बुधवार, 3 अक्तूबर 2007

अपनी दिनचर्या बनाया

विकास के शिखर पर बैठे लोगों को देखकर
मेरे मन मे यह बात आई
कैसे उस शिखर पर पहुचू
जहां का मंजिल बहुत बड़ा है।
थोडा सोचा
चलो अपनी दिनचर्या बनाऊ
उस पर अमल करु
और आगे आऊ
बना डाली दिनचर्या
सुबह से शाम तक की
शाम से सुबह तक की
एक दिन, दो दिन, तीन दिन बीता
फिर भूल गया यह सारी दिनचर्या
याद क्या रहता है
उठना, नहाना, खाना, पढना और
बाद में
सो जाना
जिंदगी बीत जाती है इसी में
सारे मानव जाति की अंत में बचत है जो
वह भी चिन्ता और सोच
के नाम चली जाती है
अंत में जाना ही है
यही मानव का जीवन है ॥





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