी पर छोटे छोटे बच्चे बैठ कर कूड़ा उठाने जाते हैं। कानून को लागु करने वाली सत्ता ही कानून का उल्लंघन सबसे ज्यादा करती है। बाल मजदूरी पर प्रतिबन्ध के बावजूद १०-१६ साल तक के बच्चों को सस्ती मजदूरी की दर पर लगा देता है। उन बच्चों के लिए बाल दिवस का क्या मतलब है यही पता लगना मुश्किल है। वैसे आज हमारे देश में बच्चे केवल बाल दिवस का अर्थ ही नही उन्हें स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस का भी मतलब नदारद टूर पर ही पता होता है। इसका मतलब उनके लिए केवल छुट्टी का दिन होता है।
आधुनिक विकास कि अंधी दौड़ में सब जगह अँधेरा ही अँधेरा है। मानवाधिकारों के हनन के मामले को देखा जाए तो सबसे ज्यादा ज्यादा हनन बाल अधिकारों का हो रहा है। घर से बाहर खेलने के लिए निकलना उनके लिए दूभर हो जाता है। जितना वजन एक बच्चे का नही होता है उससे ज्यादा वजन का बसता उसे उठा कर स्कूल जाना पड़ता है। स्कूल से वापस आने पर कोचिंग, कोचिंग के बाद स्कूल का होमवर्क । बस यही दिनचर्या बन जाती है बच्चों की। परीक्षा में कम अंक आने पर घरवालों की डाट-फटकर । इस सबसे ग्रसित हो कर बाल मन अपनी जीवनलीला को ही समाप्त कर लेना चाहता है और बहुत से बच्चे ऐसा कर भी डालतें है।
कभी यदि बच्चे खेलने निकल जाते हैं तो डर इस बात का बना रहता है कि वे किसी समस्या में न फस जाएँ। आए दिन संचार पत्रों में इस प्रकार की खबरें आती रहती हैं कहीं प्रिंस तो कहीं कोई और मन कि कभी कभार बच्चों को जीवित निकल लिया जाता है लेकिन क्या उनकी उस २४-४८ घंटे कि तड़प को समझा जा सकता है।
शेष फ़िर

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

आतंकवाद

देश में आतंकवादी वारदातें बढती जा रही हैं। आज इंदौर में तो कल अहमदाबाद में। दिल्ली हो या भोपाल सभी आतंकवाद के साये में जी रहे हैं। आतंकवादी वारदातों के बाद सक्रिय हुई देश की पुलिस तथा जाँच एजेंसियां आनन-फानन में दो- चार लोगों को पकड़ लेती हैं। इतने में ही उनके कर्तव्यो की इतिश्री हो जाती है।
ऐसा कब तक चल सकता है। इसके लिए देश की सरकार को चाहिए कि वह कोई कारगर कदम उठाये। सरकार का काम केवल यहीं तक सिमित न रह जाए कि वह बयान जरी कर दे। आतंकवादी मानसिकता के पीछे एक मानसिकता काम करती है। जिसका मानना है कि हमारे देश कि सरकार कोई उपयोगी काम नही कर रही है।
आयु-वर्ग में आतंकवादियों को देखा जाए तो युवा वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है। कहीं न कहीं यह वर्ग aपने भविष्य को लेकर बहुत ही ज्यादा परेशान रहता है। उसे कोई बिकल्प दिखाई न देने पर वह आतंकवाद की ओर चला जाता है। जहाँ उसे हर प्रकार की सुविधाएं दी जाती हैं। इसी के साथ उनके अन्दर देशविरोधी भावनाएं दल दी जाती हैं। पहले से ही गुस्साए इस वर्ग में यह काम बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।
एक व्यक्ति जिसे दिन में दो बार खाने को न मिले उसे देश प्रेम कितना होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। देश की जनसँख्या कहने को तो केवल २३ फीसद ही गरीब है लेकिन विश्व के मान दण्डों के आधार pr देखा जाया तो यह लगभग ७० फीसद है। सरकार के लिए सेज, परमाणु करार एक मुद्दा बन सकता है लेकिन गरीबी केवल घोषणा पत्र तक ही सिमित रहती है। जीवन जीने की मूल भूति आवश्यकता भी लोगों की पूरी नही होती हैं। कोई भी व्यक्ति उस स्थिति में अपनी जान को दांव पर लगाने को तैयार होता है जब उसे लगता है की सामने वाला उसे ख़त्म कर देगा या उसके अधिकारों का हनन करेगा।
हमारे देश की सरकार देश की कुल युवा शक्ति का जो कुल जनसँख्या का ५० फीसद है, निर्माण में नही लगा प् रही है। इससे वह विध्वंसक कार्यों में स्वत ही लग जाती है। आतंकवाद की शुरवात असंतोष से होती है। यह बात सही है की यदि आतंकवादी देश को बदलना चाहते हैं तो लोकतान्त्रिक रास्ता अपनाए। लेकिनऐसा प्रतीत होता है की उनका विश्वास लोकतंत्र में ही नही रह गया है।
विश्व समुदाय आज आतंकवाद कोई जड़ से मिटने की बात करता है लेकिन वह उसकी जड़ ही नही देखता हैं। बिना जड़ देखे उसे मिटाना संभव प्रतीत नही होता है। केवल कठोर से कठोर कानून बना देने से आतंकवाद का सफाया नही हो सकता है। कानून आतंकवादियों को काम लेकिन निर्दोष लोगों को ज्यादा परेशान करता है । वारदात को अंजाम देने वाले तो अपना काम करके चले जाते हैं। और उसके बाद लागु कर्फ्यू लोगों के लिए परेशानी का सबब बन जाते हैं। भारत, अमेरिका, इंग्लैंड जैसे लगभग ५० देशों में आतंकवाद के खिलाफ बहुत ही कठोर कानून है लेकिन वहन पर आतंकवादी वारदातें आज भी होती हैं।
विश्व से यदि आतंकवाद की समस्या को जड़ से मिटाना है तो उसे सभी के लिए समानता की व्यवस्था करनी पड़ेगी । बढती बेरोजगारी गरीबी और लोगों के अधिकारों का हनन जब तक जरी रहेगा टीबी तक अत्नाक्वाद को मिटा पाना संभव नही है। विश्व सन्ति की नीव सर्वस्व विकास में स्थित है। अता हम केवल कानून के द्वारा आतंवाद को समाप्त करने का स्वप्न नही देखना चाहिए। इसके विपरीत हमें कुछ सार्थक काम करना चाहिए।

