शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

किताबों में बीता बचपन

कैसा यह बचपन है,
न खेलने की आजादी है, न घूमने की।
अपना भार लिए ढ़ोता रहूँ,
यही अब मेरा बचपन है।
जितना मेरा भार नही
उतनी भारी हैं पुस्तक
ऊपर से मैड़म की डॉट पडे
तो
आजादी कैसी है।
मैं चाह कर के भी
नही घूम सकता हूँ
हमारे ऊपर बॉस बने अध्यापक
प्रतिदिन का काम बताते
अंग्रेजी पढ़ना, हिंदी पढ़ना
कंप्यूटर की शिक्षा लेना
दिन आते रहे, जाते रहे
पता नही कब बीत गया बचपन
अब तो जीं मेरा घुटता जाता है
पुस्तकों को देख कर
कहीँ से थोडा मुझे राहत मिल जाये
तो
स्वर्ग का आनंद मैं महसूस कर लेता
अपने दिलों दिमाग में स्फूर्ति भर लेता।

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