बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

आतंकवाद

देश में आतंकवादी वारदातें बढती जा रही हैं। आज इंदौर में तो कल अहमदाबाद में। दिल्ली हो या भोपाल सभी आतंकवाद के साये में जी रहे हैं। आतंकवादी वारदातों के बाद सक्रिय हुई देश की पुलिस तथा जाँच एजेंसियां आनन-फानन में दो- चार लोगों को पकड़ लेती हैं। इतने में ही उनके कर्तव्यो की इतिश्री हो जाती है।
ऐसा कब तक चल सकता है। इसके लिए देश की सरकार को चाहिए कि वह कोई कारगर कदम उठाये। सरकार का काम केवल यहीं तक सिमित न रह जाए कि वह बयान जरी कर दे। आतंकवादी मानसिकता के पीछे एक मानसिकता काम करती है। जिसका मानना है कि हमारे देश कि सरकार कोई उपयोगी काम नही कर रही है।
आयु-वर्ग में आतंकवादियों को देखा जाए तो युवा वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा है। कहीं न कहीं यह वर्ग aपने भविष्य को लेकर बहुत ही ज्यादा परेशान रहता है। उसे कोई बिकल्प दिखाई न देने पर वह आतंकवाद की ओर चला जाता है। जहाँ उसे हर प्रकार की सुविधाएं दी जाती हैं। इसी के साथ उनके अन्दर देशविरोधी भावनाएं दल दी जाती हैं। पहले से ही गुस्साए इस वर्ग में यह काम बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।
एक व्यक्ति जिसे दिन में दो बार खाने को न मिले उसे देश प्रेम कितना होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। देश की जनसँख्या कहने को तो केवल २३ फीसद ही गरीब है लेकिन विश्व के मान दण्डों के आधार pr देखा जाया तो यह लगभग ७० फीसद है। सरकार के लिए सेज, परमाणु करार एक मुद्दा बन सकता है लेकिन गरीबी केवल घोषणा पत्र तक ही सिमित रहती है। जीवन जीने की मूल भूति आवश्यकता भी लोगों की पूरी नही होती हैं। कोई भी व्यक्ति उस स्थिति में अपनी जान को दांव पर लगाने को तैयार होता है जब उसे लगता है की सामने वाला उसे ख़त्म कर देगा या उसके अधिकारों का हनन करेगा।
हमारे देश की सरकार देश की कुल युवा शक्ति का जो कुल जनसँख्या का ५० फीसद है, निर्माण में नही लगा प् रही है। इससे वह विध्वंसक कार्यों में स्वत ही लग जाती है। आतंकवाद की शुरवात असंतोष से होती है। यह बात सही है की यदि आतंकवादी देश को बदलना चाहते हैं तो लोकतान्त्रिक रास्ता अपनाए। लेकिनऐसा प्रतीत होता है की उनका विश्वास लोकतंत्र में ही नही रह गया है।
विश्व समुदाय आज आतंकवाद कोई जड़ से मिटने की बात करता है लेकिन वह उसकी जड़ ही नही देखता हैं। बिना जड़ देखे उसे मिटाना संभव प्रतीत नही होता है। केवल कठोर से कठोर कानून बना देने से आतंकवाद का सफाया नही हो सकता है। कानून आतंकवादियों को काम लेकिन निर्दोष लोगों को ज्यादा परेशान करता है । वारदात को अंजाम देने वाले तो अपना काम करके चले जाते हैं। और उसके बाद लागु कर्फ्यू लोगों के लिए परेशानी का सबब बन जाते हैं। भारत, अमेरिका, इंग्लैंड जैसे लगभग ५० देशों में आतंकवाद के खिलाफ बहुत ही कठोर कानून है लेकिन वहन पर आतंकवादी वारदातें आज भी होती हैं।
विश्व से यदि आतंकवाद की समस्या को जड़ से मिटाना है तो उसे सभी के लिए समानता की व्यवस्था करनी पड़ेगी । बढती बेरोजगारी गरीबी और लोगों के अधिकारों का हनन जब तक जरी रहेगा टीबी तक अत्नाक्वाद को मिटा पाना संभव नही है। विश्व सन्ति की नीव सर्वस्व विकास में स्थित है। अता हम केवल कानून के द्वारा आतंवाद को समाप्त करने का स्वप्न नही देखना चाहिए। इसके विपरीत हमें कुछ सार्थक काम करना चाहिए।

