शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

मायावती की राजनीति

भारत का एक ऐसा भी राज्य है जहाँ से होकर ही केंद्र का रास्ता गुजरता है,वह है उत्तर-प्रदेश। इस प्रदेश की राजनीतिक कमान कैसे अपने पक्ष में किया जाए यह हर पार्टी की सोच होती है। पिछले १६ सालों से ऐसी सरकार नही बन सकी जो बिना गठबंधन हो। आख़िर क्या कारण है कि २००७ मे हुए विधानसभा के चुनाव ने बसपा को एक अकाल्पनिक जीत दर्ज की है।
उत्तर-प्रदेश काफी समय से एक गुण्डा राज्य बना हुआ था। वहां पर बहुत से ऐसे नेता पिछले कुछ सालों में हुए हैं जो जनता की भावनाओं को ताक पर रख कर शासन करते थे। मूलरूप से उत्तर-प्रदेश से सम्बन्ध रखने के कारण वहां पर होने वाली ज्यादती का एहसास मुझे भी अच्छी तरह से है। १०वी की परीक्षा २००३ मे जो शासन मायावती ने किया था उससे लोगों मे यह संदेशा अच्छी तरह से जा रहा था कि प्रतिभा को निखारने मे यह ठीक ही है। उस साल परीक्षा परिणाम का ग्राफ बहुत ही नीचे था। लेकिन उसके बाद मुलायम सिंह यादव कि सरकार और गृह परीक्षा तथा उसमे हुई नक़ल के कारण परिणाम का ग्राफ ऊपर तो जरुर उठा परन्तु शिक्षा का स्तर और भी नीचा हो गया। इंटर करने के बाद विद्यार्थिओं को किसी भी कालेज मे प्रवेश मिलना मुश्किल हो गया था। इससे वो भी इस सरकार से ऊब चुके थे तथा एक अच्छी और वह सरकार चाहते थे जो उनके जीवन मे एक नया आयाम लेकर आये।
उत्तर-प्रदेश कि अधिकतर जनता अशिक्षित है। उन पर पुलिस द्वारा किया जाने वाला अत्याचार उनके लिए असहनीय बनता जा रहा था। प्रशासन मे गुन्दगार्दी हो रही थी और उसका राजनीतिकरण हो गया था। सरकार केवल ऊचे रसूक वालों का ही ध्यान रखती थी। ऐसे में बेचारी भोली-भली जनता करे तो क्या करे। लगभग छः महीने का ही शासन का शासन इस जनसमुदाय को पसंद आ जाने के कारण ही लोगों ने अपना पूर्ण बहुमत मायावती की ही झोली मे डालने में हिचकिचाहट नही की।
२००३ मे जब मायावती उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री थी तो आलम यह था कि विद्यालय अपने समय पर खुलते थे। अध्यापक समय पर आते थे। सरकारी काम-काज आसानी से हो जाते थे। लोगों को थाने जाने मे भी डर नही लगता था। उनकी समस्यों को सरकारी कर्मचारी सुनते थे और उस पर अमल मे लाते थे। वही इसका उल्टा प्रभाव मुलायम सिंह यादव की सरकार मे देखने को मिला था। मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं किसी भी राजनीतिक पार्टी से संबंध नही रखता हूँ और देश का विकाश और मानवाधिकारों के हनन पर रोक ही मेरी पहली और अन्तिम प्राथमिकता है।
कुछ भी हो मायावती ने इस बार के चुनाव मे जो राजनीति अपनाई थी वह काफी हद तक सफल हुई है। इस दल के अन्दर सभी वर्गों और जातियों के लोगों को स्थान दिया था। तभी शायद इसका नारा " हाथी नही गणेश है,व्रह्मा,विष्णु, महेश है" यह दिया गया था। पहले दल को दलित दल या दलित लोगों का दल समझा जाता था। परन्तु इस बार के विधानसभा के चुनाव मे इस दल ने जिस प्रणाली को अपनाया वह चाहे उस क्षेत्र के आधार पर हो उम्मीदवारों का चयन किया या जाति के आधार पर परन्तु अभी यह गणित पुरी तरह से उसके पक्ष मे गयी है।
अब इन आने वाले में देखना है कि क्या मायावती अपने उद्देश्य में सफल हो पति है या नही। जैसा उन्होंने शुरू मे संकेत दिया उससे तो ऐसा लगता है कि वह अपने मूल तक पहुच जायेगी। विधायक दल की पहली बैठक ही अपने मे बहुत महत्व रखती है। इस बैठक मे उन्होंने स्पष्ट संकेत कर दिया कि अब असली परीक्षा की घड़ी आ गयी है तथा अपने आप को साबित करना ही होगा।
ऐसे मे अब मायावती के सम्मुख दो बड़ी चुनौतियाँ भी उत्पन्न हो गयी है। इन दोनों मे आपस मे कैसे संबंध बनायाया जाये यह एक कठीण प्रश्न है। सबसे बड़ी चुनौती गुंडाराज्य को समाप्त करना है। इसमें काफी समय लग सकता है। लेकिन क्या देश या उस राज्य की जनता को इससे ही सन्तुष्ट किया जा सकता है । उत्तर हमेशा नकारात्मक ही होगा। दुसरी चुनौती इस बात की है कि युवा शक्ति को अच्छे कामों मे कैसे लगाया जाए। विकास का कौन सा मार्ग अपनाया जे जिससे कम से कम विनाश हो। इनमे सम्बन्ध बैठाये बिना कोई भी कार्य इच्छित फल नही दे सकता है।


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