रविवार, 28 सितंबर 2008

हाय-हाय

कुछ भी हो तो हाय होगा
अच्छा हो तो भी हाय
कोई मिले तो भी हाय
सब हाय-हाय करते हैं
दुनिया ही एक हाय हो गयी
कोई मरता है तो कहता है हाय
कोई मर जाता है तो सब कहते हैं हाय
हाय सुख भी, हाय दुःख भी
हाय ही सब कुछ है।
कोई मांग हो तो हाय
हड़ताल हो तो भी हाय
सब जगह हाय है
इसलिए तुम और हम अब
बस हाय-हाय हैं।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

हिन्दी दिवस

आख़िर हम हिन्दी दिवस क्यों मानते हैं? क्या इस दिन केवल हिन्दी को ही भारत के संविधान में स्थान दिया गया। आज माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यायल में '' भारतीय भाषा में एक अन्तर संवाद'' विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। इसमें जाने मने साहित्यकार एवं पत्रकार बालशौरी रेड्डी , मालती जोशी और रामदेव शुक्ल ने वक्तव्य दिए।
रामदेव शुक्ल ने एक कहानी सुनते हुए कहा की माना मैअपनी माता को बहुत अच्छी-अच्छी उपमाओं से संबोधित करते हैं लेकिन पड़ोस की अन्य महिलाओं को गली देते हैं। तो क्या हमें यह विश्वास करना चाहिए की हमारे पड़ोसी हमारी माँ को सम्मान करेंगे। जहाँ तक मेरा मानना है ऐसा नही होगा। ठीक यही हिन्दी की स्थिति है। यदि हम हिन्दी को ही सबसे अच्छी भाषा मान ले और अन्य भारतीय भाषा की आलोचना करें तो क्या गैर हिन्दी भाषी हिन्दी का सम्मान करेंगे। हिन्दी पूरे देश में बोली जाती है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जो त्रि भाषा सूत्र दिया था वह आज भी लागु होता है। हम हिन्दी भाषी लोगों को अपने दामन में झांक कर देखना चाहिए की हम कितनी भारतीय भाषा जानते हैं। हिन्दी और इंग्लिश (अंग्रेजी) को तो मिला कर हिंगलिश बना लेते है। तो हिन्दी और किसी भारतीय भाषा को मिला कर क्यों नही बना सकते है।
भारत में हिन्दी को राज भाषा कहा जाता है। लोकतंत्र को बहुत समय तक प्रजातंत्र कहा जाता था। ( कुछ लोग अभी भी इसका प्रयोग करते हैं।) राजा राज्य करता है। और उसी की प्रजा होती है। इसीलिए यदि हिन्दी को राज्य भाषा कहा जाए तो इसका मतलब यही मानना चाहिए की हिन्दी भाषी लोगों को लोकतंत्र का ज्ञान नही है। मेरा मानना है की हिन्दी को राज भाषा न मानकर लोकभाषा मानना चाहिए ।
भाषा का निर्माण कहाँ होता है। और कौन करता है आप उसे साहित्यकार या उसकी पुस्तक बता सकते हैं लेकिन हकीकत कुछ अलग ही है। इसका निर्माण वे करते हैं जिन्हें शायद भाषा शब्द ही पता न हो। मेरा मानना है की प्रत्येक हिन्दी भाषी को कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा को जरुर सिखाना चाहिए।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

काले-बादल


कभी देखकर तुम्हें मन मयूर हो जाता है,

कभी तेरे रूप से मन मायूस हो जाता है।

जब महीना सावन भादौं का हो,

तब तेरा रूप सिलोन लगता है।

आने से तेरे घर-घर में

खुशियों की बारिस हो जाती है।

पर देखा तुम्हारा यही रूप मुझे क्रोध बहुत ही आता है।

महीना चैत वैशाख का हो खेतों में सोना पड़ा रहे।

तुम उसे अपनी छाया में लेकर

मिटटी में मिला देते हो।

धिक्कार है उस भगवान को, जिसने तुम्हे बनाया होगा।

तेरा प्यार हमें कम ही मिलता है पर दुख ज्यादा ही होता है।

पर सर्व्सत्ताशायी हो तुम, इतना अन्याय मत करो

कर जोड़ विनती है हम सब की कुछ हमारा भी ध्यान धरो।