रविवार, 28 सितंबर 2008

हाय-हाय

कुछ भी हो तो हाय होगा
अच्छा हो तो भी हाय
कोई मिले तो भी हाय
सब हाय-हाय करते हैं
दुनिया ही एक हाय हो गयी
कोई मरता है तो कहता है हाय
कोई मर जाता है तो सब कहते हैं हाय
हाय सुख भी, हाय दुःख भी
हाय ही सब कुछ है।
कोई मांग हो तो हाय
हड़ताल हो तो भी हाय
सब जगह हाय है
इसलिए तुम और हम अब
बस हाय-हाय हैं।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

हिन्दी दिवस

आख़िर हम हिन्दी दिवस क्यों मानते हैं? क्या इस दिन केवल हिन्दी को ही भारत के संविधान में स्थान दिया गया। आज माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यायल में '' भारतीय भाषा में एक अन्तर संवाद'' विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। इसमें जाने मने साहित्यकार एवं पत्रकार बालशौरी रेड्डी , मालती जोशी और रामदेव शुक्ल ने वक्तव्य दिए।
रामदेव शुक्ल ने एक कहानी सुनते हुए कहा की माना मैअपनी माता को बहुत अच्छी-अच्छी उपमाओं से संबोधित करते हैं लेकिन पड़ोस की अन्य महिलाओं को गली देते हैं। तो क्या हमें यह विश्वास करना चाहिए की हमारे पड़ोसी हमारी माँ को सम्मान करेंगे। जहाँ तक मेरा मानना है ऐसा नही होगा। ठीक यही हिन्दी की स्थिति है। यदि हम हिन्दी को ही सबसे अच्छी भाषा मान ले और अन्य भारतीय भाषा की आलोचना करें तो क्या गैर हिन्दी भाषी हिन्दी का सम्मान करेंगे। हिन्दी पूरे देश में बोली जाती है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जो त्रि भाषा सूत्र दिया था वह आज भी लागु होता है। हम हिन्दी भाषी लोगों को अपने दामन में झांक कर देखना चाहिए की हम कितनी भारतीय भाषा जानते हैं। हिन्दी और इंग्लिश (अंग्रेजी) को तो मिला कर हिंगलिश बना लेते है। तो हिन्दी और किसी भारतीय भाषा को मिला कर क्यों नही बना सकते है।
भारत में हिन्दी को राज भाषा कहा जाता है। लोकतंत्र को बहुत समय तक प्रजातंत्र कहा जाता था। ( कुछ लोग अभी भी इसका प्रयोग करते हैं।) राजा राज्य करता है। और उसी की प्रजा होती है। इसीलिए यदि हिन्दी को राज्य भाषा कहा जाए तो इसका मतलब यही मानना चाहिए की हिन्दी भाषी लोगों को लोकतंत्र का ज्ञान नही है। मेरा मानना है की हिन्दी को राज भाषा न मानकर लोकभाषा मानना चाहिए ।
भाषा का निर्माण कहाँ होता है। और कौन करता है आप उसे साहित्यकार या उसकी पुस्तक बता सकते हैं लेकिन हकीकत कुछ अलग ही है। इसका निर्माण वे करते हैं जिन्हें शायद भाषा शब्द ही पता न हो। मेरा मानना है की प्रत्येक हिन्दी भाषी को कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा को जरुर सिखाना चाहिए।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

