सोमवार, 8 अक्तूबर 2007

अन्तरजातीय विवाह का सच

विश्व मे हो रहे संघर्ष तथा लड़ाइयों को अगर बारीकी से देखा जाय तो उसका मूल दो जातियों अथवा धर्मों के मध्य ही है। चाहे सिया-सुन्नी समुदाय हो या कोई और समुदाय उनके मध्य लडाई का कारण उनका धर्म ही है। धर्म और जाति व्यवस्था समाज में अपना पैर बहुत मजबूती के साथ जमे चूका है। ऐसे में हो रही इस विडम्बना को कि इसे धार्मिक गुरू या सरकार संचालित कर रही है, यह उचित नही है ।
एक ओर तो विकास के मार्ग पर बढते हुआ नित्य-प्रति ऊची-ऊची मंजिलों को छू रही है। परंतु इसके मूल मे जाति-प्रथा भी अपना प्रभाव बड़ा रही है। अधिक आरक्षण की मांग, आरक्षण के अन्दर आरक्षण आदि अनेक ऐसे कारक हैं जो सरकार की नीतियों में कहीँ न कहीँ कोढ़ को प्रदर्शित कर रही हैं। यदि भारत की सरकार इसे मिटाना चाहती है तो आरक्षण को पहले सा करना होगा
जाति धर्म समाप्त को धीरे-धीरे समाप्त करने में अंतर्जातीय विवाह काफी हद तक सफल हो सकती है। परन्तु इस देश में ये व्यव्स्थाएं इतनी मजबूत हैं कि आम आदमी को अंतर्जातीय विवाह करने की बात को सोचना ही मुश्किल है आज के समाज में ऐसा प्रतीत होता है कि क्रीमीलेयर के लिएअंतर्जातीय विवाह चाहे आधिकार है।"रंगीन दुनिया" मे रहने वाले लोग चाहे जिस जाति, धर्म या संप्रदाय के लोगों से शादी कर लें उन्हें इसकी छूट है। परन्तु इसी देश मे अगर कोई भी अन्य व्यक्ति इस प्रकार
की ग्क्स्ताखी करता है तो उसे इसाकी भारी-भरकम कीमत चुकानी पड़ती है। कभी-कभी तो वह समाज की जनता की क्रूरुता का शिकार होकर अपने जीवन कसा ही अंत कर लेते हैं। समाज में ऐसा कौन सा रोग है जो निम्नवर्ग या मध्यमवर्ग के लिए अभिशाप का कर्ण बन जाता है।
अभी हाल ही में प्रकाशित एक खबर के अनुसार जलन्धर में प्रेम-बिवाह करने की सजा यह मिली की उस नव दाम्पत्य को अपने आबरू अर्थात इज्जत मन -मर्यादा को तक पर रख कर मुह में काले रंग को लगा कर घुमाया गया। यह कौन सा समाज है जो प्रतिष्ठितों के लिए तो वरदान परन्तु माध्यम वर्ग के लिए अभिशाप है। इसी प्रकार की वारदातें प्रायः प्रकाश में आती रहती हैं। इससे केवल यही प्रतीत होता है कि आज भी मानव समाज ऊच-नीच के बंधनों में जकडा हुआ हैं।
भारत जैसे विकासशील देश में इस प्रकार के कार्य इसके विकास में रोड़ा बनने का कम कर रही हैं। राजनीतिक दल को जाति को वोट बैंक के रुप में देखती हैं और उन्हें आरक्षण देने की बात करती हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था को बढाने में राजनीतिक दल बहुत ही अधिक महत्व पूर्ण भूमिका निभा रहें हैं। हाल ही में राजस्थान में हुई घटना के पीछे जाति का ही मामला रहा है। आख़िर कब तक जाति व्यवस्था भारत में अपना प्रभुत्व बनाए रखने में सक्षम रहेगी। क्या इसे समाप्त करने का कोई रास्ता नही है। ऐसा तो नही कि किसी समस्या का समाधान न हो। जाति व्यवस्था को समाप्त करने का एक बहुत ही कारगर कदम होगा कि अंतरजातीय बिवाह को प्रोत्साहन मिले।
धीरे- धीरे ही सही प्रेम-बिवाह का जो रुप समाज स्वीकार करने से मुकर रह है,उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।अधिकतर प्रेम बिवाह अंतरजातीय होते हैं। अंतरजातीय बिवाह का फायदा यह होता हैं कि उनके बच्चे किसी एक जाति के नही होकर दो जातियों के होते हैं। इससे जाति के निर्धारण में भी कठिनाई आ जायेगी। अतः जाति को समाप्त करने में अंतरजातीय बिवाह को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिऐ।