काले-बादल


कभी देखकर तुम्हें मन मयूर हो जाता है,

कभी तेरे रूप से मन मायूस हो जाता है।

जब महीना सावन भादौं का हो,

तब तेरा रूप सिलोन लगता है।

आने से तेरे घर-घर में

खुशियों की बारिस हो जाती है।

पर देखा तुम्हारा यही रूप मुझे क्रोध बहुत ही आता है।

महीना चैत वैशाख का हो खेतों में सोना पड़ा रहे।

तुम उसे अपनी छाया में लेकर

मिटटी में मिला देते हो।

धिक्कार है उस भगवान को, जिसने तुम्हे बनाया होगा।

तेरा प्यार हमें कम ही मिलता है पर दुख ज्यादा ही होता है।

पर सर्व्सत्ताशायी हो तुम, इतना अन्याय मत करो

कर जोड़ विनती है हम सब की कुछ हमारा भी ध्यान धरो।

रविवार, 14 सितंबर 2008

तन्हाई

सबसे बाद में जो सताती है मुझे

उसे मैं केवल तन्हाई कहता हूँ।

प्यार के बाद दूर जाकर उदास रहने को

मैं केवल तन्हाई कहता हूँ।

अकेला रहना यादों के सहारे

मेरे लिए तन्हाई है।

चश्मा जब ठहर जाए मिलने से पहले तो

इसे मैं तन्हाई कहता हूँ।

तवील रास्तों में कोई न मिले तो

तन्हाई ही हमारे साथ चलती है।

तनही के रूप अनेक

हर एक में है तन्हाई

इसीलिए मैं तनहा हूँ यहाँ

और तुम तनहा हो वहाँ।

ट्रेन छूटने तक


तुम्हारे हाथ को हिलते देखने के लिए

मैं खड़ा रहा

ट्रेन छूटने तक।

आज भी जब कोई ट्रेन गुजरती है

मैं खड़ा होकर उसे देखता रहता हूँ

गुजर जाने तक ।

आशा लगाये रहता हूँ कि

किसी दिन तुम आओगी उसी ट्रेन में

लेकिन वक्त ऐसे ही निकल जाता है

तुम्हें याद करते-करते ।

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

ओलम्पिक में मिले पदक- भारत के लिए गर्व या शर्म

चीन में वर्ष २००८ के अगस्त में खेल महाकुम्भ ओलम्पिक का आयोजन किया गया । सुखद बात यह रही कि इस आयोजन में भारत को व्यक्तिगत स्पर्धा में एक स्वर्ण पदक तथा दो रजत पदक मिले। भारत के १०८ साल के ओलम्पिक इतिहास में पहली बार किसी को व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक नसीब हुआ है। प्रशन यह उठता है कि आख़िर अभी तक भारत में किसी को व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक प्राप्त क्यों नही हुआ?

जहाँ तक मेरा मानना है वह यह है कि इसके पीछे सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। वर्ष २००५-०६ में ४३८.९९ करोड़ रुपये का बजट खेल के लिए प्रस्तावित किया गया था। लेकिन ३८६.१० करोड़ ही स्वीकृत किया गया। यही हालत २००६-०७ की भी रही। इस साल ४५७.२० करोड़ ही दिया गया वह भी यह rashtra मंडल खेलों की तैयारी के लिए है। कहने को तो २००७-०८ में ७०० करोड़ का प्रावधान किया गया है जिसमें से २३७.५१ करोड़ राष्ट्र मंडल खेलों तैयारी के लिए है ।

भारत में राष्ट्रीय खेल का आयोजन हर दो साल पर किया jaanaa था। लेकिन ऐसा नही है। पिछले साल असम के गुवाहाटी में हुए ३३वे तथा हैदराबाद में हुआ३२वे राष्ट्रीय खेल में ५ साल का अन्तर था। इसी तरह ३० वें और ३१ वें राष्ट्रीय खेल में तीन साल तथा २८वेन और २७ वें राष्ट्रीय खेल में ७ साल का अन्तराल रहा । भारत में राष्ट्रीय खेल कभी पास हुआ है कभी फेल। ऐसी स्थिति में भारत के लिए यह पदक क्या हैभारत में खेल का आधार ही कमजोर है। वर्ष १९८४ में बने भारतीय खेल प्राधिकरण के तहत जिला स्तर की हर प्रतियोगिता के लिए ३० हजार तथा राज्य स्तर की हर एक प्रतियोगिता के लहै रुपयों का प्रावधान किया गया है ही ऊट के मुह में जीरे के सामान है। खेल प्रशिक्षकों की संख्या देखी जाए तो भारत में एक जिले के लिए केवल ३ प्रशिक्षक ही है । ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिंद्रा तथा कांस्य पदक जीतने वाले सुशील और विजेंद्र ने यह स्पष्ट कर दिया की भारत में आज भी प्रतिभा की कमी नही है। कमी है तो उन्हें एक दिशा देने वालों की। भारत के किसी भी जिले में खेल prashikshakon की संख्या बहुत ही कम है।

ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव विन्द्रा तथा कांस्य पदक जीतने वाले सुशील और विजेंदर कुमार ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत में भी प्रतिभा की कमी नही है, कमी है तो उन्हें एक दिशा देने वाले की। भारत के किसी भी जिले की यह हल नही है कि वहां की खेल संस्था ठीक ले काम कर सके। खिलाड़ियों को जीतने के बाद तो पैसों से तौल दिया जाता है परन्तु जब वह तैयारी कर रहे होते हैं तब उन्हें अर्थाभाव से गुजरना पड़ता है। बीजिंग ओलम्पिक की तैयारी कर रहे खिलाड़ियों को मात्र ७५००० रुपये प्रति खिलाड़ी मिले थे। वह भी पुरी तैयारी के लिए। ऐसी स्थिति में भारत के खेल की क्या दशा होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। भारत यदि इग्लैंड में होने वाले ओलम्पिक में कुछ करना चाहता है तो उसे चीनी माडल अपनाना चाहिए। तथा खिलाड़ियों को सभी प्रकार की सुबिधा मुहैया करवाना चाहिए। जिससे पदक जीतने के बाद यह कोई न कहे कि इसके लिए मुझे इतने रुपये लगाने या खर्च करने पड़े।