वह महिला

वह कौन है जो गन्दे कपडों में
अपने बच्चो के संग मे
कूड़े उठाती फिरती है
कभी इस ढेर कभी उस ढेर पर।
दिन-भर वह चला करती है
वह कौन है जो नंगे पावों भी
कांटे पर ही चलती है
बस दो वक्त की रोटी के लिए
दुनिया का कबाड़ वह ढोती है

कोई उनकी इस दशा पार
क्यों ध्यान नही देता है
क्या सोई है देश कि मीडिया
या फिर रसूकों के गुलाम हुई है
जन सेवा का व्रत करने वाले
क्या वो भी इस पर सोचा है
सुरक्षा उन्हें क्या है
वे तो बस वोट बैंक है
उनको नही पता है कि
हम भी मानव के मानव है
तुम उठो, एक प्रणय करो,
काम करो, बस काम करो
निश्चय ही फल मिल जाएगा
बस सुबह फूल खिल जायेगा।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

मायावती की राजनीति

भारत का एक ऐसा भी राज्य है जहाँ से होकर ही केंद्र का रास्ता गुजरता है,वह है उत्तर-प्रदेश। इस प्रदेश की राजनीतिक कमान कैसे अपने पक्ष में किया जाए यह हर पार्टी की सोच होती है। पिछले १६ सालों से ऐसी सरकार नही बन सकी जो बिना गठबंधन हो। आख़िर क्या कारण है कि २००७ मे हुए विधानसभा के चुनाव ने बसपा को एक अकाल्पनिक जीत दर्ज की है।
उत्तर-प्रदेश काफी समय से एक गुण्डा राज्य बना हुआ था। वहां पर बहुत से ऐसे नेता पिछले कुछ सालों में हुए हैं जो जनता की भावनाओं को ताक पर रख कर शासन करते थे। मूलरूप से उत्तर-प्रदेश से सम्बन्ध रखने के कारण वहां पर होने वाली ज्यादती का एहसास मुझे भी अच्छी तरह से है। १०वी की परीक्षा २००३ मे जो शासन मायावती ने किया था उससे लोगों मे यह संदेशा अच्छी तरह से जा रहा था कि प्रतिभा को निखारने मे यह ठीक ही है। उस साल परीक्षा परिणाम का ग्राफ बहुत ही नीचे था। लेकिन उसके बाद मुलायम सिंह यादव कि सरकार और गृह परीक्षा तथा उसमे हुई नक़ल के कारण परिणाम का ग्राफ ऊपर तो जरुर उठा परन्तु शिक्षा का स्तर और भी नीचा हो गया। इंटर करने के बाद विद्यार्थिओं को किसी भी कालेज मे प्रवेश मिलना मुश्किल हो गया था। इससे वो भी इस सरकार से ऊब चुके थे तथा एक अच्छी और वह सरकार चाहते थे जो उनके जीवन मे एक नया आयाम लेकर आये।
उत्तर-प्रदेश कि अधिकतर जनता अशिक्षित है। उन पर पुलिस द्वारा किया जाने वाला अत्याचार उनके लिए असहनीय बनता जा रहा था। प्रशासन मे गुन्दगार्दी हो रही थी और उसका राजनीतिकरण हो गया था। सरकार केवल ऊचे रसूक वालों का ही ध्यान रखती थी। ऐसे में बेचारी भोली-भली जनता करे तो क्या करे। लगभग छः महीने का ही शासन का शासन इस जनसमुदाय को पसंद आ जाने के कारण ही लोगों ने अपना पूर्ण बहुमत मायावती की ही झोली मे डालने में हिचकिचाहट नही की।
२००३ मे जब मायावती उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री थी तो आलम यह था कि विद्यालय अपने समय पर खुलते थे। अध्यापक समय पर आते थे। सरकारी काम-काज आसानी से हो जाते थे। लोगों को थाने जाने मे भी डर नही लगता था। उनकी समस्यों को सरकारी कर्मचारी सुनते थे और उस पर अमल मे लाते थे। वही इसका उल्टा प्रभाव मुलायम सिंह यादव की सरकार मे देखने को मिला था। मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं किसी भी राजनीतिक पार्टी से संबंध नही रखता हूँ और देश का विकाश और मानवाधिकारों के हनन पर रोक ही मेरी पहली और अन्तिम प्राथमिकता है।
कुछ भी हो मायावती ने इस बार के चुनाव मे जो राजनीति अपनाई थी वह काफी हद तक सफल हुई है। इस दल के अन्दर सभी वर्गों और जातियों के लोगों को स्थान दिया था। तभी शायद इसका नारा " हाथी नही गणेश है,व्रह्मा,विष्णु, महेश है" यह दिया गया था। पहले दल को दलित दल या दलित लोगों का दल समझा जाता था। परन्तु इस बार के विधानसभा के चुनाव मे इस दल ने जिस प्रणाली को अपनाया वह चाहे उस क्षेत्र के आधार पर हो उम्मीदवारों का चयन किया या जाति के आधार पर परन्तु अभी यह गणित पुरी तरह से उसके पक्ष मे गयी है।
अब इन आने वाले में देखना है कि क्या मायावती अपने उद्देश्य में सफल हो पति है या नही। जैसा उन्होंने शुरू मे संकेत दिया उससे तो ऐसा लगता है कि वह अपने मूल तक पहुच जायेगी। विधायक दल की पहली बैठक ही अपने मे बहुत महत्व रखती है। इस बैठक मे उन्होंने स्पष्ट संकेत कर दिया कि अब असली परीक्षा की घड़ी आ गयी है तथा अपने आप को साबित करना ही होगा।
ऐसे मे अब मायावती के सम्मुख दो बड़ी चुनौतियाँ भी उत्पन्न हो गयी है। इन दोनों मे आपस मे कैसे संबंध बनायाया जाये यह एक कठीण प्रश्न है। सबसे बड़ी चुनौती गुंडाराज्य को समाप्त करना है। इसमें काफी समय लग सकता है। लेकिन क्या देश या उस राज्य की जनता को इससे ही सन्तुष्ट किया जा सकता है । उत्तर हमेशा नकारात्मक ही होगा। दुसरी चुनौती इस बात की है कि युवा शक्ति को अच्छे कामों मे कैसे लगाया जाए। विकास का कौन सा मार्ग अपनाया जे जिससे कम से कम विनाश हो। इनमे सम्बन्ध बैठाये बिना कोई भी कार्य इच्छित फल नही दे सकता है।


गुरुवार, 4 अक्तूबर 2007

दृष्टान्त तक

ले चल मुझे वहां पर
जहाँ बदल मिल जाते हैं भू से
कैसा जीवन है उनका
इसका आभास करा दे मुझको
उसी ओर से आये हवा
किसी अनजान की याद दिलाये
वह कौन वहां पर रहता है
उससे मुझे मिला दें
क्यों आज नही कल-कल करते हो
आज ही मुझे है उस पर जाना
आख़िर बात बता क्यों नही देते
तेरे मन का राज
जब तक जीवन की सांस चले
क्षितिज नही मिल सकता है
अपने उस अनजान प्रेमी से
नयन चार नही कर सकते है।

ज़िन्दगी

उठने,गिरने, फिर से चलने का नाम ही तो
ज़िन्दगी है।
जो सदा चले और चलती ही रहें वही तो
जिन्दगी है।
ठोकर खाए, रूक जाये, फिर चले वही तो
जिन्दगी है।

काश मैं भूल जाऊ


दिन का सारा कम अगर मैं
भूल जाऊ
रात को अच्छी नींद तो मैं
ले पाऊ
दुर्लभ जीवन कर देता है
कंप्यूटर का काम
ई-मेल बनाना, ब्लाग बनाना
काम पूरा करना है
शाम को पता चला
अभी तक का काम
सही नही है
फिर सोचा
सब कुछ भूल कर
एक नया परिचय बनाऊ
और उसी पर जीवन का
सारा भार डाल जाऊ
काश मैं यह कर सकता
तो जीवन ही बदल जाता
सूरज नया होता मेरे लिए
और मैं नया होता उसके लिए

बुधवार, 3 अक्तूबर 2007

दोस्त -मेरा

यार तू ही मेरा दोस्त है
जो कहता है वह करता नही,
जो करता है वह कहता नही
ग़ुस्सा आती है पर क्या करू
मेरी भाषा यहाँ तू ही समझता है
अब तो मुझे डर सा लगता है
तेरे साथ चलने में
तू चलता नही
और चलता है
तो
वादों, बातों, और भाषण पर
यह मुझे पसन्द नही
कर्म नही करता,
बातें बड़ी- बड़ी करता है
वादा करने में तो तू
नेता का भी गुरू निकला
उन्हें सिखाना वादे करना
और इसे और इसका काम करना
बस अब मेरे यार मुझे
थोड़ा तू आराम दें
वादें मत कर मुझसे॥